।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 03 ।।
।। अध्याय 02. 03 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 2.3॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
“klaibyaḿ mā sma gamaḥ pārtha,
naitat tvayy upapadyate..I
kṣudraḿ hṛdaya-daurbalyaḿ,
tyaktvottiṣṭha parantapa”..II
भावार्थ :
इसलिए हे अर्जुन! तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो॥ ३॥
Meaning:
Don’t yield to this effeminate behaviour, O Paartha, it is not worthy of you. Cast off this petty weakness of heart and arise, O scorcher of foes!
Explanation:
Here you find that even though Krishna addresses Arjuna, Krishna does not teach Gita wisdom. There is no Gita wisdom involved here. Neither karma yogah nor jnanam, nor nothing of that sort. Just some strong words to whip up Arjuna. Why Krishna does not teach Gita here? The reason is two-fold. First thing is Arjuna has not surrendered to Krishna and is also not prepared to listen. Only when the other person is ready to receive knowledge, I can give; because any transaction requires one receiver and one giver. I may be ready to give, but if the other person is not ready to receive, it is foolishness to teach or give advice.
You should give suggestions or advice only to a person who values your advice And preferably only to a person who asks for advice. Once you know that the other person does not ask and once you know that the other person does not have value for your words, kindly never give advice. If you give the advice. It is like crying in wilderness. It is a very important lesson we learn from Krishna, because he knows a lot, He can easily advice or teach Arjuna but still Krishna does not do that because unless Arjuna is ready to receive, He should not give.
Shri Krishna, an expert motivational speaker, used a “carrot and stick” approach towards Arjuna here. Let’s first look at the stick or negative aspect, followed by the carrot or positive aspect.
Successfully treading the path of enlightenment requires high spirits and morale. One needs to be optimistic, enthusiastic, and energetic to overcome the negativities of the material mind, such as sloth, the rut of habit, ignorance, and attachment. Shree Krishna is a skillful teacher, and thus having reprimanded Arjun, He now enhances Arjun’s internal strength to tackle the situation by encouraging him.
One of the worst things you can call a warrior is effeminate. Even young boys playing sports will get upset when someone says ‘Hey! You throw the ball like a girl!”. So imagine how Arjuna felt when Shri Krishna called him effeminate. Moreover, using the adjective weak- hearted to describe Arjuna was another jolt to the usually courageous and lion-hearted warrior.
But Shri Krishna also appealed to Arjuna’s better qualities. By addressing him as “Paartha”, he reminded Arjuna of his esteemed and respected mother Prithaa (Kunti), who happened to be the sister of Krishna’s father Vasudeva. Therefore Arjuna had a blood relationship with Krishna. how she would feel if Arjuna shirked away from war. Shri Krishna also reminded Arjuna of his battle prowess, that he was called a “scorcher of foes”.
Shree Krishna goes on to explain that the way he is feeling is neither moral duty nor true compassion; rather, it is lamentation and delusion. It has its roots in weakness of mind. If his behavior was truly based on wisdom and mercy, then he would experience neither confusion nor grief.
The final point in this shloka is the powerful Sanskrit word “utthishta”, meaning arise, which evokes Swami Vivekananda’s famous statement “Arise! Awake! and stop not till the goal is reached!’. Arjuna is instructed not just to arise physically, but also to lift his mind from the depths of delusion to a higher plane of intelligence.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान् श्रीकृष्ण जो अब तक मौन खड़े थे अब प्रभावशाली शब्दों द्वारा शोकाकुल अर्जुन की कटु र्भत्सना करते हैं।
माता पृथा(कुन्ती) के सन्देश की याद दिला कर अर्जुन के अन्तःकरण में क्षत्रियोचित वीरता का भाव जाग्रत् करने के लिये भगवान् अर्जुन को पार्थ नाम से सम्बोधित करते हैं । कुंती कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन होने से कृष्ण का अर्जुन से रिस्तेदारी भी है।
अर्जुन कायरता के कारण युद्ध करने में अधर्म और युद्ध न करने में धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुन को चेताने के लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्म की बात नहीं है यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है। इसलिये तुम इस नपुंसकता को छोड़ दो।
उन के प्रत्येक शब्द का आघात कृपाण के समान तीक्ष्ण है जो किसी भी व्यक्ति को परास्त करने के लिये पर्याप्त है। क्लैब्य का अर्थ है नपुंसकता। यहाँ इस शब्द से तात्पर्य मन की उस स्थिति से है जिस में व्यक्ति न तो एक पुरुष के समान परिस्थिति का सामना करने का साहस अपने में कर पाता है और न ही एक कोमल भावों वाली लज्जालु स्त्री के समान निराश होकर बैठा रह सकता है। आजकल की भाषा में किसी व्यक्ति के इस प्रकार के व्यवहार में उस के मित्र आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह आदमी स्त्री है या पुरुष अर्जुन की भी स्थित राजदरबार के उन नपुंसक व्यक्तियों के समान हो रही थी जो देखने में पुरुष जैसे होकर स्त्री वेष धारण करते थे। पुरुष के समान बोलते लेकिन मन में स्त्री जैसे भावुक होते शरीर से समर्थ किन्तु मन से दुर्बल रहते थे।
अब तक श्रीकृष्ण मौन थे उनका गम्भीर मौन अर्थपूर्ण था। अर्जुन मोहावस्था में युद्ध न करने का निर्णय लेकर अपने पक्ष में अनेक तर्क भी प्रस्तुत कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि पहले ऐसी स्थिति में अर्जुन का विरोध करना व्यर्थ था। परन्तु अब उसके नेत्रों में अश्रु देखकर वे समझ गये कि उसका संभ्रम अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है।
भक्ति परम्परा में यह सही ही विश्वास किया जाता है कि जब तक हम अपने को बुद्धिमान समझकर तर्क करते रहते हैं तब तक भगवान् पूर्णतया मौन धारण किये हुए अनसुना करते रहते हैं किन्तु ज्ञान के अहंकार को त्यागकर और भक्ति भाव से विह्वल होकर अश्रुपूरित नेत्रों से उनकी शरण में चले जाने पर करुणासागर भगवान् अपने भक्त को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर मार्गदर्शन करने के लिये उसके पास बिना बुलाये तुरन्त पहुँचते हैं। इस भावनापूर्ण स्थिति में जीव को ईश्वर के मार्गदर्शन और सहायता की आवश्यकता होती है।
ईश्वर की कृपा को प्राप्त कर भक्त का अन्तकरण निर्मल होकर आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है जो स्वप्रकाशस्वरूप चैतन्य के साक्षात् अनुभव के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इस स्वीकृत तथ्य के अनुसार तथा जो भक्तों का भी अनुभव है गीता में हम देखते हैं कि जैसे ही भगवान ने बोलना प्रारम्भ किया वैसे ही विद्युत के समान उनके प्रज्ज्वलित शब्द अर्जुन के मन पर पड़े जिससे वह अपनी गलत धारणाओं के कारण अत्यन्त लज्जित हुआ।
सहानुभूति के कोमल शब्द अर्जुन के निराश मन को उत्साहित नहीं कर सकते थे। अत व्यंग्य के अम्ल में डुबोये हुये तीक्ष्ण बाण के समान वचनों से अर्जुन को उत्तेजित करते हुये अंत में भगवान् कहते हैं उठो और कर्म करो।
उतिष्ठा शब्द का प्रयोग स्वामी विवेकानंद जी ने भी युवा शक्ति को जाग्रत करने के लिए था, ” उठो और जागो”।
हे युवाओ उठो जागो और अपने लक्ष्य को प्राप्ति तक रुको नहीं” – स्वामी विवेकानन्द।
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।”
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४) जिसका अर्थ कुछ यूं हैः उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना ।
अपनी अस्मिता को खोए हुए नवयुवकों और सनातन धर्म की प्रतिष्ठा और गौरव पूर्ण इतिहास विस्मरण किए, सनातन धर्म के पुनरुत्थान के लिए विवेकानंद से पूर्व भी अनेक धर्म गुरुओं ने इसी मंत्र को प्रयोग किया था और आज भी इसी का प्रयोग कर के असंगठित और भ्रमित हिंदू को अनेक संस्थाएं संगठित करने का प्रयास कर रही है।
भगवान श्री कृष्ण सर्वगुण संपन्न प्रवक्ता और ज्ञानी है, उन्हे ज्ञात है किसे, कब, क्या और कहा बोलना है। इसलिए उन्हें अपने वचन का मूल्य भी मालूम है, गीता का ज्ञान युद्ध के जुटी लाखो को नही दे कर, सिर्फ शरणागत गए अर्जुन को दिया। अर्जुन साहसी, निपुण और ज्ञानी योद्धा है, उस का युद्ध भूमि में अवसाद अपने विरुद्ध स्वजनों को देख कर मोह और भय से हुआ और उसे वह अपने ज्ञान से यह सिद्ध करना चाहता है कि स्वजनों से युद्ध करना, शास्त्रों के विरुद्ध है। उसे भगवान श्री कृष्ण का समर्थन चाहिए, कोई ज्ञान नही क्योंकि युद्ध नही करने का निर्णय भी वह ले चुका है। इसलिए यदि इस स्थिति में उसे गीता या ज्ञान दिया जाए तो यह ठीक वैसा है जैसे कोई किसी से मना करने पर भी व्यवहार कर ले और फिर उस के कारण हुई अपनी तकलीफ बताए तो कोई उसे ज्ञान देगा तो उस ज्ञान को वह सर झुका कर सुन कर नकार देगा। जब तक कोई व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से शरणागत हो कर अपने से अधिक ज्ञानी की शरण में न जाए, उस को दिया ज्ञान, व्यर्थ का आलाप ही है। इसलिए निराश व्यक्ति को उस प्रथम उस की अस्मिता और सामर्थ्य जगा देने से ही उस के अवसाद का निराकरण किया जा सकता है। हर स्थान पर ज्ञान की बजाए, उत्साह के लिए प्रबंधन और प्रेरणा देने और भी तरीके प्रयोग किए जा सकते है।
व्यवहारिक जीवन मे किसी भी निराश व्यक्ति को ज्ञान देने से पहले उस के स्वाभिमान को जाग्रत करना पहले यह कह कर की यह तुन्हें शोभा नही देता फिर यह भी कहना कि ऐसा करना कितना निम्न स्तरीय है, उस के रिस्तेदारी को संबोधित करना, संवाद की सर्वोत्तम कला है। वास्तव में अपनी बात किस परिस्थिति में कब और कैसे रखना चाहिए कि सामने वाला उसे सम्मान पूर्वक सुने। भगवान श्री कृष्ण कुशल मार्गदर्शक एवम प्रवक्ता है, अर्जुन को निराश देख कर एक दम से प्रवचन नही दे कर वह उस की निराशा की गहराई नाप रहे थे। अक्सर हम जब भी निराश होते है, तो यह भावना का क्षणिक प्रभाव होता है, जो समय, स्थान एवम प्रेम, अनुराग, मोह या भय से उत्पन्न होता है, इस का प्रभाव भी किसी द्वारा संबोधन से समाप्त भी हो जाता है। शादी में लड़की विदा होते समय रोती है किंतु गाड़ी में बैठ कर जाते ही चुप हो जाती है, विदा करने वाले भी विदा करते ही अपने काम मे लग जाते है। अतः किसी प्रवक्ता द्वारा किसी को ज्ञान देने से पूर्व श्रोता की वास्तविक मन स्थिति का ज्ञान होना भी जरूरी है। यह भी हम इस अध्ययन से जानेगे।
।। हरि ॐ तत सत ।।02.03।।
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