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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  01.46 ।।

।। अध्याय   01.46  ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 1.46

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् 

“yadi mām apratīkāram,

aśastraḿ śastra-pāṇayaḥ..I

dhārtarāṣṭrā raṇe hanyus,

tan me kṣemataraḿ bhavet”..II

भावार्थ : 

यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर होगा॥ ४६॥

Meaning:

Even if I, unarmed and non-resistant, am killed in war by the sons of Dhritraasthra, who are armed with weapons, this will be beneficial for me.

Explanation:

I consider that as sacrificing my life for the sake of Dharma. I am going to consider it as like fasting people do. For the sake of the party, similarly self-immolation, they are considered to be rational party. I do not know how self-immolation and rationalism go together. There is no connection. Whatever it might be. Arjuna says that even if we have to sacrifice our lives, for the sake of saving the society, I do not mind. That I consider as fortune for me.

This is the final statement uttered by Arjuna in the first chapter of the Gita. It shows the extent of delusion in Arjuna’s mind, as he morphed from a mighty warrior into a pathetic, weak, helpless individual. Arjuna was desperately looking to escape the difficult situation he found himself in, and so his mind came up with all kinds of arguments to justify this escape, including making the escape “beneficial”.

Arjuna bases his argument not on his own personal experience, but on what he has heard from the authorities. That is the way of receiving real knowledge. One cannot reach the real point of factual knowledge without being helped by the right person who is already established in that knowledge.

And having said these words, Arjuna has exhausted everything. He has given a big lecture also and all these three problems have come out fully. rāgaḥ, śōkaḥ and mōhaḥ and Arjuna stops his words and what about Krishna. As I said utter strategic silence. because even if Krishna speaks now, Krishna knows that Arjuna is not going to listen. Therefore Krishna does not speak. Arjuna does not. And what does he say:

Let us revisit our friend Mr. X. He has been laid off due to the recession, and has been out of work for 3 months. He has not interviewed in over 2 weeks now. As time goes by, his confidence begins to weaken. If his mind cannot maintain equanimity, it will lead him down a path similar to Arjuna’s fall. He begins to think that there’s no point in applying for more jobs since there aren’t any, and even if he gets an interview call, he has to compete with more qualified candidates. Therefore, there’s no point even trying. In fact, it’s better to stay at home and do nothing because there’s no point applying for a job in a bad economy. Just look at how his mind has generated perverse logic to preserve the ego.

There’s another point to note here : Shri Krishna kept quiet throughout Arjuna’s rant. He wanted Arjuna to expel every perverse argument out of his system, in preparation for the teaching of the Gita.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यहाँ अर्जुन अपने अन्तिम निर्णय की घोषणा करता है। सब प्रकार से परिस्थिति पर विचार करने पर उसे यही उचित जान पड़ता है कि रणभूमि में वह किसी प्रकार का प्रतिकार न करे चाहें कौरव उसे शस्त्ररहित जानकर सैकड़ों बाणों से उसके सुन्दर शरीर को हरिण की तरह विद्ध कर दें।

यहाँ अर्जुन द्वारा प्रयुक्त क्षेम शब्द विचारणीय है क्योंकि वह शब्द ही उसकी वास्तविक मनस्थिति का परिचायक है। क्षेम और मोक्ष शब्द के अर्थ क्रमश भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति हैं। यद्यपि अर्जुन ने अब तक जो भी तर्क प्रस्तुत किये उनमें आध्यात्मिक संस्कृति के पतन के भय को बड़े परिश्रम से सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था परन्तु क्षेम शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि वह वास्तव में शारीरिक सुरक्षा चाहता था जो युद्ध पलायन में संभव थी।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि युद्ध में विजयरूपी फल में अत्यन्त आसक्ति और उसकी चिन्ता के कारण अर्जुन आत्मशक्ति खोकर एक उन्माद के मानसिक रोगी के समान विचित्र व्यवहार करने लगता है।

जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषय का वर्णन करता है उस विषय का उस के स्वयं पर असर पड़ता है। अर्जुन शुरुवात में पराक्रमी योद्धा की भांति युद्ध लड़ने को तैयार थे, किंतु सेना निरीक्षण के बाद अर्जुन ने भी जब शोकाविष्ट होकर अट्ठाईसवें श्लोक से बोलना आरम्भ किया तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्ध से उपरत नहीं हुए पर शोकविष्ट होकर बोलते बोलते अन्त में वे युद्ध से उपरत हो जाते हैं और बाणसहित धनुष का त्याग कर के बैठ जाते हैं। भगवान् ने यह सोचा कि अर्जुन के बोलने का वेग निकल जाय तो मैं बोलूँ अर्थात् बोलने से अर्जुन का शोक बाहर आ जाय भीतर में कोई शोक बाकी न रहे तभी मेरे वचनों का उस पर असर होगा। अतः भगवान् बीच में कुछ नहीं बोले।

अब तक अर्जुन ने अपने को धर्मात्मा मान कर युद्ध से निवृत्त होने में जितनी दलीलें युक्तियाँ दी हैं संसार में रचे पचे लोग अर्जुन की उन दलीलों को ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान् अर्जुन को जो बातें समझायेंगे उन को ठीक नहीं समझेंगे इस का कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थिति में हैं उस स्थिति की उस श्रेणी की बात को ही वे ठीक समझते हैं उस से ऊँची श्रेणी की बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुन के भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोह से आविष्ट होकर ही वे धर्म की साधुता की बड़ी अच्छी अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगों के भीतर कौटुम्बिक मोह है उन लोगों को ही अर्जुन की बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान् की दृष्टि जीव के कल्याण की तरफ है कि उस का कल्याण कैसे हो भगवान् की इस ऊँची श्रेणी की दृष्टि को वे (लौकिक दृष्टिवाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान् की बातों को ठीक नहीं मानेंगे प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुन के लिये युद्धरूपी पाप से बचना बहुत ठीक था पर भगवान् ने उन को युद्ध में लगाकर ठीक नहीं किया। 

वास्तव में भगवान् ने अर्जुन से युद्ध नहीं कराया है प्रत्युत उन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुन को कर्तव्यरूप से स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्ध का विचार तो अर्जुन का खुद का ही था वे स्वयं ही युद्ध में प्रवृत्त हुए थे तभी वे भगवान् को निमन्त्रण दे कर लाये थे। परन्तु उस विचार को अपनी बुद्धि से अनिष्टकारक समझ कर वे युद्ध से विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्य के पालन से हट रहे थे। इस पर भगवान् ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता यह तेरा मोह है। अतः समय पर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है उस का त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए यदि कुछ लोग गीता को युद्ध का शास्त्र समझ कर पढ़ते है और यह समझते है कि उन्हें अपने कार्य के लिए अपनों से भी लड़ना पढ़े तो भी पीछे न हटे तो वे लोग गलत ही है। अपने से विपरीत परिस्थितियों में विवेक द्वारा अपने कर्तव्य को समझना ही गीता की आधार शिला है, जिसे युद्ध भूमि की पृष्ठ भूमि में लिखा गया है क्योंकि उस से कठिन कोई अवस्था हो नही सकती।

जब ज्ञान आप के जीवन का हिस्सा नहीं होता तो ऊंची और श्रेष्ठ बाते लोग अपने व्यक्तित्व को चमकाने और अन्य को प्रभावित करने के लिए करते है। व्यवहार में मेरा अनुभव यही कहता है कि पति -पत्नी के आपसी विवाद में कटुता, अवसाद और विषाद दोनो ओर फैला रहता है,किंतु समस्या का निदान सही सलाहकार और घर के शुभ चिंतकों के साथ हो सकता है। अक्सर घर के शुभ चिंतक बिना विचारे एक पक्षीय निर्णय देने वाले होते है, इसलिए अवसाद में घिर कर बिना सोचे समझे और विवेक के यह निर्णय ले लिया जाता है कि अब दोनो का साथ रहना संभव नही, इसलिए इन्हे अलग हो जाना चाहिए। फिर यही निर्णय दोनो के दिमाग में यही लोग भर देते है। अर्जुन का शास्त्र ज्ञान भी कुछ ऐसा ही है, जिसे वह विवेक से सही स्थान पर प्रयोग नहीं करता और निर्णय भी ले लेता है कि चाहे मुझे विरोधी मार भी दे, मैं स्वजनों के विरुद्ध युद्ध नही कर सकता। यही ज्ञान आधुनिक युग के पति – पत्नी के झगड़े में आ जाता है, चाहे कोई कुछ भी कहे, अब हम साथ साथ नही रह सकते।  यही अपरिपक्वता है। जो अर्जुन अपने निराशा भाव के सारांश में कह रहा है। किंतु अर्जुन के पास कृष्ण जैसे सार्थक ज्ञानी और सलाहकार है।

कुरुक्षेत्र हो या आज का व्यवहारिक जगत, जो आंख, कान, मुख, मस्तिष्क या देखा, सुना, पढ़ा या याद किया हुआ वेदांत या ज्ञान है, वह मात्र कंप्यूटर की भांति अनुवाद है। ज्ञान वही है जो हृदय से अनुभवित कर के धारण किया जाए, जो हमारे आवरण का विषय न हो कर आचरण का परिमाण हो। पूर्वश्लोक में अर्जुन ने अपनी दलीलों का निर्णय सुना दिया। उस के बाद अर्जुन ने क्या किया इस को सञ्जय आगे के श्लोक में बताते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।।01.46।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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