।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01.44-45 ।। Additional II
।। अध्याय 01.44-45 ।। विशेष II
।। विशेष ।। 01. 44-45 ।।
गीता में अर्जुन के माध्यम से पारिवारिक कलह में किसी व्यक्ति की मानसिकता को बहुत अच्छे तरीके से दर्शाया गया है। बहुतयः परिवार में कोई व्यक्ति बाहर वालो के बहकावे में आ कर लोभ, स्वार्थ, कपट एवम आसक्ति भाव से सम्पति पर अधिकार जमाने की चेष्टा करने लगता है, जिस पर उस कोई अधिकार नही है, यहां दुर्योधन मामा शकुनि के बहकावे में है एवम अब वह पांडवो के राज्य को हड़पना चाहता है। बुजुर्ग मोह में फस कर, अपनी आसक्तियों, अपनी प्रतिबद्धता एवम संस्कारो की कमी के रहते अपने पुत्रों को रोकने में असमर्थ रहते है। जिसे हम यहाँ धृष्टराष्ट्र के रूप में देख रहे है। घर के अन्य रिश्तेदार मान मर्यादा एवम अपनी ही बनाई सीमा के कारण यह तो जानते है कि यह गलत है किंतु कुछ भी बोलने से कतराते है, किन्तु अपरोक्ष रूप में ऐसे व्यक्ति के साथ मजबूरी में खड़े है जिन्हें हम भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि के नाम से जान सकते है। कुछ मित्र जो स्वयं में स्पष्टवादी है और स्वीकार भी करते है कि जो हो रहा है, वह गलत है, किन्तु मित्रतावश इस प्रकार के व्यक्ति के साथ रहते है। अतः हम कह सकते है कि जब कोई पारिवारिक व्यक्ति अनैतिक तरीके के किसी का हक छिनने की चेष्टा करता है, तो स्वयं के भाई बहनों के अतिरिक्त परिवार का कोई व्यक्ति उस के विरुद्ध हो कर साथ नही देता। यदि एक आध देता भी है, तो उस के विरोध का कोई मूल्य नही होता। यहाँ हम इन्हें सत्य बोलने वाले विदुर जो युद्ध में शामिल नहीं हुए या फिर दुर्योधन के एक भाई के रूप में देखते है जिस ने पांडव की ओर से युद्ध लड़ा।
इस परिस्थिति में अर्जुन के समान सब से स्नेह रखने वाले, सामर्थ्य व्यक्ति को क्या करना चाहिए। उस के सामने पारिवारिक मोह, ममता, समाज, सभ्यता एवम संस्कृति के पालन का प्रश्न खड़ा रहता है। यह किमकृतर्व्यविमुडता की ऐसी स्थिति है जहां विरोध भी करे तो परिवार के लोग उसे ही दोष देते है,कि यह तो मूर्ख है, किन्तु वह सामर्थ्यवान समझदार है, उसे घर को नष्ट करने वाला नही बनना चाहिये। यदि परिवार नष्ट होगा तो दोष उसे ही मिलेगा।
पारिवारिक कलह से आपसी मेल मुटाव इतना अधिक हो जाता है कि अर्जुन जैसी सोच रखने वाला व्यक्ति दुसरो के प्रति आंतरिक सम्मान के कारण कुछ भी न तो बोल पाता है और न ही कर पाता है। ऐसी हालत में उस के पास दो ही रास्ते है या तो युद्ध करे या सब त्याग कर संतोष करे।
अर्जुन युद्ध नही चाहता था, जो हो रहा था, वह परिस्थितियां तैयार कर रही थी। किन्तु जो सह्रदय, समर्थ, अपने दायित्व को समझता है, वह दुनिया मे किसी से भी युद्ध कर सकता है, किन्तु अपने ही घर मे अपने ही परिवारवालो से हार जाता है। यह हमारे अंतर्मन के संस्कारों, कर्तव्य धर्म की लड़ाई अपनी ही मोह, ममता एवम सामाजिक भय के विरुद्ध है।
इस असमंजस की पृष्ठभूमि में गीता का ज्ञान दिया गया है, जिसे भगवान श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म योग कहा है। उन्हेंने अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित नही किया, उन्होंने उसे अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने को कहा जो अर्जुन को एक योगी की भांति निष्काम भाव से प्रकृति से संपादित क्रिया में मात्र एक पात्र बन कर पूर्ण करने है।
हम सब प्रकृति द्वारा रचित पटकथा के कलाकार की भांति है जिस में कहानी पहले से लिखी है और हमे अपना रोल अदा करना है। वह कर्तव्य धर्म समझ कर करे या मजबूरी में, जो लिखा से वह तय है। अपने मूल ब्रह्म स्वरूप को समझना एवम अपने निमित कर्म को निष्काम भाव से करना, इसे ही गीता में आगे 17 अध्याय में समझाया गया है।
संक्षेप में, मुझे जितना ज्ञान है, यही कह सकते कि जब भी ऐसी परिस्थितियों का सामना हो जाये तो अपनी क्षमता एवम विवेक के अनुरूप बिना स्वार्थ एवम लोभ के उस परिस्थिति का सामना करना चाहिए। हमारा उद्देश्य कर्तव्य पालन का होना चाहिये, न कि दूसरे को हराने या सबक सिखाने का और न ही किसी सम्पति पर हक प्राप्त करने का। आसुरी प्रवृति का प्रतिकार निष्काम कर्मयोगी की भांति हो, जिस से हम अपना कर्म बिना किसी फल की आशा से प्रकृति की क्रिया को समझते हुए ही करे। यदि हम किसी भी आसुरी या तामसी प्रवृति का प्रतिकार नही करते, तो यह हमारे कर्तव्य धर्म का पालन नही होगा एवम हमे जाने-अनजाने में प्रतिकार न करने के कृर्तव्य भाव के कारण फल को भोगना होगा।
प्रथम अध्याय में विभिन्न चरित्र के चित्रण करने का उद्देश्य संभवत: महर्षि व्यास जी का यही था कि ज्ञान प्राप्त करने का पात्र कौन हो सकता है, जीवन में सभी अपने अपने उद्देश्य, आकांक्षाओं, कामनाओं और अहम के लिए जीते है, इसलिए नियम में न्याय और अन्याय का शास्त्रों में को अर्थ है, वह व्यवहार में नही। हिंसा में किसी का भला नही हो सकता, युद्ध ही पीढ़ियों तक विनाश में ले जाता है फिर भी युद्ध के बाद की शांति लोभ, स्वार्थ और अनैतिक मूल्यों की समाप्ति के लिए अनिवार्य है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 1. 44- 45।।
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