।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01.31 ।।
।। अध्याय 01. 31 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 1.31॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
“nimittāni ca paśyāmi,
viparītāni keśava..I
na ca śreyo ‘nupaśyāmi,
hatvā sva-janam āhave”..II
भावार्थ :
हे केशव! मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है॥ ३१॥
Meaning:
O Keshava, I see omens that are inauspicious. I also do not see the good in killing my kinsmen in battle.
Explanation:
Any emotional problem is a thought, built up, not a single thought. Single thought is not a sorrow. Single thought is not anger. Single thought is not jealousy. Single thought is not depression. So therefore, all these emotions require our cooperation. What is our cooperation? We provide the condition, ideal condition. Sitting in the beach, we built up the worry-thought and from this we also get another important clue, all emotional break downs can be handled, if you are able to take care of the second thought. First thought is not in our hands. It happens. Somebody has insulted me. First thought is an experience. But thereafterwards, whether I should repeat it or not, is in my hands and if I choose not to repeat it, then it cannot conquer me; but if I allow that thought, like a ripple becoming a wave in ocean.
Arjun had become so disillusioned that superstition started gripping him. He could only see bad omens indicating severe devastation. Thus, he felt it would be a sin to engage in such a battle.
From this it is very clear that half of the bad omens that we have is projected by our own mind. When we are strong, you see good omens; when we become weaker and weaker, the non-existing cat will be crossing your path; single Brahmin; double-Brahmin will cross you in the street when you are going for an important work. When we become weaker and weaker, more you become weaker, the more these things become visible. Similarly Arjuna is also in intense sorrow now. And what is the further consequence of sorrow? Depression. Now Arjuna is going to go through deep depression.
When one’s emotions are running unchecked, rationality goes out the window. That’s when one starts talking or thinking about irrational things like superstition, which is what Arjuna was alluding to in this verse.
On the surface, one would attribute Arjuna’s second statement in this verse to an outpouring of compassion towards his kinsmen. But, would an outpouring of compassion cause a panic attack? The true underlying emotion that caused the panic attack was fear. And what was Arjuna afraid of ? Arjuna was accustomed to winning every war that he fought. When he saw the caliber of warriors in the Kaurava army, his ego felt extremely threatened that maybe this time it won’t win. Here we see that Arjuna’s ego was trying to deflect this fear by substituting compassion for the true emotion of fear.
।। हिंदी समीक्षा ।।
हे केशव मैं शकुनों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्य के आरम्भ में मन में जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है। परन्तु अगर कार्य के आरम्भ में ही उत्साह भङ्ग हो जाता है मन में संकल्प विकल्प ठीक नहीं होते तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भाव से अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीर में अवयवों का शिथिल होना कम्प होना मुख का सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं, इस के सिवाय आकाश से उल्कापात होना असमय में ग्रहण लगना भूकम्प होना पशुपक्षियों का भयंकर बोली बोलना चन्द्रमा के काले चिह्न का मिट सा जाना बादलों से रक्त की वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभी के और पहले के इन दोनों शकुनों की ओर देखता हूँ तो मेरे को ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्ट के सूचक दीखते हैं।
मनोविज्ञान का संपूर्ण चित्रण अर्जुन के माध्यम से हम अवसाद में पढ़ पाएंगे, जो यदि विचार किया जाए तो हम कभी भी अवसाद में नही जाएंगे। अवसाद में नकारात्मक सोच को कोई भी नही रोक सकता किंतु एक या दो नकारात्मक सोच आने के बाद यदि उस पर विवेक से विचार किया जाए तो वह सोच समाप्त हो जाती है और अवसाद हमे नही घेरता। आप के किसी मित्र ने जिसे आप बेहद चाहते है, आप का अपमान किया तो हमारे पर निर्भर है कि उस अपमान को हम अपने मन – मस्तिष्क में कितना स्थान देते है। बार बार उसी बात को सोचने से पुरानी बाते भी नकारात्मक हो कर सामने आती है और हम में उस के प्रति द्वेष में भर देता है और अधिक सोचने पर अपने आत्मविश्वास को क्षति होने लगती है और हमे अपनी क्षमता पर शक होने लगता है। फिर यही मन किसी भी घटना को उस से जोड़ने लगता है। अर्जुन भी इस अवसाद के सागर में डूबने लगा, इसलिए जिन घटनाओं की उस ने कभी परवाह नही की, उस में वह शकुन और अवशकुन ढूंढ रहा है। वह एक न केवल पारंगत योद्धा, अपितु, ज्ञानवान और सात्विक विचारो का व्यक्ति था किंतु अपने लोगो से अत्यधिक राग होने से उन से युद्ध की कल्पना से वह सिहर गया और अपना मानसिक संतुलन खोने लगा।
आत्मविश्वास खोने के बाद किसी भी कार्य को करने का औचित्य भी नजर नहीं आता। इस संसार में रुचि भी नही लगती और अर्जुन की भांति वह भी सोचता है कि युद्ध में अपने कुटुम्बियों को मारने से हमें कोई लाभ होगा ऐसी भी कोई बात नहीं है। इस युद्ध के परिणाम में हमारे लिये लोक और परलोक दोनों ही हितकारक नहीं दिखते। कारण कि जो अपने कुल का नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुल का नाश करने से हमें पाप ही लगेगा जिस से नरकों की प्राप्ति होगी।
इन दोनों वाक्यों से अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शुकुनों को देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ दोनों ही रीति से युद्ध का आरम्भ और उस का परिणाम हमारे लिये और संसारमात्र के लिये हितकारक नहीं दीखता। यह अवसाद मोह या ममता का ही हो जरूरी नहीं, जिन्हे जितना वह शुरू में आसान समझ कर भगवान श्री कृष्ण को रथ युद्ध के मध्य ले जाने को कह रहा था, वहां भीष्म एवम द्रोण जैसे महान योद्धाओं को देख कर वह भयभीत भी हो सकता है और उसे अपनी सफलता पर संदेह भी हो सकता है। इसलिए युद्ध टालने की युक्ति ही ढूंढने लग जाता है।
मैं गलत नही हूं, यह प्रत्येक प्राणी की कमजोरी है, इसलिए वह अपनी झूठी संतुष्टि के लिए तर्क और ज्ञान का सहारा लेता है। जिस में न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दिखता है ऐसी अनिष्टकारक विजय को प्राप्त करने की अनिच्छा से अर्जुन आगे के श्लोको में अपने तर्क द्वारा अपने अवसाद को संतुष्ट करने का प्रयत्न करते है।
जीव को पूर्ण ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये यदि समस्त सांसारिक मोह, ममता, आसक्ति, अहम का त्याग करना पड़े और उसे पता चले कि इस संसार मे जो कुछ भी दिख रहा है या वह जिन्हें अपने सगे सम्बन्धी मानता है, उन के प्रति आसक्ति, मोह एवम ममता को त्यागना पड़ेगा, तो उस की हालत अर्जुन जैसी ही हो जाएगी। हम ईश्वर के प्रार्थना के नाम पर अक्सर व्यापार करते है और इन सांसारिक सुख सुविधाओ को ही चाहते है। हमारा सत्य मोक्ष प्राप्ति का है ही नही, क्योंकि राग और द्वेष में हमारे सारे कर्म कामना और आसक्ति के ही होते है।
जिसे अपने बाहुबल पर भरोसा था, किन्तु कार्य आरंभ करने से पूर्व सामने एक एक बढ़ कर महारथी या विपत्तियां दिखने लगे तो हार या असफल होने की आशंका जन्म ले लेती है, जिसे हम कायरता या भय भी कहते है। जब हम निराशा के गर्त में गिरने लगते है तो मन विभिन्न आशंकाओं से घिरता है और उस को तर्क संगत बनाने की चेष्ठा की जाती है, अर्जुन के माध्यम से इस स्थिति का वर्णन बहुत सही एवम सटीक है, जिसे हम आगे और पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।।01.31।।
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