।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01.11 ।।
।। अध्याय 01. 11 ।। विशेष II
।। चरित्र चित्रण ।। विशेष – 01.11 ।।
गीता का प्रारम्भ धृष्टराष्ट्र के संवाद के साथ किया गया। धृष्टराष्ट्र न केवल आंखों से अंधा था, वरन पुत्र मोह, राज्य के लोभ में अन्तःकरण से भी अंधा था। ऐसा कहना बेमानी होगा कि उसे ज्ञान नही था, किन्तु जब ज्ञान स्वार्थ, लोभ, मोह एवम लालसा में घिर जाए तो ऐसे व्यक्ति को कोई कितना भी समझा ले, वह अपनी जिद नही छोड़ता। इस के लिये चाहे वह सम्पूर्ण ही नष्ट क्यों न हो जाये। गीता का पूरा ज्ञान संजय द्वारा धृष्टराष्ट्र को दे कर महृषि व्यास ने यही बात कहने की चेष्टा की है। रावण का भी यही हश्र उस के अहंकार, मद और काम वासना के कारण था। गीता जैसा ग्रंथ जब लोभ, मोह, परलोक सुधारने, अहम या तिस्कृत भाव से पढ़ा जाए, तो उस की उपयोगिता भी सिद्ध नही होती। ज्ञान के अभाव में गीता पढ़ते है, इस का भी अहंकार अपने को अंधकार में धकलेने के समान है।
इस के बाद दुर्योधन पर गीता में संवाद दिए गए, यह आज के युग मे सांसारिक सुख सुविधाओं में संस्कारों से हीन मनुष्य का चित्रण है, जो हमेशा अपने लाभ की सोचता है। उस के साथ उस के अहसास में दबे कुछ बुद्धिजीवी जैसे भीष्म, द्रोण एवम कर्ण आदि भी होते है, जो अपने ही नियमो के अंतर्गत उस का बिना सही या गलत विचार, अपने को उस का साथ देने के लिये मजबूर समझते है। सांसारिकता में फसे दुर्योधन जैसे लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये किसी भी हद्द तक जा सकते है। इस के लिये रिश्ते-नाते, प्रेम व्यवहार, मान-सम्मान, अचार,-विचार का कोई महत्व है तो कार्य सिद्धि तक। यदि कार्य सिद्ध नही होता तो यह लोग किसी भी किस्म का लोक लिहाज की परवाह करे, उस का अपमान भी कर देते है। यह स्वयं को अत्यंत बुद्धिमान, बलवान एवम समर्थ मानते है और होते भी है, इसलिये जो ज्ञान या सलाह इन के स्वार्थ की पूर्ति करे, उस को ही सुनते है। गीता का ज्ञान समाज मे स्वार्थ, लोभ एवम सांसारिकता से लिप्त लोग जिन के व्यापार, व्यवसाय, घर परिवार, सांसारिक सुख ही प्रमुख है, और इस के अतिरिक्त उन के पास समय भी नही रहता, के लिये भी नही है। यह कभी संतुष्ट भी नही होते, जितना भी मिले, इन्हे लगता है कि जो विपक्ष को मिला है, वह भी उसे मिले। उसे जो पर्याप्त है, वह भी अपर्याप्त ही लगता है।
यह व्यवहारिक इसलिए भी है जब कोई सत्य और धर्म के कोई लड़ाई लड़ता है तो जिन्हे हम ज्ञानी, समझदार, न्यायप्रिय या उत्तम पुरुष समझ कर सम्मान देते है और विश्वास करते है, वह ज्ञानी और सामर्थ्यशाली लोग भी अपने अपने कारणों और धर्म के कारण अन्यायी लोगो के साथ खड़े दिखते है। वे जानते है कि जिस के समर्थन में वो लोग खड़े है, वह गलत है किंतु उस के साथ होना वो लोग अपनी मजबूरी समझते है। क्या हमारे घर – परिवार, समाज – संस्था या देश – राजनीति में हम दिन प्रतिदिन नही देख रहे है। यही वह स्थिति है, जो उस व्यक्ति को विचलित कर देती है, जो उस के अन्याय के विरोध को अर्जुन की भांति निराश करती है। संसार में सत्य और असत्य की या न्याय और अन्याय की लड़ाई में वास्तविक लड़ाई तो स्वार्थ, मद, लोभ, मोह, ममता, कामना, अहम की होती है, वरना कौन नही जानता कि जिस का साथ वह दे रहा है, वह कितना सत्य या असत्य है।
यदि लड़ाई सत्य या असत्य की हो, या धर्म और अधर्म की, तो राम के विरुद्ध रावण के पास सेना नही होती, दुर्योधन के साथ भीष्म, द्रोण या कर्ण नही होते, मुगलों के साथ हिंदू राजा नही लड़े होते, अंग्रेजो के विरुद्ध उन के साथ भारतीय या हिंदुस्तानी नही खड़े होते और भ्रष्टाचार और हत्या आदि के अपराधिक वृत्तियों से जुड़े नेताओ के साथ समर्थको का हुजूम नही होता। सत्य की लड़ाई लड़ने वाले को स्वार्थ, मद, लोभ, मोह और अहम के विरुद्ध भी लड़ना होता है।
कौरव ही नही पांडव में भी इसी प्रकार के पात्र है जिन के जीवन का मायने कामना – आसक्ति या अहम। लोग राग – द्वेष को पालते है और सत्य और असत्य की विवेचना भी उसी आधार पर करते है। युद्ध भूमि गीता का प्रारंभ भी इस लिए किया जीवन के संघर्ष में आप के साथ और आप के विरुद्ध संसार के लगभग सभी तरह के चरित्र के लोग खड़े होंगे, किंतु वह सब अपने अपने स्वार्थ, लोभ, विवशता या धर्म के पालन के लिए होंगे। सत्य और न्याय की लड़ाई तो मनुष्य को अकेले ही परमात्मा पर श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, समर्पण और स्मरण के साथ ही लड़नी होगी।
फिर गीता का ज्ञान किस के लिए है, इस के लिये अर्जुन जैसा पात्र चुना गया। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को समर्पित थे, उन के अंदर श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और समर्पण, बड़ो के प्रति सम्मान अच्छे संस्कार, मोह, ममता आदि थी। ज्ञानी भीष्म, कर्ण, द्रोण, युद्धिष्ठर, भीम या दुर्योधन और धृतराष्ट्र सभी थे, इन में कृष्ण के प्रति सम्मान, श्रद्धा भी कुछ में थी किंतु श्रद्धा, प्रेम, विश्वास के साथ समर्पण सिर्फ अर्जुन में था इसलिये उस ने पूरी सेना की बजाय युद्ध न करने एवम निहत्थे कृष्ण को चुना और इसी कारण गीता का ज्ञान उसी को दिया गया।
कहने के तत्पर्य यही है, गीता का अध्ययन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को परब्रह्म के प्रति स्मरण एवम समर्पण होना ही चाहिए एवम इसे अपनी समस्त शंकाओ के निवारण के साथ अध्ययन करना चाहिये। किसी को लगे कि वह पर्याप्त ज्ञानी है तो उस के यह अध्ययन व्यर्थ होगा क्योंकि अहम एवम अहंकार के साथ गीता पढ़ी या सुनी नही जा सकती।
गीता अध्याय 2 से शुरू होगी, किन्तु प्रथम अध्याय में विभिन्न पात्रो का परिचय एवम स्थिति हमे यह बताती है जीवन के संघर्ष में जब भी अवसाद का सामना कब, किस को और क्यों होता है। गीता के लिये सही पात्र कौन होता है। यदि हम चाहे भी उसे गीता के परब्रह्म का ज्ञान अपात्र को देना भी चाहे, तो भी वह बहुत जल्दी उकता कर वहाँ से कोई बहाना बना कर हट जाएगा। क्योंकि उन की रुचि सांसारिक क्रियाओ पर केंद्रित है।
आगे अर्जुन का पदार्पण है, इसलिये हमे उस के चरित्र का भी बारीकी से अध्ययन करना होगा। पांडव पक्ष के लोग एवम अन्य पांडव भी गीता को नही सुन सके, यद्यपि वह सभी धर्म के साथ थे, तो उस का कारण भी यही है कि उन में अर्जुन के समान भगवान श्री कृष्ण के प्रति समर्पण भाव नही था। अर्जुन में कृष्ण की सम्पूर्ण सेना और कृष्ण में श्री कृष्ण की चुना था, यही विश्वास के कारण भगवान ने उसे विषम परिस्थिति से उभारा, क्योंकि भगवान स्वयं कहते है जो मुझे भक्ति से पूजते है, उन्हें मैं ही पूर्ण दायित्व के साथ पालन करता हूँ और उन्हें बुद्धियोग भी प्रदान करता हूँ।
पुन:श्च – जो गीता का पाठ नित्य अध्ययन और मनन के उद्देश्य से करते है, उन को भगवान का योगक्षेम भी प्राप्त होता है, किंतु जो गीता का अध्ययन की लाभ की आशा से करते है, भगवान उन को भी निराश नहीं करते।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 1.11 ।।
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