।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01.08 ।।
।। अध्याय 01. 08 ।। विशेष II
।। स्वामी अड़गड़ानंद जी ।।विशेष 01.08 ।।
पूज्य स्वामी अड़गड़ानंद जी, लेखक यथार्थ गीता ने अपनी पुस्तक में दुर्योधन की तुलना विजातीय प्रवृति से की है, अर्थात जो प्रवृति परमात्मा के साथ नही है। तब उस की सेना के महारथी कौन हो सकते है।
1. द्वेत के आचरण के प्रतीक द्रोणाचार्य है।
2. भीष्म को कभी नही मिटने वाला भ्रम कहा गया है। यह मनुष्य का मैं रूपी विकार है जो युद्ध के अंत तक भी जीवित रहता है।
3. कर्म के स्वरूप के कर्ण है, जिस के फल की आशा हर मनुष्य को रहती है। दुर्योधन को भी कर्ण से ही ज्यादा उम्मीदे थी।
4. साधक जब साधना में रत रहता है तो वह उन अविश्विनीय सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है जिसे वह भी नही जानता। इस का लाभ उन लोगो को मिलता है जो उस के संपर्क में रहते है। इसलिये कृपा का आचरण करने वाले कृपाचार्य है। किंतु जिस दिन साधक अपने अहम में किसी पर कृपा करने का विचार करे तो भी उस की सिद्धिया नष्ट हो जाती है। आप क्या है, इस का कोई भी प्रभाव आप पर नही होना चाहिये।
5. अश्वत्थामा को आसक्ति का प्रतीक माना गया है, आसक्ति कभी नही मरती, यही अश्वत्थामा भी अमर है। द्वेत का आचरण स्वरूप में द्रोणाचार्य है, आसक्ति का जन्मदाता भी द्वेत भाव ही है। इसलिये आसक्ति ही जीव की मृत्यु का कारण बनती है।
6. विकर्ण को विकल्प स्वरूप बताया गया है। किसी को कार्य करते समय जो अनेक भाव एवम विकल्प उतपन्न होते है, यह विकल्प मनुष्य को भ्रमित करते है और मनुष्य कभी एक विकल्प को चुनता है और जैसे ही कठनाई आती है, तो अन्य विकल्प को चुन लेता है। कभी सिद्धिया, तो कभी कर्म फल तो कभी मोक्ष। इसी में उलझ कर रह जाता है। विकर्ण के रूप में निष्काम कर्म का मार्ग ही श्रेष्ठ है।
7. अंत मे भूरी भूरी प्रशंसा का स्वरूप भूरिश्रवा है। साधना या एकचित हो कर कर्म करते रहने से ज्ञान में वृद्धि होती है एवम साधक का स्तर उठने लगता है। जिस से समाज, परिवार एवम कार्यस्थल में व्यक्ति की भूरि भूरि प्रशंसा होने लगती है। प्रशंसा किसे बुरी लगती है, यही प्रशंसा व्यक्ति को गर्वोक्त बना देती है। प्रशंसा पा कर भी व्यक्ति सामान्य रूप में यदि कर्म करता रहे तो सफल होगा किन्तु इस मे बहक गया तो निश्चय ही पतन के मार्ग पर चल देगा।
महाभारत के युद्ध को कुछ लेखकों ने अंतर्निहित संग्राम के रूप ने अच्छी एवम बुरी प्रवृतियों का संघर्ष बताया है। अतः यह समीक्षा उसी स्वरूप के एक हिस्सा ही है। मेरे विचार से यह विभिन्न व्यक्तित्व के, विभिन्न कर्तव्य धर्म के, विभिन्न आचरण के महापुरुषों के युद्ध की इतिहासिक घटना है, जिसे सर्वश्रेष्ठ चिंतक, लेखक, विचारक एवम आचरण का पालन करने वाले महृषि व्यास जी लिपिबद्ध इसप्रकार किया है की इसमें संसार का समस्त ज्ञान सम्मलित हो जाये। गीता भीष्म पर्व का एक छोटा सा हिस्सा है, जिस में समस्त वेदों एवम उपनिषदों को सार के रूप में कहा गया है। इतिहास में प्रत्येक पात्र का अपना ही व्यक्तित्व होता है। इसलिए रामायण या महाभारत जैसे इतिहासिक ग्रंथो के पात्रों में तत्व दर्शन को खोजना भी उन लेखकों के चिंतन का विषय हो सकता है, किंतु इस से इतिहास को जो लोग मिथक या काल्पनिक मानते है, वह गलत है।
इसलिये यह विचार भी विचारणीय एवम समझने योग्य ही है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 1.08 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)