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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.01।। Additional II

।। अध्याय    04.01 ।। विशेष II  

।। विशेषगीता अध्ययन और हमारा अज्ञान ।। विशेष 4.01 ।।

अध्याय 4 के अध्ययन के पूर्व यह बताना मुझे आवश्यक लगता है, व्यस्त जीवन में हम अपने स्वरूप को भूल जाते है। सोते समय जब कुछ भी पता नही चलता, वो कौन है जिसे कुछ भी ज्ञात नही। आदि गुरु शंकराचार्य जी कहते है।

सुषुप्तिकाल में विद्यमान शून्य का ज्ञाता,  आत्मा के अतिरिक्त कौन हो सकता है ? मनुष्य अपने सुषुप्तिकाल में अनुभव किये हुए विद्यमान शून्यभाव को अपने-आप ही कहता है  । उस समय यह मूढ मनुष्य अपने अस्तित्व को भी नहीं जान पाता , इसलिए सिर्फ शून्यपने की बात कहते है । तात्पर्य यह है कि शून्यवादियों का कथन है कि सुषुप्तिकाल में केवल शून्य ही रहता है , इसलिए शून्य ही आत्मा है । मूढ पुरुष,  बुद्धि आदि के अभाव को देखकर कहता है कि केवल शून्य ही रहता है  , परन्तु उसको अनुभव करनेवाले को नहीं जान पाता ; परन्तु वह शून्य का अनुभव करनेवाला ही आत्मा है।

दूसरे लोगों के द्वारा जानने में न आनेवाला आत्मा , अपने-आप प्रत्यक्ष रूप से सुषुप्तिकाल में अवस्थित लक्षणों को जानता है । सुषुप्तिकाल में जो कोई बुद्धि के अभाव को जाननेवाला है ; वह ही निश्चय विकार –  शून्य आत्मिक है।

अर्जुन जैसा शास्त्र ज्ञाता भी युद्ध भूमि में अपने पढ़े हुए ज्ञान को मोह में विश्लेषण करने लगा। यह उस का भाग्य था कि उस के सारथी रूप में गुरु स्वयं मानवावतार में ब्रह्म स्वरूप भगवान श्री कृष्ण थे। उसे जो अवसर मिला उसे महऋषि वेदव्यास जी लीपी बद्ध किया, और आज सभी के ज्ञान उपलब्ध हो सका। अतः इसे गहनता से समझने की आवश्यकता है।

गीता ने ज्ञान का अर्थ ब्रह्म के ज्ञान को कहा गया है जिसे प्रवृति या निवृति मार्ग से प्राप्त किया जा सकता है।

ज्ञान का अर्थ सिर्फ जानना नही है या अपने स्वरूप को पहचानना भी नही है। वरन अपने स्वरुप को प्राप्त हो जाना है। मुझे गीता अध्ययन करने वाले या गीता पर प्रवचन भी देने वाले मेरे जैसे कई लोग मिलते है जिन का मानना है कि गीता उन्होंने पूरे 18 अध्याय के साथ पढ़ी है। वह भी कई बार।  वह लोग एक एक श्लोक तक सुना देते है। मुझे संस्कृत नही आती इसलिये उन के सामने नत मस्तक ही रहता हूँ। किन्तु व्यवहार में वो लोग गीता के ज्ञान को जानने वाले ही लोग है क्योंकि उस का प्रकृति से उतना ही मोह है जो प्रकृति को चाहिये अर्थात वो लोग सत-रज या तम गुणों से बाहर नही है।

यह एक प्रश्न भी है कि जिन बातों से मन में एक सुख और हृदय में शांति की अनुभूति तो हो किंतु मन और बुद्धि से राग – द्वेष नही छूटा हो तो वह ज्ञान प्रकृति का या आसुरी वृति का होगा। ऐसे सज्जन पुरुष भी है जो मानवीय मूल्य के आधार पर बातचीत और व्यवहार तो करते है किंतु वास्तविक जीवन में उन का पालन नहीं करते। महाभारत में दुर्योधन इस का उदाहरण है और वह कभी अकेला नहीं था। उस के साथ ज्ञानी, धर्म को समझने वाले और अपने समय के महान योद्धा भी थे। इस से व्यक्तिगत लालसा, प्रतिबद्धता और राग भी मनुष्य को धर्म का ज्ञान रखते हुए भी, अज्ञान और आसुरी वृति के साथ खड़ा कर सकता है। इसलिए हम अपने आप को किस प्रकार से जाने, यही अध्ययन अध्याय 4 से शुरू होता है।

भगवान श्री कहते है, राजा इक्ष्वाकु से यह ज्ञान – विज्ञान  ऋषि मुनियों से सीखा जरूर था किंतु वे उसे सही अर्थों में सहज न सके। ज्ञान जब गुरु शिष्य परंपरा से गुरु से शिष्य को प्राप्त होता है तो प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व की छाप उस ज्ञान में सम्मिलित हो ही जाती है, यही कारण के गीता की विवेचना भी जितने भी महापुरुषों ने की है, वह सब उन के व्यक्तित्व के कारण अलग अलग है। इसलिए गीता को सही अर्थ में समझने के लिए अर्जुन जैसे अनुसूय होना आवश्यक है, जिसे हम विभिन्न महापुरुषों की गीता के माध्यम से सही अर्थ में समझ सके।

ज्ञान को आत्मसात होने के लिए पात्रता भी आवश्यक है जिस के लिए नित्य श्रवण, मनन और निध्यासन की विधि बताई गई है। अपात्र को ज्ञान देने से ज्ञान दूषित,व्यवसायिक और विलुप्त होने लगता है। वैदिक परंपरा में वेदों के ज्ञान आज भारत में विलुप्त होता जा रहा है क्योंकि उस को समझने की पात्रता में कमी है।

शंकराचार्य जी कहते है जो जीव स्वयं ब्रह्म है, उसे अज्ञान ने घेर लिया है। वह प्रकाशवान बादलों में छुप गया है। अतः ज्ञान का अर्थ  अपने अज्ञान को नष्ट करना है। जिस दिन यह अज्ञान मिट जाता है कि उस का वास्तविक सम्बन्ध ब्रह्म से है,  प्रकृति से नही। उस का अज्ञान मिट जाता है और वह ज्ञानवान हो जाता है।

जीव का प्रकृति के साथ संयोग होने मात्र से प्रकृति अपने श्रेष्ठ नृत्य से जीव को वशीभूत कर के रखती है। जीव नित्य कर्म, नैमितिक कर्म, काम्य कर्म और  फिर निषिद्ध कर्म भी भोक्तत्व एवम कर्तृत्व भाव से करता रहता है और अज्ञान के कारण उस को अपने ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान नही रहता। उसे ज्ञान ही नही है कि वह कौन है, उस का वास्तविक सम्बद्ध किस से है। गीता में जीव को इसी ज्ञान की दीक्षा दी गई है कि उस का वास्तविक स्वरूप क्या है एवम जो हो रहा है या जो वह कर रहा है, वह क्या है। जीव के अज्ञान के विलुप्त होने से ही वह अपने वास्तविक स्वरूप में विलीन हो सकता है। जिस ने अन्तरिक्ष विज्ञान नही पढ़ा, वह वहां रॉकेट की यात्रा को कैसे समझ सकता है और जिसे ज्ञान प्राप्त नही हुआ, वह भी मृत्यु लोक से ब्रह्म लोक तक को कैसे समझ सकता है। उस के लिये जो वह भोग रहा है, वही उस का सत्य है।

गीता विज्ञान के अनुसंधान की तरह समझने या आत्मसात करने का ज्ञान है। विज्ञान में अनुसंधान करने के विवेक चाहिए जिस से हर वस्तु के कण कण का गुण एवम प्रकृति को समझ सके। फिर उस वस्तु के किस कण एवम किस मात्रा में मिलाने से क्या नया प्राप्त होता है या उस कण के न रहने से क्या होता है, इस पर घण्टो, दिनों,महीनों एवम सालों के अनुसंधान होता है।

विज्ञान की तरह ही एकाग्रता एवम नियमित जीवन शैली चाहिए। कोई भला कार फ़िल्म को देखते हुए चला सकता है, फिर गीता को एक नॉवेल या धार्मिक ग्रंथ समझ कर कैसे मुक्ति मिल सकती है। कोई अनियमित खा कर स्वस्थ रहने की सोच नही सकता वैसे ही अनियमित अध्ययन से भी गीता समझ भी नही सकता।

कुछ लोग गीता के अनुसार जीने की चेष्टा करते है, फिर असफल हो कर कहते है कि गीता का ज्ञान व्यवहारिक नही है। आप ने सुंदर सी कमीज पहनी तो आईने में जो सज कर दिखता है, वह क्या आप है। चलिये कुछ भी नही पहना, तो भी जिसे देख रहे है वह सत्य है, नही – क्योंकि वह प्रकृति है तो जन्म से विकसित होती हुई नष्ट हो जाती है, किन्तु जो जन्म से पहले था, जन्म के समय था, बालक,  युवा एवम वृद्ध है और मृत्युको प्राप्त होगा, वही आप है। इस आप ने गीता को समझ लिया तो जी लिया, फिर कोई लबादा नही, कोई कृत्रिम चेहरा या व्यवहार नही, कोई दिखावट नही। फिर गीता के अनुसार जीवन है तो व्यवहार या अव्यवहार की बात ही कहा है।

इस संसार मे निवृत भाव से रहते हुए, कर्म भी करते हुए एवम संसार एवम प्रकृति के ऐश्वर्य को किस प्रकार भोगना चाहिये एवम लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हुए भी विकर्म रहते हुए, किसी कर्म बन्धन में नही फसे, और मुक्ति को किस प्रकार प्राप्त करे। इस के गीता न केवल ज्ञान देती है, वरन भगवान श्री कृष्ण के रूप में एक सोलह गुणों से युक्त चरित्र भी उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करती है। भगवान श्री कृष्ण के चरित्र तो जो समझ गया वह मोक्ष को प्राप्त हो गया और जो तर्क एवम बिना विवेक के बुद्धि से समझने की चेष्टा में लगा, वह इसी संसार मे उलझ गया।

वेद एवम उपनिषद सृष्टि के प्रारम्भ काल से अनेक ऋषि मुनि एवम लोगों के अनुसन्धान एवम निष्कर्ष का संग्रह है जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड का अध्ययन अत्यंत बारीक रूप में करता है। इसलिये वेद आज के विज्ञान के लिए भी प्रतिस्पर्धा का विषय है जो किसी अन्य धर्म की पुस्तक में नही है। वेद एवम उपनिषद सिर्फ ज्ञान ही नही विज्ञान भी है।

युद्ध भूमि में अर्जुन के मोह, भय एवम अवसाद में भगवान श्री कृष्ण द्वारा उसे कर्तव्य धर्म के पालन को उस के वैराग्य भाव से साधु बनने या त्याग से ज्यादा आवश्यक बताने के बाद अर्जुन की यह तो समझ मे आ गया कि वह जो सोच रहा है या जिस पद्धिति से सोच रहा है उस मे सम्पूर्ण ज्ञान एवम विवेक का अभाव है। उस ने जो कुछ भी शास्त्रो से पढ़ा, वह पुस्तक ज्ञान ही है उस मे विवेक द्वारा ज्ञान एवम विज्ञान का अनुसन्धान नही किया गया। अतः उस की जिज्ञासा और अधिक गहराई से जानने की उत्पन्न हो गई।

जो सनातन है वही सत्य है और जो सनातन नही है, उस वक्त का सत्य तो हो, किन्तु मिथ्या है। इस सनातन सत्य की रक्षा का दायित्व  स्वयं परब्रह्म का है, इस लिये वह समय समय पर महापुरुषों, संतो एवम ज्ञानियों के रूप में अवतरित होता है, लोकसंग्रह के लिये किस प्रकार कर्म करते हुए रहना चाहिये, मार्ग दिखा कर परब्रह्म में ही विलीन हो जाता है, वह किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय से हो,  उस के द्वारा प्रशस्त मार्ग सनातन सत्य का ही होता है और यदि आवश्यक हो तो स्वयं परब्रह्म भी प्रकट होता है। गीता इसी सत्य की घोषणा भी करती है।

अतः अध्याय 4 से यह ज्ञान अधिक गहन एवम शाश्वत है इस प्रकार से शुरू हो कर गहन होता जाएगा। जो आत्मसात करते हुए ज्ञान का अध्ययन विज्ञान से करेंगे वो ही ज्ञानी तत्वदर्शी हो जायेगे एवम उस के अनुसार अनुसंधान करते रहने से ब्रह्मविद और फिर ब्रह्मसन्ध हो जायेगे। जो नही करते है वह उन पुस्तको की भांति होंगे जिन में लिखा सभी कुछ है किंतु ज्ञान एवम विज्ञान का अभाव है।

गीता द्वारा प्रदत्त ज्ञान को आत्म सात करे, ऐसा एक आह्वान हम लोग करते हुए अब आगे गीता में गहन अध्ययन में प्रवेश करते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 4.01 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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