।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.42।।
।। अध्याय 03.42 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 3.42॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
“indriyāṇi parāṇy āhur,
indriyebhyaḥ paraḿ manaḥ..।
manasas tu parā buddhir,
yo buddheḥ paratas tu saḥ”..।।
भावार्थ :
हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है ॥४२॥
Meaning:
It is said that the senses are superior (than the body), the mind is superior than the senses, the intellect are superior than the mind, and that (the eternal essence) is superior than the intellect.
Explanation:
As we approach the conclusion of the third chapter, Shri Krishna delivers yet another profound shloka that has layers and layers of meaning. Let us examine its practical aspects.
This shloka provides us a hierarchy of our nature, or our prakriti. Earlier in the second chapter, Shri Krishna provided us with the ultimate goal of the Gita, which is to realize that we are the eternal essence, and are distinct from our prakriti, which comprises the body, mind and intellect. So in this shloka, he further informs us that these three components of our prakriti are not equally powerful – there is a hierarchy or an order to their power. The subtler a component is, the more power it wields.
An inferior entity can be controlled by its superior entity. Shree Krishna explains the gradation of superiority amongst the instruments God has provided to us. He describes that the body is made of gross matter; The body is the most tangible, or the most gross, aspect of prakriti. superior to it are the five knowledge-bearing senses (which grasp the perceptions of taste, touch, sight, smell, and sound); beyond the senses is the mind; which generates reactions in the form of emotions and thoughts, but lacks decision making power. Superior to the mind is the intellect, with its ability to discriminate; which can analyze and understand the thoughts generated by the mind, and has the power to control the mind, the senses and the body, but even beyond the intellect is the divine soul and here is the key point: if we assert control of one aspect of prakriti, we automatically bring all the lower levels in our command.
This knowledge of the sequence of superiority amongst the senses, mind, intellect, and soul, can now be used for rooting out lust, as explained in the final verse of this chapter.
For example, let’s say someone wants to quit smoking. If he convinces his intellect that smoking is harmful, and also remains alert at the time a desire to smoke arises, he has a good chance of quitting smoking. But if the intellect starts rationalizing this behaviour by saying “one cigarette is not a problem” then there is no chance.
Now, if we are operating on the level of our vasanas, the intellect is where the hierarchy would stop. Then desires would take hold of the senses, the mind and even the intellect, making us act selfishly. There would be no way out. But this shloka urges us to realize that there is something even superior to the intellect, which has the potential to root our desires that have penetrated the intellect.
Temporary solution for lust i.e. desire, we can take; just as first aid ; damaḥ-samaḥ-viveka are compulsory; but do not stop with these three; having got temporary relief from kama, we have to move to the permanent solution.
And what is that permanent solution; atma jnanam eva means Self- knowledge alone is the ultimate solution.
The logic is this; desire is an expression of a symptom of sense of incompleteness. Why do we want things; because without that we are incomplete. Incompleteness expressed is desire; that is why we always ask something must be there? Something may money, health, children or post etc. etc. Therefore desire is an expression of apurṇatvam and it will go only by the discovery of purṇatvam. Aham purṇaḥ asmi; this is vedantic pūrṇathvam; purṇam means full and complete; we do not lack anything; we do not need anything.
In the initial stages of our journey, that something is a higher ideal. But as we proceed in our journey, it is the highest possible ideal: the eternal essence itself. Unless we recognize this, we will be stuck at the level of the intellect. This paves the way for the technique of removing obstacles, which is covered in the next and final shloka of the third chapter.
Footnotes
1. Bringing one’s prakriti under control is one component of the “saadhana- chatushtaya”, or the four-fold qualifications of a seeker. Control of the senses is called “dama” and control of the mind is called “kshama”.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गागर में सागर के समान भगवान का यह वचन याद रखने योग्य है क्योंकि इस का विस्तृत विवरण आगे के अध्यायों में हम पढेगे। अभी बस इतना ही समझने की चेष्ठा करते है।
शरीर अथवा विषयों से इन्द्रियाँ ऊपर हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ज्ञान होता है पर विषयों के द्वारा इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयों के बिना भी रहती हैं पर इन्द्रियों के बिना विषयों की सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयों में यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियों को प्रकाशित करें प्रत्युत इन्द्रियाँ विषयों को प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियों के अन्तर्गत आते हैं पर इन्द्रियाँ विषयों के अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयों की अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयों की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म हैं। इन्द्रियाँ मन को नहीं जानतीं पर मन सभी इन्द्रियों को ही जानता है। इन्द्रियों में भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने विषय को ही जानती है अन्य इन्द्रियों के विषयों को नहीं जैसे कान केवल शब्द को जानते हैं पर स्पर्श रूप रस और गंध को नहीं जानते त्वचा केवल स्पर्श को जानती है पर शब्द रूप रस और गन्ध को नहीं जानती नेत्र केवल रूप को जानते हैं पर शब्द स्पर्श रस और गन्ध को नहीं जानते रसना केवल रस को जानती है पर शब्द स्पर्श रूप और गन्ध को नहीं जानती और नासिका केवल गन्ध को जानती है पर शब्द स्पर्श रूप और रसको नहीं जानती परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को तथा उन के विषयों को जानता है। इसलिये मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म है। मन बुद्धि को नहीं जानता पर बुद्धि मन को जानती है। मन कैसा है शान्त है या व्याकुल ठीक है या बेठीक इत्यादि बातों को बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं इस को भी बुद्धि जानती है तात्पर्य है कि बुद्धि मन को तथा उस के संकल्पों को भी जानती है और इन्द्रियोँ को तथा उन के विषयों को भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोँ से परे जो मन है उस मन से भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ बलवान् प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म) है। बुद्धि का स्वामीअहम् है इसलिये कहता है मेरी बुद्धि। बुद्धि करण है और अहम् कर्ता है। करण परतन्त्र होता है पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। उस अहम् में जो जड अंश है उस में काम रहता है। जड अंश से तादात्म्य होने के कारण वह काम स्वरूप(चेतन) में रहता प्रतीत होता है। वास्तव मेंअहम् में ही काम रहता है क्योंकि वही भोगों की इच्छा करता है और सुखदुःख का भोक्ता बनता है। भोक्ता भोग और भोग्य इन तीनों में सजातीयता (जातीय एकता) है। इन में सजातीयता न हो तो भोक्ता में भोग्य की कामना या आकर्षण हो ही नहीं सकता। भोक्तापन का जो प्रकाशक है जिस के प्रकाश में भोक्ता भोग और भोग्य तीनों की सिद्धि होती है उस परम प्रकाशक (शुद्ध चेतन) में काम नहीं है। अहम् तक सब प्रकृति का अंश है। उस अहम् से भी आगे साक्षात् परमात्मा का अंश स्वयं है जो शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि और अहम् इन सब का आश्रय आधार कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ बलवान् प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म है।
यह कहा गया है कि मनुष्य का शरीर एक बहुत बड़ा कारखाना ही है। जैसे किसी कारखाने में पहले बाहर का माल भीतर लिया जाता है, फिर उस माल का चुनाव या व्यवस्था कर के इस बात का निश्चय किया जाता है कि कारखाने के लिए उपयोगी आए निरुपयोगी पदार्थ कौन से है।
मनुष्य की इंद्रियां में कर्मेन्द्रियां जैसे हाथ, पावँ, वाणी, गुद और उपस्थ और ज्ञानेन्द्रियाँ जैसे नाक, आंख, कान, जीभ और त्वचा इस के दस द्वार है। ज्ञानेन्द्रियो से सामान आता है और कर्मेन्द्रियों से जाता है। इंद्रियाओ से जो प्राप्त है वो वस्तु के रूप, रस, शब्द, गंध या स्पर्श के अतिरिक्त कुछ नही। इंद्रियां बाहर का दृश्य भेजती है उस की दृश्य के बारे में कुछ भी ज्ञात नही।
मन एक मुंशी है जो समान की जांच करता है इसलिये इंद्रियाओ से श्रेष्ठ है। मन न हो तो आंख ने क्या देखा या कान ने क्या सुना पता ही नही चलेगा। मन ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त समान की जांच करता है। उस के अच्छे बुरे की संस्कार या एंट्री के हिसाब से चेक करता है। फिर अपनी प्रवृति के अनुसार अच्छे को रख कर बाकी तो हटा देता है। जैसे 12 बजे के घंटे की टन की आवाज कान में को भेजता है उस को घंटे की आवाज एवम उस की 12 बार आवर्ती से 12 बजे का ज्ञान होता है यह मन अपने संस्कार एवम प्रवृति से करता है। पशु के मन में संस्कार एवम प्रवृति न होने से इंद्रियाओ से उसे 12 बजे का ज्ञान नही होगा। मन की ग्राह्य एवम त्याज्य, लाभ कारक एवम हानिकारक कर के इंद्रियाओ द्वारा ग्रहीत का चुनाव करता है।
बुद्धि मन के ऊपर है, वो मन के कार्यो की समीक्षा करती है एवम उस के उचित एवम अनुचित का निर्णय देती है। मन के द्वारा प्राप्त तथ्य ‘संकल्प-विकल्पात्मक’ के रूप में होते है उस मे भले बुरे का निर्णय बुद्धि करती है। मन बुद्धि के निर्णय का पालन करता है और बुद्धि द्वारा दिये निर्णय के अनुसार रिजेक्टेड समान को बाहर करता है।
अतः मन सभी सामान का वर्गीकरण करता है किंतु उस का व्यवसाय बुद्धि करती है। इस लिये संकल्प, वासना, इच्छा, स्मृति, घृति, श्रद्धा, उत्साह, करुणा, प्रेम, दया, सहानुभूति, कृतज्ञता, काम, लज्जा, आनंद, भय, राग, संग, लोभ, मद, मत्सर,क्रोध आदि सब मन के ही गुण धर्म है।
जैसी जैसी मनोवृतिया जाग्रत होती है वैसे ही कर्म करने की और मनुष्य की प्रवृति हुआ करती है।
गरीब को देख कर बुद्धि उस की दुर्दशा को समझ सकती है किंतु बिना करुणा की वृत्ति के उस की सहायता नही कर सकती और बुद्धि से कार्य पात्र और अपात्र को बिना करुणा या दया वृति के पहचान भी नही सकते। अतः मन मुंशी की भांति ज्ञानेंद्रियों द्वारा अथवा बाहर से आये संस्कारो की व्यवस्था कर के बुद्धि के सामने निर्णय के लिए उपस्थित करता है और बुद्धि का निर्णय होने के बाद उस की आज्ञा के अनुसार कर्मेन्द्रियों से कार्य करवाता है।
बुद्धि निर्णय लेने वाली है किंतु एक बुद्धि का रूप वासना का भी होता है जो मन को किसी कार्य के लिए प्रवृत्त भी करती है। अतः कर्म भी वासना के अनुसार होते है।
इस लिए बुद्धि मन और इंद्रियाओ के आधीन न हो कर मन और इंद्रियां बुद्धि के अधीन होना चाहिए।
इंद्रियाओ,मन और बुद्धि के बाद इस जड़ स्वरूप शरीर मे चेतना तत्व भी होता है जो मेरा या तेरा जैसे भाव रखता है। बुद्धि जिस के अंतर्गत कार्य करती है और इस को अहम भी मान सकते है। यही काम या वासना का भी निवास होता है जो चेतन यानि अहम को घेरे रखता है। कुछ बुद्धि को व्यावसायिक एवम व्यवहारिक यानी वासना बुद्धि द्वारा कार्य करना भी कहते है। भले बुरे कार्यो को मन नहीं यह ही बुद्धि करती है, मन उस का पालन करता है। बुद्धि ही प्रकृति के त्रियामी गुण सत, रज एवम तम के अनुसार कार्य करती है। अतः चेतन की बुद्धि द्वारा किसी भी कार्य को करने के निर्देश देता है, उसे बुद्धि मन को और मन शरीर मे उस प्रकार के परिवर्तन पैदा कर के कर्मेन्द्रियों से कार्य करवाता है।
कठोउपनिषद में शरीर को रथ, रथ में जुड़े घोड़ो को इंद्रियां एवम मन को घोड़ो की लगाम था बुद्धि को सारथी माना गया है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र का स्वामी कौन हो सकता है। किस के लिए यह जड़ शरीर, मन, बुद्धि एवम चेतन कार्य करता है उस को आत्मा ही जान सकते है। जो अकर्ता है, साक्षी है और नित्य भी है। जो इस क्षेत्र का स्वामी भी है और निर्लिप्त भी है।
दम, शम और विवेक ये तीन उपचार से मन और इंद्रियों का प्राथमिक नियंत्रण किया जाता है। किंतु लालसा, तृष्णा और राग – द्वेष आदि इतने शक्तिशाली होते है जो मन इंद्रियों को समझा देते है” बस इतना ही करो, इस से कुछ नही होता”. ” आज कुछ काम है तो पाठ या ध्यान कल कर लेंगे” ” गीता का पाठ व्यवहारिक नही है, बुढ़ापे में सोचेंगे” आदि आदि। यह घुसपेठ की नीति से धीरे धीरे मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर लेते है, जिस से बुद्धि चाह कर भी, इन पर नियंत्रण नहीं कर पाती। अतः स्थायी उपचार हेतु श्रवण, मनन और निध्यासन का अभ्यास किया जाता है। किंतु यह आगे समझने के विषय है।
।।हरि ॐ तत सत।। 3.42।।
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