।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 01.33 ।।
।। अध्याय 01. 33 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 1.33 ॥
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
“yeṣām arthe kāńkṣitaḿ no,
rājyaḿ bhogāḥ sukhāni ca..I
ta ime ‘vasthitā yuddhe,
prāṇāḿs tyaktvā dhanāni ca”..II
भावार्थ :
जिन के साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा हैं, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग कर के इस युद्ध भूमि में खड़े हैं॥ ३३॥
Meaning:
Those, for whose sake we seek kingdom, enjoyment and happiness, are present here in war, ready to give up their desire for life and wealth.
Explanation:
Here Arjuna continues his fall into delusion by justifying why there is no point in living, or in carrying out the mission that he had committed to carry out. In his confused state, his mind mixed up his personal relationships with his mission-wise relationships.
Here also we find how Arjuna has forgotten the original purpose of Mahabharatha battle. Now he says, purpose of Mahabharatha battle is to get all the pleasures and to give these pleasures to Bhiṣma, Droṇa, etc. Like that I want to accomplish all these things and to dedicate them to Bhishma and Drona and such people are going to be destroyed. Here, you find how Arjuna’s mind is clouded. The purpose of Mahabharatha war is not getting the kingdom and handing over to Bhiṣma and Droṇa. Very purpose of Mahabharatha war is fighting Adharma and whoever has joined Adharma, they have to be destroyed and if Bhiṣma and Droṇa have unfortunately joined them, they also have to be destroyed. This vision was very clear before.
Detachment to worldly assets is a commendable virtue. Even though Arjun’s thoughts were moral and virtuous, they were not spiritual sentiments. They were budding out of compassion and attachment towards his relatives. Spiritual sentiments bestow peace, harmony, and happiness to a soul. However, Arjun’s situation was not such he was disillusioned, confused, and losing control over his body and mind.
In work, we are often asked to “not take things personally”. Here we see an example of what happens when someone in war inserts personal aspects of his life into his work, resulting in complete confusion and breakdown of the mission.
।। हिंदी समीक्षा ।।
सर्वसदाहरण जिन लौकिक सुखों को चाहता है उन्हें हम निम्न प्रकार मान सकते है।
1) सर्वदा द्रव्य का आगमन होना,
2) सुंदर, प्रिय एवम मधुरभाषणी भार्या एवम मेधावी और आज्ञाकारी पुत्र होना
3) हमेशा आरोग्य रहना,
4) अर्थकरी विद्या से उन्नत व्यवसाय एवम व्यापार होना,
5) समाज मे प्रतिष्ठा, सम्मान एवम उच्च स्थान होना एवम
6) बंधु बांधव एवम मित्रो का साथ एवम सहयोग होना।
दुख परमात्मा की अनुकंपा से प्राप्त होता है, यह अर्जुन का विषाद भी उन्ही में एक है, इस के कारण अर्जुन के मन और हृदय के भाव प्रकट होने लगते है कि आध्यात्म और प्रकृति या संसार से हमारा अंत:करण का किस प्रकार का बंधन है।
युद्ध में अर्जुन दुर्योधन के विरुद्ध उस की अनीतिपूर्ण निर्णय के लिए खड़ा हुआ था, वह यह सब भूल कर व्यक्तिगत अपने संबंधों और व्यवहार को देखने लगा। इसलिए उसे भीष्म और द्रोण जो अन्याय के साथ खड़े है, उन से अपने संबंध न्याय के लिए या धर्म के युद्ध से ज्यादा महत्व पूर्ण दिखने लगे।
अर्जुन कहते है, हम राज्य सुख भोग आदि जो कुछ चाहते हैं उन को अपने व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं चाहते प्रत्युत इन कुटुम्बियों प्रेमियों मित्रों आदि के लिये ही चाहते हैं। आचार्यों पिताओं पितामहों पुत्रों आदि को सुख आराम पहुँचे इन की सेवा हो जाय ये प्रसन्न रहें इस के लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं भोग सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।
विषाद में अर्जुन के अहम, फिर मोह और अब अवसाद में उस के आसक्ति को हम समझ रहे है, बस कल्पना करे यदि आप अर्जुन की जगह हो, आप का घर में भाईयो से झगड़ा हो गया, वह सारी संपत्ति लेना चाहता है आप के घर सभी बुजुर्ग उस के साथ है, तो क्या आप भी इस विषाद से मुक्त हो पाएंगे है। यदि नहीं तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी। गीता का अध्ययन अपने सही दिशा में बढ़ रहा है तो इस का अनुभव भी तभी होगा, जब आप अर्जुन की भांति अपने मोह, ममता, अहम को पहचानने की कोशिश करे। गीता पढ़ने वाले अक्सर कृष्ण का स्थान ले कर प्रवचन देने लगते है, किंतु उन का अहम, मोह और ममता वैसा का वैसा रह जाता है, इसलिए आवश्यकता अर्जुन के स्थान को ग्रहण कर के हम अपना अवलोकन करे। क्या हम सांसारिक सुखों से संतुष्ट है या हमे वास्तव में मोक्ष चाहिए। जब तक मोक्ष की पीड़ा हृदय की गहराई तक नही जाएगी तब तक परमात्मा भी मोक्ष का ज्ञान नहीं देगे। भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन के इतना विषाद करने पर शांत ही है। इसलिए अर्जुन के विषाद को अपने अंदर महसूस करे और उस के साथ साथ चलते चले।
अर्जुन का आगे कहना है जिन के लिये सुख की आशा है, वे ही ये सब के सब अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध करने के लिये हमारे सामने इस रणभूमि में खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणों का मोह है और न धन की तृष्णा है हम मर बेशक जायँ पर युद्ध से नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे हमें राज्य किस के लिये चाहिये सुख किस के लिये चाहिये धन किस के लिये चाहिये अर्थात् इन सब की इच्छा हम किस के लिये करें।
वे प्राणों की और धन की आशा का त्याग कर के खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा इस इच्छा को छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उन में प्राणों की और धन की इच्छा होती तो वे मरने के लिये युद्ध में क्यों खड़े होते अतः यहाँ प्राण और धन का त्याग करने का तात्पर्य उन की आशा का त्याग करने में ही है।
मन से हर व्यक्ति अपने को सही सिद्ध करने के तर्क का सहारा लेता है, श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन की घबराहट पर कोई प्रतिक्रिया न होने पर अर्जुन यह श्री कृष्ण को प्रभावित करने के किये तर्क पर आ गया। सामान्य जीवन मे किसी भी काम मे फैल होने पर या नही करने पर कौन कहता है कि वो गलत है, हर व्यक्ति किसी न किसी तरह अपनी हताशा का उचित तर्कसंगत उत्तर से अपने को संतुष्ट एवम दूसरे को प्रभावित करता है।
शंकराचार्य जी के अनुसार मन अध्यास से सभी से सुख की आसक्ति के कारण अपना सम्बन्ध बना कर जुड़ जाता है, फिर उस अध्यास को तर्क युक्त बना कर सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करने लग जाता है। आज भी लोग भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, युधिष्ठर, द्रोपति आदि के चरित्र की विवेचना करते है किंतु अर्जुन के विषाद को नही समझ पाते।
भगवान श्रीकृष्ण के कुछ भी न बोलने पर अर्जुन भी आगे दो तीन श्लोक में वही तर्क से अपने को सही ठहराने का प्रयास कर रहा है।
।। हरि ॐ तत सत ।।01.33।।
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