।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.35।। Additional II
।। अध्याय 03.35 ।। विशेष II
।। धर्म, कर्तव्य धर्म एवम नीति शास्त्र ।। विशेष 3.35।।
धर्म क्या है? इस विषय मे अनेक मत एवम विभेद मिलते है। जीव नित्य अकर्ता एवम अजन्मा है और मन, बुद्धि, शरीर इंद्रियां सब प्रकृति के अधीन हो कर कार्य करती है, जिसे प्रकृति अपनी माया द्वारा संचालित करती है। जीव का मुख्य लक्ष्य जन्म मरण के चक्र से मुक्त होना है और प्रकृति का कार्य सृष्टि यज्ञ चक्र को क्रियान्वित करना है।
धर्म को हम दो विभाग में बांट सकते है।
1) धर्म एक समूह द्वारा मुक्ति या मोक्ष के लिए अपनायी हुई विशिष्ट प्रणाली है। अतः व्यक्ति उसी प्रणाली के अंतर्गत कर्मकांड करता हुआ, मनोकामनाएं इस लोक और परलोक के लिए करता है। इसी में मनुष्य अपने मुक्ति का मार्ग भी खोजता है। अतः यह लौकिक और पारलौकिक आनंद का मार्ग है।
प्रत्येक धर्म में विचारक, सूफी, संत और महात्मा होते है जो इस विशिष्ट समाज में विशेष स्थान भी प्राप्त करते है और पूजे जाते है। इन्हे हम उस धर्म विशेष का पंत भी कह सकते है। यही लोग धर्म के कर्म काण्ड, नियम, अन्य धर्मों से संपर्क और संबंध आदि को तय भी करते है, जिस पर समाज चलता है।
व्यक्ति की पहचान उस के द्वारा अपनाए विशिष्ट समूह के धर्म से होती है। अपने धर्म के प्रति विश्वास कभी कभी कट्टरता या मतांधता में बदल जाती है और एक धर्म के लोग अन्य धर्म के लोग से दुश्मनी, हत्याएं या अपने धर्म के विस्तार के लिए कोई भी अनैतिक कर्म करने लग जाते है।
2) धर्म का अन्य स्वरूप स्वधर्म है। स्वधर्म अर्थात निजी धर्म जो मनुष्य या जीव अपनी प्रकृति से अपनाता है। इस स्वधर्म की योग्यता का आधार पूर्व जन्म के कर्मफल, प्रारब्ध ,इस जन्म में राग – द्वेष में किए गए कार्य और विवेक बुद्धि है। कभी कभी परिस्थितियां भी स्वधर्म को निर्धारित कर देती है।
स्वधर्म किसी भी जीव का आत्मसम्मान, निष्ठा, कर्म और कार्य प्रणाली, अटूट विश्वास, श्रद्धा का विषय है। कर्ण ने मित्रता धर्म को किसी भी नीति से ऊपर रख का निभाया। इसी प्रकार भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा को किसी भी नीति या विचार के ऊपर रखा। स्वधर्म का पालन करने वाला यदि सात्विक या राजसी गुणों से युक्त है, तो उस के बलिदान देने पर भी उस की मुक्ति का मार्ग उस के स्वधर्म के कर्मों से हो जाती है।
स्वधर्म के पालन के लिए यदि कूटनीति का पालन भी लोकसंग्रह हेतु होता है तो वह भी सृष्टि यज्ञ चक्र का लोककल्याण का ही कार्य है।
किसी जीव का स्वधर्म समय, स्थान परिस्थिति, व्यवसाय आदि से परिवर्तित होता रहता है, अतः वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था के निर्माण भी स्वधर्म को नियमित करने के लिए है।
अतः सृष्टि चक्र भी चलता रहे और जीव को मुक्ति भी मिले, इस के ऋषि, मुनि एवम श्रेष्ठ लोगो ने समाज के लिये कुछ नियम बनाये एवम आचरण द्वारा उदाहरण भी समय समय पर प्रस्तुत किये, जिसे धर्म का नाम दिया। काल के अनुसार धर्म के नियम भी बदले गए। भीष्म प्रतिज्ञा का धर्म आज के परिवेश में चिंतन का विषय है, जब कि उस युग की सब से कठिनतम प्रतिज्ञा थी। जिस के कारण भीष्म को जाना जाता है।
धर्म का आधार नियमित जीवन शैली है जिस में उस के कर्म भी जुड़े है। आत्मशुद्धि के धर्म के अतिरिक्त अधिकार एवम कर्तव्य भी धर्म के अनुसार ही तय होते है, जैसे देश धर्म, राज धर्म, जाति धर्म, व्यापार धर्म, व्यवसाय धर्म, सेवक धर्म, नारी धर्म, पुरुष धर्म और सैनिक धर्म इत्यादि इत्यादि। प्रत्येक धर्म की नीतियां भिन्न भिन्न होने से कई बार आपस मे भी टकरा जाती है। जैसे अर्जुन का परिवार के प्रति धर्म एवम क्षत्रिय धर्म आपस मे टकरा गया। यही वह स्थिति होती है जहां व्यक्ति किंकर्तृत्वविमुढ़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में धर्म क्या होना चाहिए, यही गीता में हम पढ़ रहे है। क्योंकि जो शुद्ध आत्मिक भाव से मन निश्चय करता है, वही धर्म सही करने योग्य है और शुद्ध आत्मिक मन को किस प्रकार प्राप्त करे यह गीता में विभिन्न योग के माध्यम से बताया गया है।
यद्यपि जीवन को बचाना सब से बड़ा धर्म है, आत्म रक्षा के लिये किसी की हत्या और जीवन बचाने के लिये निषिद्ध पदार्थ तक सेवन भी स्वीकार किया है, किंतु सिंद्धान्तों या देश या युद्ध मे बलिदान देना उस से भी बड़ा धर्म माना गया है।
प्रकृति का गुण धर्म सत-रज-तम है, प्रकृति क्रियाशील है अतः यह माया द्वारा जीव को जकड़ लेती है और प्रकृति के माया जाल में जीव स्वयं की कर्ता समझ के व्यवहार करने लगता है। यह जीव के कर्म फल बन्धन का आधार है जिस से जीव अपने कर्मो का फल भी भोगता है और जन्म-मरण के कुचक्र में फस जाता है। ऐसे समय मे धर्म ही मनुष्य को क्या करना चाहिये, इस का मार्ग तय करता है।
इसलिये प्रकृति के गुण के आधार पर जीव कर्म की जो भी क्रिया करता है वह यदि निष्काम हो कर कर्तव्य धर्म समझ कर करे तो वह संचित कर्मो के फल को भोग कर मुक्त होता है और नए कर्मो के फल को प्राप्त भी नही होता।
स्वधर्म अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करना है। स्वधर्म में मनुष्य बंध कर कार्य करता है जिस के द्रौपती के चीर हरण में भीष्म अपनी प्रतिज्ञा एवम द्रोण दोनों राजधर्म से लाभाविन्त होने के कारण चुप थे जबकि दोनो जानते थे कि द्रोपति का चीर हरण का कार्य धर्मोचित नही था। महाभारत के अनेक प्रसंग धर्म के अनुकूल नही थे। कर्ण की हत्या के समय जब उस ने निहत्थे पर वार करने पर धर्म का प्रश्न उठाया तो कृष्ण ने उसे अभिमन्यु के समय को याद दिलाया। अतः जो धर्म का पालन नहीं करता उस के साथ स्वधर्म के पालन करने वाले को भी धर्म का पालन नही करना चाहिए। यदि भीष्म और द्रोण आदि स्वजन नीति और न्याय को त्याग कर कुटिल व्यक्ति का साथ भी स्वधर्म के कारण करते है तो उन से युद्ध जैसे समय में कोई मोह या ममता नही रखते हुए, अर्जुन को युद्ध ही करना चाहिए।
अतः धर्म उन नीतियों का संकलन है जिस से मनुष्य प्रकृति से प्राप्त गुणों के आधार पर कर्म भी करता है और फल से मुक्त भी रहता है। नीतियां सात्विक मार्ग पर चलने हेतु विभिन्न परिस्थितियों में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए, इस के लिए नियम होते है।
धर्म की नीतियां उन्ही लोगो के हित मे उपयोग में लायी जाती है, जिन के लिये कर्म किया जाता है। अधर्मी या विधर्मी या कुरीतियों पर चलने वालों के प्रति यदि धर्म की नीतियों का सही पालन किया जाए तो वह उन्हें उचित दंड देना ही होगा।
पृथ्वीराज का बार बार अपने शत्रु को शत्रु पर दयाधर्म के पालन में माफ करना भारी पड़ा। जबकि चाणक्य ने देश को संगठित करने के लिये कूटनीति अपनाई। इसी प्रकार कर्ण एवम राजा बलि दान धर्म की अतिसयोक्ति अर्थात प्रतिष्ठा समझने के कारण ठगे भी गए। किन्तु जिस प्रतिष्ठा के लिये उन्होंने ठगना स्वीकार किया, उसे उन्होंने प्राप्त भी किया, क्योंकि उन ठगने वाले ने उन के साथ व्यवहार धर्म विरुद्ध किया, चाहे वह लोक संग्रह के लिए ही क्यों न किया गया हो। देश की रक्षा के लिये खड़ा सैनिक दया एवम करुणा की धर्म नीति को नही पालन कर सकता। इसलिये धर्म और प्रकृति से प्राप्त गुणों के आधार पर कर्तव्य धर्म अर्थात स्वधर्म जो कर्म के लिये अपनाए जाते है, दोनो एक सूत्र में काम नही करते।
धर्म और नीति के अनुसार समय, स्थान और परिस्थिति में को सार्वजनिक हित में हो, उस का निर्णय न्याय शास्त्र है।
अतः पारलौकिक धर्म, स्वधर्म, नीति और न्याय के मध्य मनुष्य को राग – द्वेष को त्याग कर श्रद्धा, विश्वास और समर्पित भाव से अपना कर्म करना चाहिए। इस के ब्रह्मा जी के सृष्टि यज्ञ चक्र का नियम कि अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे को देने के लिए जीवन का उपयोग हो, प्रकृति का नियम है, जितना हम बांटते है, देवता हमे उस से अधिक वापस करते है, शर्त यही है कि वापसी में कुछ प्राप्त हो इस की लालसा न हो।
अतः स्वधर्म और न्याय शास्त्र से जुड़ा धर्म दोनों एक ही नही हो सकते। स्वधर्म का पालन हर परिस्थिति में करते रहने से कोई भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है किन्तु बीच बीच मे न्याय शास्त्र से जुड़ेधर्म की बात करने से उस का स्वधर्म का पालन कठिन हो सकता है। युद्ध मे लड़ना स्वधर्म है किंतु हत्या करना या अपनो की हत्या करना धर्म के विरुद्ध है। यहाँ भगवान कृष्ण स्वधर्म के पालन का आदेश देते है क्योंकि अर्जुन के विरुद्ध जो भी खड़े थे वो भी धर्म के विरुद्ध अपने स्वधर्म के साथ थे। अर्जुन क्षत्रिय है, युद्ध करना उस का धर्म है, युद्ध भूमि में उसे नियति ने खड़ा किया है, अतः स्वधर्म के अनुसार भगवान उसे निष्काम भाव से कर्म करने की आज्ञा दे रहे है। किंतु उस मे क्या मनोचित शुद्धि, राग – द्वेष आदि का न होना चाहिए, यह भी समझा रहे है।
वकील की प्रैक्टिस में अपने मुवकिल को बचाना स्वधर्म है, चाहे धर्म के विरुद्ध है। अतः स्वधर्म का पालन यदि निष्काम भाव से हो तो सही है, परंतु वकील केस फीस या धन कमाने के लिये लड़े तो नीति विरुद्ध है। स्वधर्म में भी लक्ष्य निष्काम होना चाहिए। स्वधर्म निष्काम है तो ही कर्मबन्धन से मुक्ति देगा अन्यथा स्वधर्म का पालन अहम एवम वासना के साथ किया जाए तो यह प्रकृति के अंतर्गत किया कार्य बंधन कारक होगा और इस के फल को भी भोगना पड़ेगा।
धर्म मोक्ष नही हो सकता, यह मुक्ति का मार्ग अवश्य है, इसलिये जीवन के चार प्रमुख कर्तव्य निश्चित किये गए, जिन्हें हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते है। स्वधर्म में ही इन चारों कर्तव्यों का पालन किया जाता है जिस से अंतिम कर्तव्य मोक्ष की प्राप्ति हो। इन्ही को ध्यान में रखते हुए चार पुरुषार्थ ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास एवम वानप्रस्थ तय किये गए थे।
संक्षेप में जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त होना है। उस का प्रकृति से संयोग होने से, वह कर्म करने को बाध्य है। इसलिए कर्म योग, नीति, न्याय और धर्म के द्वारा चित्त और आत्म शुद्धि का माध्यम भी रहे और लोक संग्रह के कार्य भी होते रहे, यही प्रकृति में सत का गुण है।
गीता में आगे हम विस्तार से जिन बातों को समझने जा रहे है उन में यही मुख्य है कि धर्म नीति शास्त्र का वह मार्ग है जिस से व्यक्ति अपना कर मोक्ष को प्राप्त होता है, यह सिंद्धान्तिक है और स्वधर्म धर्म का व्यवहारिक मार्ग है जो समय, स्थान और प्रकृति के गुणधर्म के आधार पर जीव का कर्त्तव्य निश्चित करता है। इस कर्तव्य धर्म के पालन में किस प्रकार कर्म किया जाए जिस से प्रकृति द्वारा निमित्त कर्म भी हो और किसी प्रकार का कर्म का बन्धन भी न हो, यही गीता में भगवान श्री कृष्ण निष्काम कर्मयोग के मार्ग के द्वारा युक्ति पूर्वक अर्जुन को समझा रहे है जो व्यवाहारिक एवम सृष्टि यज्ञ चक्र के लिये आवश्यक भी है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.35 ।।
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