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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.33।। Additional II

।। अध्याय    03.33 ।। विशेष II

।। कर्म अनिवार्यता और जीव का प्रकृति बन्धन ।। विशेष 3.33 ।।

सामान्य नियम है कि यदि किसी कमरे में कुछ बच्चो को छोड़ दे और खाने – पीने, खेलने से ले कर पढ़ने तक समान रख दे तो प्रत्येक बालक एक ही वस्तु की बजाए, विभिन्न वस्तु को अपनी प्रकृति के अनुसार चुनेगा और खुश होगा। जिन्हे खेलना पसंद है वो indoor या outdoor के खेल लेंगे, कुछ ड्राइंग, तो कुछ म्यूजिक और कुछ पुस्तके चुनेंगे। सब की पृथक पृथक रुचि का कारण, उन के प्रारब्ध और प्रकृति के तीन गुण है।

मनुष्य या जीव जब जन्म लेता है तो कुछ कर्म या स्वभाव वह जन्म से ले कर आता है। बतख के बच्चे को कौन तैरना सिखाता है और बंदर को कौन पेड़ो पर करतब करना सिखाता है। इसलिए मनुष्य में भी सफल व्यापारी, उद्योगपति, प्रवचन कर्ता, CA, engg. या Dr. आदि वही बन सकता है जो उस के गुण के अनुसार हो।

प्रकृति के इन तीन गुणों का प्रभाव ज्ञानी हो या अज्ञानी सभी पर समान रूप से है। इसलिए एक ज्ञानी आश्रम बना कर प्रवचन करता है, तो अन्य पुस्तक लिखता है। एक ज्ञानी एकांत में तप करता है तो अन्य लोगो के मध्य निष्काम भाव से लोक संग्रह का कर्म करता है। एक ज्ञानी गृहस्थ हो कर भी ऋषि के समान पूज्य है और दूसरी और एक ज्ञानी अविवाहित जीवन व्यापन करता है। पुरुष या मनुष्य तो दूर देवी देवता भी अपने अपने वाहन, शस्त्र, ज्ञान और वरदान की शक्तियां रखते है। मां सरस्वती का कार्य यमराज और यमराज का कार्य मां सरस्वती नही कर सकती। फिर यह कर्म विभाग का आधार क्या है?

विश्वामित्र क्षत्रिय हो कर भी ब्रह्म ऋषि कहलाए और परशुराम ब्राह्मण हो कर भी क्षत्रिय का व्यवहार किए। प्रकृति के इस माया जाल में उस के सत, रज और तम गुण का प्रभाव उस के स्वभाव और कार्य में रहता है और जीव अपने पूर्व के कर्म फलों और संस्कार से यह स्वभाव प्राप्त करता है। इसी के कारण आश्रम और वर्ण व्यवस्था बनी। अर्जुन एक क्षत्रिय है, युद्ध करना उस का स्वभाव है। मोह या भय के कारण यदि वह युद्ध छोड़ भी दे तो भी इस स्वभाव नहीं बदल सकता। फिर सन्यासी हो कर भी वह राजसी और क्षत्रिय गुण का व्यवहार करेगा।

किसी बालक को व्यापार में जाना हो तो उसे नौकरी का ऑफर भी दे दे तो कुछ समय बाद वह नौकरी छोड़ कर व्यापार में कार्य करने लगेगा।

यदि हम अब तक के गीता अध्ययन को अवलोकन करें तो यह हमें एक दिशा निर्देश की भांति लगेगा। इस के अंतर्गत हम ने नित्य एवम अनित्य यानि प्रकृति के बारे में पढा। जीव ब्रह्म से पृथक हो के अहम, ममता, वासना एवम कर्ता भाव के अंर्तगत जन्म मृत्यु के चक्र द्वारा अपने कर्म फल को भोगता है। जिन्हें ज्ञान है वो सांख्य योग द्वारा मुक्ति को खोजता है और अन्य कर्मयोग से। कर्मयोग में जो निष्काम हो कर कर्म करता है वो अंत मे मुक्ति को प्राप्त होता है।

किन्तु हम प्रकृति के अधीन जीने वाले लोग है। हम जन्म से मृत्यु तक समाज मे रहते है एवम जीवन जीविकोपार्जन के लिये व्यतीत करते है। हमारी शिक्षा, व्यवसाय, सामाजिक परिवेश एवम रीति रिवाज इस प्रकृति के त्रियामी गुण के आधीन जुड़ा है। अतः मोह, राग, अहम, लोभ एवम काम हमारी दिनचर्या का हिस्सा है।

पशु – पक्षी आदि प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते है, इसलिए वे अपने पूर्व जन्मों के कर्म के फलों को भोगते है, किंतु वर्तमान के कर्मों का फल का बंधन उन्हे नही होता। मनुष्य को परमात्मा से बुद्धि प्राप्त है, इसलिए वह प्रकृति के कर्म के उत्पन्न होने से विचार, नीति और नियंत्रण से कर्म के वेग को रोक या मोड़ सकता है। इसलिए उस को कर्म के बंधन के नियम लागू होते है।

कर्म योग किसी भी कर्म को उच्च या निम्न श्रेणी में नही मानता। भगवान का कहना कि कर्म करते समय कर्म के फल के प्रति लालसा अर्थात कर्ता या भोक्ता भाव ही कर्म को जीव के साथ जोड़ता है। पूर्व में व्याध गीता की कथा में एक साधारण गृहणी और व्याध अर्थात मांस आदि को बेचने वाले ने एक ब्राह्मण को ज्ञान दिया था। मंदिरों में पूजा करने वाले से अधिक बड़ा कर्मयोगी वह वैज्ञानिक भी हो सकता है, जो मनुष्य के हित के लिए कुछ खोज रहा है। देश की रक्षा के सीमा पर खड़ा सैनिक, किसी भी आश्रम में ध्यान लगाकर चंदा इकट्ठा करने वाले ब्राह्मण से महान हो सकता है। अर्जुन द्वारा युद्ध भूमि में क्षत्रिय होने के नाते, उन स्वजनों का वध करना भी कर्मयोग हो सकता है यदि वह निष्काम भाव से परमात्मा की सेवा समझ कर युद्ध करे। क्योंकि उस की प्रकृति उसे युद्ध के लिए बाध्य करेगी तो युद्ध यदि कर्मयोगी की भांति कर्तव्य कर्म समझ कर किया जाए तो परिणाम स्वरूप कर्ता या भोक्ता भाव का कष्ट स्वजनों की हत्या का नही होगा।

अब यदि भावना, मोह, भय या अहम में अर्जुन अपने कर्तव्य कर्म को छोड़ कर सन्यास लेता है तो मूल प्रकृति में उस का क्षत्रिय होना, उसे वैराग्य में सफल नहीं होने देगा और कुछ समय बाद वह पुनः क्षत्रिय स्वरूप में कार्य करना शुरू कर देगा। इसलिए मूल प्रकृति के विरुद्ध यदि भावना, मोह, लोभ के वश में आ कर हम किसी कार्य को करने का निर्णय लेते है या सन्यासी बनते है तो यह सन्यास शमशान वैराग्य या मर्कट वैराग्य कहलाता है जो समय के अंतराल में जीव को मूल प्रकृति में लौटने के लिए मजबूर करता है।

जीव जन्म लेता है शिशु से बालक- युवा-प्रोढ़ फिर वृद्धा अवस्था को प्राप्त करते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है, अतः यह प्रकृति का नियम जिसे कोई नही बदल सकता। इस बदलाव से इन्द्रियों से अनेक भावनाएं, उम्मीदे, कार्य को करने एवम सोचने समझने की क्षमता सभी मे  बदलाव होते रहते है। सांसारिक जीवन के उत्तरदायित्व, शादी, परिवार, समाज, देश आदि हमे कर्म करने को बाध्य करता है। अपने संस्कारो के अनुसारो हम कर्म में लग जाते है।

किन्तु इतने बदलाव में जो नही बदलता वह जीव है जो बालक से वृद्ध तक वही रहता है, जो जन्म से पूर्व भी था और बाद में भी रहेगा। यह जीव कर्म करते करते प्रकृति के इस कर्म से कर्तृत्व भाव एवम भोक्तत्व भाव का सम्बंध जोड़ लेता है और अहम के इस भाव से वह कर्मफल के बन्धन में फस जाता है।

कृष्ण भगवान कहते है कि कर्म की अनिवार्यता को कोई रोक नही सकता, यह प्रकृति से प्राप्त शरीर  मे प्रकृति के सत-रज-तम गुण का प्रभाव है। वह कर्म को करने के लिये बाध्य करेगा। अतः कर्म को उस की स्वतः प्रक्रिया में करते रहने से उस का वेग समाप्त होता है और उसे निष्काम भाव से करने से उस का बन्धन भी नही होता।

अपने गुण धर्म से हम जो भी पूजा पाठ, व्यवसाय, नौकरी या सेना में रक्षा का दायित्व स्वीकार करते है वह आप का गुण धर्म है, उस को निष्काम हो कर करने से ही वह वेग समाप्त होगा और आप सात्विक गुण को प्राप्त करते हुए गुणातीत हो पाएंगे।

अतः संसार मे रह कर सांसारिक हो कर भी कीचड़ में कमल के समान रहने का तरीका, व्यापार-व्यवसाय, समाज-देश और प्रकृति के अनुसार उपलब्ध संसाधनों का उपयोग बिना कर्तृत्व एवम भोक्तत्व के भाव के किस प्रकार करना चाहिए, यही गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे, वही हम सब को भी बता रहे है।  अर्जुन कोई भी शंका ले कर चलने वाला शिष्य है, अतः वह आगे इसे में भी जितने किन्तु-परंतु है, उन का भी समाधान श्री कृष्ण से कर लेंगे। किन्तु हम यदि  अर्जुन की भांति पूर्ण समाधान से इस को नही पढ़ते या समझते है, तो भी यह प्रयास गलत नही होगा।

क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को युद्ध करना, उस की प्रकृति और लोक संग्रह के लिए अनिवार्य है। यदि ज्ञानी की भांति वह इस युद्ध को नही लड़ता तो वह अपनी प्रकृति के विरुद्ध जाएगा और अन्य समस्या के साथ असफल होगा। यदि ज्ञानी की भांति इस युद्ध को वह अपनी प्रकृति के अनुसार लड़ता है तो उसे निष्काम और निर्लिप्त हो कर लड़ना पड़ेगा।

व्यवहार में हम अपनी जगह सही है और सामने वाला कुटिल नीति से कार्य कर रहा है। ऐसे में कुटिल लोगो के समक्ष यदि राजनीति करने वाला राजनीति छोड़ दे, प्रैक्टिस करने वाला प्रैक्टिस छोड़ दे या नौकरी करने वाला नौकरी छोड़ दे तो वह अपनी प्रकृति से दूर कब तक और कहां तक भागेगा। उसे निष्काम हो कर चाणक्य या कृष्ण भगवान की भांति कूट नीति से कर्म करना ही होगा।

सांख्य योग कर्म को निवृति मार्ग से न करते हुए इन्द्रियों को नियंत्रित करने पर बल देता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिये संभव नही है। कर्मयोग इसी संसार मे इन्द्रियों को नियंत्रित करते हुए, निष्काम कर्म करने के लिये बल देता है जिस से सृष्टि यज्ञ चक्र भी चलता रहे और लोकसंग्रह के कार्य भी जीव अपने प्रकृति के अनुसार करता रहे।

किसी भी कर्म का उदय प्रकृति प्रदत्त स्वभाव से अवश्य होता है किंतु उस विचार या दृश्य को मन द्वारा पोषण किया जाए या न किया जाए, यह ज्ञान का विषय है। यही पोषित विचार ही आगे चल कर कर्म बनता है। इसलिए प्रकृति के अनुसार कर्म करते हुए भी उस पर नियंत्रण संभव है, इसे आगे के श्लोक में बतलाया गया है।

गीता के श्लोक 33 से आगे तक गीता हमे यह सब बताती है कि समाज मे रहते हुए प्रकृति के त्रियामी गुण सत, रज एवम तम में हम कैसे तम गुण से सत तक, फिर कैसे कर्मबन्धन मुक्त कर्म तक पहुचे। याद रहना चाहिए कि कर्मबन्धन मुक्त हुए बिना मोक्ष नही और हम जैसे सांसारिक जीवो के लिए कर्म बंधन मुक्त होना, मात्र गीता पढ़ के संभव नही। इसलिये अब सभी श्लोक ध्यान से पढे क्योंकि यह व्यवहारिक ज्ञान द्वारा कर्म बंधन का मार्ग बता रहा है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.33 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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