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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.31।।

।। अध्याय    03.31 ।।  

श्रीमद्भगवद्गीता 3.31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः

“ye me matam idaḿ nityam,

anutiṣṭhanti mānavāḥ..।

śraddhāvanto ‘nasūyanto,

mucyante te ‘pi karmabhiḥ”..।।

भावार्थ : 

जो मनुष्य दोष बुद्धि से रहित (अनसूयन्त) और श्रद्धा से युक्त हुए सदा मेरे इस मत (उपदेश) का अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं वे कर्मों से (बन्धन से) मुक्त हो जाते हैं। ।।३१॥

Meaning:

Those who always execute this teaching of mine, with faith and without objection, they too are freed from all actions.

Explanation:

As we have seen so far, if we are bound to actions and objects, we will never be able to realize the eternal essence, which is the ultimate goal prescribed by the Gita. So in this shloka, Shri Krishna begins to conclude the teaching of karmayoga by reassuring us that it will free us from all bondages while we are engaged in action.

Very beautifully, the Supreme Lord terms the siddhānt (principle) explained by him as mata (opinion). An opinion is a personal view, while a principle is universal fact. Opinions can differ amongst teachers, but the principle is the same. Philosophers and teachers name their opinion as principle, but in the Gita, the Lord has named the principle explained by him as opinion. By his example, he is teaching us humility and cordiality.

our material intellect has innumerable imperfections, and so we are not always able to comprehend the sublimity of his teachings or appreciate their benefits. If we could, what would be the difference between us tiny souls and the Supreme Divine Personality? Thus, faith becomes a necessary ingredient for accepting the divine teachings of the Bhagavad Gita. Wherever our intellect is unable to comprehend, rather than finding fault with the teachings, we must submit our intellect, “Shree Krishna has said it. There must be veracity in it, which I cannot understand at present. Let me accept it for now and engage in spiritual sādhanā. I will be able to comprehend it in future, when I progress in spirituality through sādhanā.” This attitude is called śhraddhā, or faith.

“The word Śhraddhā means strong faith in God and Guru, even though we may not comprehend their message at present.”

The British poet, Alfred Tennyson said: “By faith alone, embrace believing, where we cannot prove.”

Having given the call for action, Shree Krishna now points out the virtues of accepting the teachings of the Bhagavad Gita with faith and following them in one’s life. Our prerogative as humans is to know the truth and then modify our lives accordingly. In this way, our mental fever (of lust, anger, greed, envy, illusion, etc.) gets pacified.

Prior to the Gita coming into existence, people heralded a misconception that spiritual realization was the domain of a select section of society, and could be achieved only through the accomplishment of extremely secret and arcane rituals. The Gita proposed a radical new method of realization where anyone regardless of their background can get the same result while performing any and all actions.

So therefore, Shri Krishna urges us to overcome any misconceptions, barriers and objections we may harbour against this teaching. Some may say, this teaching is too simplistic. Others may say, it goes against whatever preconceived notions they have about religion. Or that it is not achievable and so on. Whatever be the objection, Shri Krishna wants us to put the teaching into practice and try it out for ourselves.

Now, as he is about to conclude the teaching of karmayoga, Shri Krishna anticipates a problem. He knows that even for people who are ready and willing to take this path will run into obstacles. He covers this topic in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अर्जुन द्वारा युद्ध को त्याग कर सन्यास लेना ही उस युग में मोक्ष का मार्ग मान लिया गया था, जब की युद्ध करते हुए भी कर्मयोगी चित्तशुद्धि को प्राप्त कर सकता है और इस के पूर्व श्लोक में पांच अनिवार्यता भी बताई गई।

किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदि का कोई भी मनुष्य यदि कर्मबन्धन से मुक्त होना चाहता है तो उसे इस सिद्धान्त को शंका रहित श्रद्धा भाव से मान कर इसका अनुसरण करना चाहिये। सिद्धांत कह कर पूर्व श्लोक के नियम स्थिर हो जाते है तो उसे पूरा करने की शर्त भी श्रद्धा और अनुसून्यता की बताई गई है। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ कर्म आदि कुछ भी अपना नहीं है इस वास्तविकता को जान लेने वाले सभी मनुष्य कर्मबन्धन से छूट जाते हैं।

भगवान् और उन के मत में प्रत्यक्ष की तरह निःसन्देह दृढ़ विश्वास और पूज्यभाव से युक्त मनुष्य को श्रद्धावन्तःपद से कहा गया है। शरीरादि जड पदार्थों को अपने और अपने लिये न मानने से मनुष्य मुक्त हो जाता है इस वास्तविकता पर श्रद्धा होने से जडता के माने हुए सम्बन्ध का त्याग करना सुगम हो जाता है।श्रद्धावान् साधक ही सत्शास्त्र सत्चर्चा और सत्सङ्गकी बातें सुनता है और उन को आचरणों में लाता है। मनुष्य शरीर परमात्मा प्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः परमात्मा को ही प्राप्त करने की एकमात्र उत्कट अभिलाषा होने पर साधक में श्रद्धा तत्परता संयतेन्द्रियता आदि स्वतः आ जाते हैं। अतः साधक को मुख्य रूप से परमात्मा प्राप्ति की अभिलाषा ही तीव्र बनाना चाहिये।

जहाँ श्रद्धा रहती है वहाँ भी किसी अंश में दोषदृष्टि रह सकती है। भगवान् का मत तो उत्तम है पर भगवान् कितनी आत्मश्लाघा अभिमान की बात कहते हैं कि सब कुछ मेरे ही अर्पण कर दो अथवा यह मत तो अच्छा है पर कर्मों के द्वारा भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है कर्म तो जड और बाँधनेवाले होते हैं आदिआदि भाव आना ही भगवान् के मत में दोषदृष्टि करना है। साधक को भगवान् और उन के मत दोनों में ही दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिये।वास्तव में सब कुछ भगवान् का ही है परन्तु मनुष्य भूल से भगवान् की वस्तुओं को अपनी मान कर बँध जाता है और ममता कामना के वश में होकर दुःख पाता रहता है। अतः इस अपनेपन का त्याग करवा कर मनुष्य का उद्धार करने के लिये (कि वह सदा के लिये सुखी हो जाय) भगवान् अपनी सहज करुणा से सब कुछ अपने अर्पण करने की बात करते हैं। अतः इस विषय में दोषदृष्टि करना अनुचित है। यह तो भगवान् का परम सौहार्द कारुण्य वात्सल्य ही है कि अपने में कोई अपूर्णता (कमी) और आवश्यकता न होने पर भी केवल मनुष्य के कल्याणार्थ वे समस्त कर्मों को अपने अर्पण करने के लिये कहते हैं।

ध्यान रहे कि जीव ब्रह्म का अंश है और प्रकृति के साथ जुड़ा है। मोक्ष उस का अंतिम ध्येय है। जीव ब्रह्म नही हो सकता, इसलिए जब भगवदगीता में ब्रह्म स्वरूप में भगवान श्री कृष्ण कुछ कहते है तो उस को समझने के लिए आत्मशुद्धि, बुद्धि और त्याग उसी के बराबर का होना चाहिए। इसलिए परमात्मा को प्राप्त करने के लिए उस के प्रति समर्पण भाव पूर्ण श्रद्धा और उन के बातो पर अनुसूय होने से ही जीव मुक्ति के मार्ग पर चल सकेगा। अज्ञान में तर्क  वही लोग करते है जो पूर्वाग्रह के विचारो से ग्रसित होते है। जो आप ने देखा नही, जिसे आप जानते नही, उस को प्राप्त करने का मार्ग तो श्रद्धा ही है। जब कोई आप को मार्ग बतलाता है तो वह भी उच्च स्थान पर ही होता है, इसलिए जब तक उस के प्रति श्रद्धा और विश्वास न हो तो आप कैसे उस मार्ग पर चल पाएंगे। इसलिए भगवदगीता का पठन भी श्रद्धा और विश्वास से ही होना चाहिए।

सनद रहे श्रद्धा का कभी भी अर्थ अंधविश्वास नही होता।

कर्मयोग के सिद्धान्त का मात्र ज्ञान होने से नहीं किन्तु उसके अनुसार आचरण करने पर ही वह हमारा कल्याण कर सकेगा। यह श्रीकृष्ण का मत है। अध्यात्म ज्ञान तो एक ही है परन्तु आचार्यों सम्प्रदाय संस्थापकों एवं भिन्नभिन्न धर्म प्रथाओं के मतों में अनेक भेद हैं जिस का कारण यह है कि वे सभी तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अपनी पीढ़ी का मार्ग दर्शन करना चाहते थे जिससे सभी साधक परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकें। बैलगाड़ी हांकने वाले चालक के चाबुक के नीचे काम करने वाले पशु के समान ही मनुष्य को बोझ उठाते हुये जीवन नहीं जीना चाहिये। परिश्रम केवल शरीर को सुदृढ़ बनाता है कर्म हमारे चरित्र की वक्रता को दूर कर आन्तरिक व्यक्तित्व को आभा प्रदान करते हैं। यदि हम अपने परिश्रमपूर्वक किये गये कर्मों में अपने मन और मस्तिष्क का भी पूर्ण उपयोग करें। असूया (गुणों में दोष दर्शन) का त्याग करके एवं श्रद्धापूर्वक कर्मयोग का पालन करने से ही यह संभव हो सकेगा।

श्रद्धा संस्कृत में श्रद्धा का भाव गम्भीर है जिसे अंग्रेजी भाषा के किसी एक शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता।श्रीशंकराचार्य श्रद्धा को पारिभाषित करते हुए कहते हैं कि शास्त्र और गुरु के वाक्यों में वह विश्वास जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है श्रद्धा कहलाता है। यहाँ किसी प्रकार के अन्धविश्वास को श्रद्धा नहीं कहा गया है वरन् उसे बुद्धि की वह सार्मथ्य बताया गया है जिस से सत्य का ज्ञान होता है। बिना विश्वास के किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती तथा विचारों की परिपक्वता के बिना विश्वास में दृढ़ता नहीं आती है। अनसूयन्त (गुणों में दोष को नहीं देखने वाले) सामान्यत जगत् में हम जो कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं उसे समझने के लिये उसकी आलोचना भी की जाती है उसके विरुद्ध तर्क दिये जाते हैं। परन्तु यहाँ भगवान् अर्जुन को सावधान करते हैं कि केवल उग्र वादविवाद अथवा गहन अध्ययन मात्र में ही इस ज्ञान का उपयोग नहीं है। वास्तविक जीवन में उतारने से ही इस ज्ञान की सत्यता का अनुभव किया जा सकता है।वे भी कर्म से मुक्त होते हैं ऐसे वाक्यों को पढ़कर अनेक विद्यार्थी स्तब्ध रह जाते हैं। अब तक भगवान् कुशलतापूर्वक कर्म करने का उपदेश दे रहे थे और अब अचानक कहते हैं कि वे भी कर्म से मुक्त हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि जो पुरुष शास्त्रीय शब्दों के अर्थों को नहीं जानता उसे इन वाक्यों में विरोधाभास दिखाई देता है।नैर्ष्कम्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते समय हमने देखा कि आत्मअज्ञान ही इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत आनन्दस्वरूप आत्मा को पहचानने पर अविद्याजनित इच्छायें और कर्मों का अभाव हो जाता है। इसलिये यहाँ बताई हुई कर्मों से मुक्ति का वास्तविक तात्पर्य है अज्ञान के परे स्थित आत्मस्वरूप की प्राप्ति।केवल कर्मों के द्वारा परमात्मस्वरूप में स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती। संसदमार्ग स्वयं संसद नहीं है किन्तु वहाँ तक पहुँचने पर संसद भवन दूर नहीं रह जाता। इसी प्रकार यहाँ कर्मयोग को ही परमार्थ प्राप्ति का मार्ग कहकर उसकी प्रशंसा की गई है क्योंकि उसके पालन से अन्तकरण शुद्ध होकर साधक नित्यमुक्त स्वरूप का ध्यान करने योग्य बन जाता है।

संक्षेप में हम यह जान ले कि हम जो भी कार्य करते है उस का उद्देश्य परोपकार या किसी को हानि पहुँचाना न हो, अपने कार्य मे हम पारंगत हो और लक्ष्य प्राप्ति के पूर्ण रूप से साधन सम्पन्न हो। कार्य प्रभु को अर्पण करें एवम अर्पण करते वक्त भी अहम भाव से दूर रहे कि मैं प्रभु को सब कार्य अर्पित करता हूँ। तभी भगवत कृपा से हम कर्म बंधन मुक्त होंगे।

हमारा व्यवसाय, व्यापार, शिक्षण या उद्योग को राजा जनक की भांति संचालित होना चाहिए। हमे अपने धर्म एवम कर्तव्य पालन को पूर्ण श्रद्धा पूर्वक बिना अहम भाव के प्रभु को अर्पण करते हुए करना चाहिए जिस से निष्काम एवम नैष्कर्म्य होना संभव होगा।

व्यवहार में गीता के ये दो श्लोक किसी भी कर्मयोगी के लिए चित्तशुद्धि एवम मुक्ति का सरलतम उपाय बतलाते है। हम व्यापार करे, घर में गृहिणी बन कर कार्य करे, नौकरी करे,  CA, Dr., Engg या वकील बन कर व्यवसाय करे, यदि सभी कार्य प्रभु के सेवक हो कर कर्ता और भोक्ता भाव का शनैः शनैः त्याग करते हुए करते रहे तो हम उस नित्य आनंद को प्राप्त कर सकते है और लक्ष्य के अनुसार व्यापार, व्यवसाय या नौकरी में भी चिंता रहित हो कर उच्च स्थान को प्राप्त हो सकते है। यह तो तय है कि जो होना है, वह तो हो कर रहता है। उस के व्यर्थ चिंता करने की बजाय श्रद्धा और अनुसुय हो कर पूर्व श्लोक के पांच गुणों या नियमो का पालन करे तो जो भी होगा, उस से कष्ट की बजाए आनंद ही होगा क्योंकि उस में हमारे पीड़ा का कारण कर्ता और भोक्ता भाव नहीं होगा।

गीता हमे आलस्य, प्रमाद, वाचालता को छोड़ कर कर्मयोगी बनाती है जिस से हम इस जगत में सम्मान पूर्वक अपने कर्तव्य पालन को कर सके। इस के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कर्म करने को प्रेरित करती है और साथ साथ कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग बताती है कि हमारे हर कर्म को प्रभु को अर्पण करते हुए हम करे।

गीता का यह श्लोक परंपरागत सांख्य योग ही एक मात्र मुक्ति का मार्ग है, इस भ्रांति को समाप्त करते हुए अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देती है कि कर्मयोग द्वारा भी यदि कोई मनुष्य अपने समस्त कर्म भगवान को अर्पण करता हुआ करता है तो वह निष्काम कर्मयोगी भी सांख्य योगी के समान ही मोक्ष का अधिकारी है।

।। हरि ॐ तत सत।। 3.31।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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