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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.18 ।।

।। अध्याय    03. 18 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 3.18

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन

चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः 

“naiva tasya kṛtenārtho,

nākṛteneha kaścana..I

na cāsya sarva-bhūteṣu,

kaścid artha-vyapāśrayaḥ”..II

भावार्थ : 

उस महापुरुष के लिये इस संसार में न तो कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता रह जाती है और न ही कर्म को न करने का कोई कारण ही रहता है तथा उसे समस्त प्राणियों में से किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नही रहती है ॥१८॥

Meaning:

For that (realized individual), there is nothing to be gained by action or inaction here. Also, he does not have even the slightest dependency on anyone for any object.

Explanation:

In the last shloka, Shri Krishna explained that one who has found delight solely in the eternal essence loses all sense of doership. In other words, all his actions become selfless and spontaneous, like an artist who cares only about creating paintings without any expectation (art for art’s sake).

Historically, Saints have been of two kinds. 1) Those like Prahlad, Dhruv, Ambarish, Prithu, and Vibheeshan, who continued to discharge their worldly duties even after attaining the transcendental platform. These were the karm yogis—externally they were doing their duties with their body while internally their minds were attached to God. 2) Those like Shankaracharya, Madhvacharya, Ramanujacharya, and Chaitanya Mahaprabhu, who rejected their worldly duties and accepted the renounced order of life. These were the karm sanyāsīs, who were both internally and externally, with both body and mind, engaged only in devotion to God. In this verse, Shree Krishna tells Arjun that both options exist for the self-realized sage. He does not depend upon anyone in the creation; among the entire creation, he does not depend upon any person. Krishna says jñāni is one who is neither addicted to action; nor addicted to inaction.

Therefore our progress is from world-dependence to God-dependence; from God-dependence we come to self-dependence; world-dependence is samsāra; God-dependence is bhakthi, self-dependence is jñānam. Samsāra to bhakthi to jñānam. This is our progress

Krishna says a jñāni yōgi is one who has discovered his inner independence; who has discovered inner freedom. this jñāni is so independent, that he does not depend upon his action also for happiness; nor does he depend upon inaction for happiness; because these are also two weakness;

Shri Krishna further elaborates that point in this shloka. He says that for such a person, the concept of gain or loss does not exist, nor does the notion of dependency or support from anyone or anything.

To better understand this shloka, let us imagine a situation where one is at the end of a critical chapter in one’s life, e.g. imagine that a person has submitted his resignation and is in the last week of his job. What will be his mindset? He will suddenly become the nicest guy in the office, and the most fun guy to hang out with. Why is that? Everyone knows that he has no agenda with anyone anymore, since it does not really matter. And he can surf the web all day long, because it does not really matter whether he works or doesn’t work.

Another example could be a person who at age 65 has just retired. He has made a decent fortune with his savings, and can live comfortably till his last day. In addition, he is quite healthy and can still work if needed. But just like in the earlier example, it does not matter whether he performs any action or doesn’t. Moreover, since he does not have any dependency on anyone, his savings make him self sufficient. Therefore, for the individual that has realized the worth of the eternal essence “treasure”, any other material gain or loss does not hold any meaning.

Ultimately, these 2 shlokas reveal the state of a realized person, who by losing all sense of doership, renounces all action. Renouncing doership is renouncing action. The topic of renunciation is covered in detail in the forthcoming chapters.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रत्येक मनुष्य की कुछ न कुछ करने की प्रवृत्ति होती है। जब तक यह करने की प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तु की प्राप्ति के लिये होती है तब तक उस का अपने लिये करना शेष रहता ही है। अपने लिये कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छा की निवृत्ति के लिये कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है। कर्म दो प्रकार से किये जाते हैं। कामनापूर्ति के लिये और कामनानिवृत्ति के लिये। साधारण मनुष्य तो कामनापूर्ति के लिये कर्म करते हैं पर कर्मयोगी कामना निवृत्ति के लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष में कोई भी कामना न रहने के कारण उस का किसी भी कर्तव्य से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थभाव से समस्त सृष्टि के हित के लिये स्वतः कर्तव्य कर्म होते हैं।कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष का कर्मों से अपने लिये (व्यक्तिगत सुख आराम के लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुष का यह अनुभव होता है कि पदार्थ शरीर इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदि केवल संसार के हैं और संसार से मिले हैं व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसार के लिये ही कर्म करना है अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसार की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इस के अलावा मिली हुई कर्म सामग्री का सम्बन्ध भी समष्टि संसार के साथ ही है अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टि के लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्य की यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टि का उपयोग करना चाहता है इसी से उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ आदि का समष्टि के लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्त हो सकती है।

जो मनुष्य शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि से अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य प्रमाद आदि में रुचि रखता है वह कर्मों को नहीं करना चाहता क्योंकि उस का प्रयोजन प्रमाद आलस्य आराम आदि से उत्पन्न तामस सुख रहता है। परन्तु यह महापुरुष जो सात्त्विक सुख से भी ऊँचा उठ चुका है तामस सुख में प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है क्योंकि इसका शरीरादि से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता फिर आलस्य आराम आदि में रुचि रहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मार्मिक बात प्रायः साधक कर्मों के न करने को ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मों से उपरत होकर समाधि में स्थित होना चाहते हैं जिस से कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो है पर सिद्धान्त नहीं है।

प्रवृत्ति (करना) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है तथापि यह तत्त्व नहीं है। प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) दोनों ही प्रकृति के राज्य में हैं। निर्विकल्प समाधि तक सब प्रकृति का राज्य है क्योंकि निर्विकल्प समाधि से भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृति में ही होती है और क्रिया हुए बिना व्युत्थान का होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने बोलने देखने सुनने आदि की तरह सोना बैठना खड़ा होना मौन होना मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है। वास्तविक तत्त्व(चेतन स्वरूप) में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का निर्लिप्त प्रकाशक है।शरीर से तादात्म्य होने पर ही (शरीर को लेकर) करना और न करना ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तवमें करना और न करना दोनों की एक ही जाति है। शरीर से सम्बन्ध रखकर न करना भी वास्तव में करना ही है।

जैसे गच्छति (जाता है) क्रिया है ऐसे ही तिष्ठति(खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टि से गच्छति में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और तिष्ठति में क्रिया नहीं दिखायी देती है तथापि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो जिस शरीर में जाने की क्रिया थी उसी में अब खड़े रहने की क्रिया है। इसी प्रकार किसी काम को करना और न करना इन दोनों में ही क्रिया है।

पूर्वश्लोक में भगवान् ने सिद्ध महापुरुष के लिये कहा कि उस के लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।उस का हेतु बताते हुए भगवान् ने इस श्लोक में उस महापुरुष के लिये तीन बातें कही हैं (1) कर्म करने से उस का कोई प्रयोजन नहीं रहता (2) कर्म न करने से भी उस का कोई प्रयोजन नहीं रहता और (3) किसी भी प्राणी और पदार्थ से उस का किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पाने से भी उस का कोई प्रयोजन नहीं रहता। वस्तुतः स्वरूप में करने अथवा न करने का कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूप के द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थों के सम्बन्ध से ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करने का विधान ही नहीं है।जब तक मनुष्य में करने का राग पाने की इच्छा जीने की आशा और मरने का भय रहता है तब तक उस पर कर्तव्य का दायित्व रहता है। परन्तु जिस में किसी भी क्रिया को करने अथवा न करने का कोई राग नहीं है संसार की किसी भी वस्तु आदि को प्राप्त करने की इच्छा नहीं है जीवित रहने की कोई आशा नहीं है और मृत्यु से कोई भय नहीं है उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता प्रत्युत उस से स्वतः कर्तव्य कर्म होते रहते हैं। जहाँ अकर्तव्य होने की सम्भावना हो वहीं कर्तव्य पालन की प्रेरणा रहती है।

जो साधन जहाँ से प्रारम्भ होता है अन्त में वहीं उस की समाप्ति होती है। गीता में कर्मयोग का प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक से प्रारम्भ होता है तथापि कर्मयोग के मूल साधन का विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोक में किया गया है। उस श्लोक (2। 47) के चार चरणों में बताया गया है

(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है)

(2) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)।

(3) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)।

(4) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो)।

प्रस्तुत श्लोक (3। 18) में ठीक उपर्युक्त साधना की सिद्धि की बात है। वहाँ (2। 47) में दूसरे और तीसरे चरण में साधक के लिये जो बात कही गयी है वह प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्ध में सिद्ध महापुरुष के लिये कही गयी है कि उस का किसी प्राणी और पदार्थ से कोई स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरण में साधक के लिये जो बात कही गयी है वह प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्ध में सिद्ध महापुरुष के लिये कही गयी है कि उस का कर्म करने अथवा न करने दोनों से ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार सत्रहवें अठारहवें श्लोकों में कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष के लक्षणों का ही वर्णन किया गया है।

अर्जुन युद्ध मे कर्तव्य कर्म से भाग कर सन्यास लेना चाहता था, किन्तु जब आत्म सिद्ध मनुष्य के लिये जब कर्म का महत्व ही नही है तो कर्म करने या न करने का कोई अंतर नही रह जाता। इसलिये भगवान कहते है कि आत्मसिद्ध कर्मयोगी कर्म के मार्ग पर प्रकृति के नियत कर्म ही करता है, वह न तो उस कर्म का भोक्ता है और न ही कर्ता। कर्म प्रकृति के द्वारा किये जाते है जो सृष्टि यज्ञ चक्र के नियम से होते है एवम वह मात्र निमित हो कर कर्म करता है। अर्जुन हो युद्ध भूमि में आत्मनिष्ठ हो कर कर्तव्य कर्म के नियत कर्म को करने का आदेश देना, इसी का भाग है।

पीछे के दो श्लोकों में वर्णित महापुरुष की स्थिति को प्राप्त करने के लिये साधक को क्या करना चाहिये इस पर भगवान् आगे के श्लोक में साधन बताते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। 3.18।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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