।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. ।। Summary II
।। अध्याय 02. ।। सारांश II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ अध्याय: २ सारांश॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गीतासार–योगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
||oṃ tatsaditi śrimadbhagavadgitasupaniṣatsu brahmavidyaysṃ yogaśastre
śrikṛṣṇarjunasaṃvade saṅkhyayogo nama dvitiyodhyoyaḥ||
भावार्थ :
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में गीतासार-योग नाम का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥
Explanation:
Thus in the Upaniṣads of the glorious Bhagavad Gītā, the science of the Eternal, the scripture of Yōga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the second discourse entitled: Saṅkya Yoga.
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Summary of Bhagvad Gita Chapter 2:
Since the second chapter is said to contain the essence of the entire Gita, let’s try to recap the main points before we move to the third chapter:
1. Shri Krishna points out the error in Arjuna’s thinking, in that Arjuna’s personality was shaken by grief and delusion towards his kinsmen
2. He advises Arjuna to correct the error by learning the knowledge of the eternal essence
3. He describes the means to attain the eternal essence
4. He also describes the characteristics of the individual who has realized the eternal essence.
We can summarize the technique to attain the eternal essence into 3 stages:
1. Attain steadfastness in selfless action by pursuing one’s svadharma
2. Attain steadfastness in devotion to a higher ideal
3. Attain steadfastness in the knowledge of the eternal essence or tattva-jnyana
We also saw that many shlokas in this chapter form the seeds of all other chapters of the Gita:
* “yogasthaha kuru karmaani” (2.48) -> chapters 3,4 on purification of mind through karma yoga
* “vihaaya kaamanyah sarvaan” (2.71) -> chapters 5,6 on renunciation of actions and meditation
* “taani sarvaani samyamya” (2.61) -> chapters 7,8,9,10,11,12 on devotion
* “vedaavinaashinam nityam” (2.21) -> chapter 13 on knowledge
* “traigunyavishayaa vedaa” (2.45) -> chapters 14,17 on the three gunaas and faith
* “yada te mohakalilam” (2.52) -> chapter 15 on dispassion
* “duhkeshvanudvignamanaah” (2.56) -> chapter 16 on divine wealth
* “yaaimaam pushpitaam” (2.42) -> chapter 16 on demonic wealth
Footnotes
1. Most commentators agree that the chapters of the Gita map to the Upanishadic statement “Tat tvam asi” or “You are that”. The first 6 chapters cover the “tvam” or the “you” aspect, the next 6 cover the “tat” or the “That” aspect”, and the final 6 chapters cover the “asi” or the “are” aspect.
सारांश – द्वितीय अध्याय
गीता का द्वितीय अध्याय के समापन के साथ यह सारांश सिर्फ इस उद्देश्य से लिखा जा रहा है कि जब हम पढ़ते है तो हमारी चेतना जाग्रत होती है और हम उस से प्रभावित होते है। लिखे हुए शब्द सर्वप्रथम हमारे अवचेतन मन को छूते है और वो हमारे संस्कारो के आधार पर उसे स्वीकार् या अस्वीकार कर के हमे आनंद या निराशा देते है। कभी हम उसे स्वीकार् तो करते है किंतु कंही मन मे बैठी अवधारणा उन को अपनाने के लिये अस्वीकार भी करती है क्योंकि हमारी जीवन शैली के लिए हमारी अपनी चेतना उसे व्यवहारिक नही मानती।
अतः ज्ञान पढ़ने की सतह पर बिखर जाता है जो हमे ज्ञानी और वाचाल तो बनाता है किंतु अहम उसे आत्मसात करने से रोकता है।
प्रथम अध्याय में अर्जुन के मोह को जब कृष्ण ने ललकारा तो ज्ञान का सहारा ले कर अर्जुन नकारात्मक हो कृष्ण के शरण मे गया कि आप को जो समझाना है बताए किन्तु मै युद्ध नही करूगा । अर्जुन का मोह एवम अहम का यह वाक्य हम सब के लिए नया नही है क्योंकि हो सकता है कि हम गीता अध्ययन भी अर्जुन की भांति इसी अवधारणा से शुरू कर रहे कि गीता का नित्य एक श्लोक पढूंगा जरूर किन्तु अपना पाऊ यह जरूरी नही। यह भी जरूरी नही एक श्लोक को भी नियमित पढ़ पाए क्योंकि इच्छाओ पर प्रथम अधिग्रहण सांसारिक आवश्यकताओ का अधिक होता है।
यह हमारी रोज़ की दिन चर्या है कि हम जैसा विचार करते है वैसा कार्य नही करते। हमारे विचारों एवम कार्यो का ताल मेल इन्द्रियों को वश में करने की प्रथम सीढ़ी है।
जैसा मैंने प्रथम पद में हम सब के लिए लिखा है कि इस प्रकार की नकारात्मक दृष्टिकोण ले कर सुनने वाले शिष्य को एक कृष्ण के समान वक्ता ही समझा सकता है। कृष्ण द्वारा भी गीता का ज्ञान अर्जुन को मोह, भय एवम अज्ञान से निराशा की चरम सीमा पर दिया गया तांकि वो अपनी कर्तव्य विहीन स्थिति से बाहर आ सके। अतः गीता पढ़ने के लिए भी उस को पढ़ने की आवश्यकता एवम जीवन मे सुधार लाने की इच्छा होना जरूरी है।
एक कुशल वक्ता की भांति कृष्ण ने उस के ज्ञान के अंधकार को सांख्य योग द्वारा नित्य एवम अनित्य के भेद से बताया कि नित्य अजर, अमर, अकर्ता एवम अजन्मा है और यह सामने जो है वो जीव है जिस का जन्म मरण निश्चित है। यह बार बार जन्म ले कर अपने कर्मो को भोगता है एवम एक योद्धा की भांति उसे समय एवम स्थान के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इस के बाद एक कुशल वक्ता की भांति व्यवहारिक ज्ञान भी दिया कि यदि वो ऐसा नही करता तो भी उस की कीर्ति का अपयश ही होगा। जिस से अर्जुन को यह तो ज्ञात हो गया कि जिन शास्त्रों की दुहाई दे कर वो युद्ध नही करने की बात कर रहा है वो गलत है।
इस के बाद हम लोगो ने कृष्ण से कर्मयोग के बारे में सुना। कर्मयोगी अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर के उसे परमात्मा में स्थापित करता है और स्वयं निष्काम एवम निर्लिप्त भाव से बिना फल की आशा के, बिना कर्ता भाव के और बिना किसी भी कार्य का हेतु बने कर्तव्य का पालन करता है। इन्द्रियों को वश में करना सब से दुश्कर कार्य है, एक भी इन्द्रीयजनित लालसा समस्त जीवन को प्रकृति के अधीन कर दुख सुख भोगने को मजबूर कर सकती है।
गीता कभी भी एवम कंही भी इन्द्रियों के दमन का समर्थन नही करती। इन्द्रीयो का दमन शारीरिक असमर्थता के समय घातक हो सकता है क्योंकि वृद्ध अवस्था मे कभी कभी दमन की हुई इंद्रियां विकृत रूप ले कर आप के ऊपर हावी हो जाती है और आप वो हरकते करने लग जाते है जिसे नही करना चाहिए। इन्द्रियों का बुद्धि द्वारा वश में करना एवम उस को परमात्मा में लगाना ही कर्मयोगी का कार्य है।
यहां कर्मयोगी के लिये स्थितप्रज्ञ का होना बताया गया जिस में कैसे इन्द्रियों को वश में करना एवम कैसे वश में की गई इन्द्रियों से कर्मयोग करते हुए संसार मे आनंद को प्राप्त करना बताया गया। इन्द्रियों को वश में करने वाला स्थितप्रज्ञ योगी कर्म करता हुआ भी कार्य कारण के सिंद्धांत से मुक्त हो उस के कर्म फलों मुक्त रहता है और मोक्ष को प्राप्त होता है।
ज्ञान योग एवम कर्मयोग के अतिरिक्त हम ने भक्ति योग को भी स्पर्श किया।
स्थितप्रज्ञ की चरम सीमा में अहम, मोह एवम निस्पर्ह भाव को प्राप्त हो जाना जो जीव की उच्चतम दशा है जहां जीव नित्य में एकत्व भाव मे मोक्ष को प्राप्त होता है। सन्यास के विषय मे दो ही श्लोक है जिस का विस्तार से वर्णन आगे पढ़ेगे । हरिवंश राय की कविता का यह अंश की “इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! ” को याद करे कि हम आनंद इसी संसार मे खोजना चाहते है क्योंकि हम से अहम और मोह छूटना असंभव सा लगता है और मोह से इस कदर बंधे है कि इस के छूटने से भय की अनुभूति होने लगती है।
जीवन के इस कठिन विषय को कुशल वक्ता की भांति कृष्ण जी ने उदाहरण के तौर पर कछुवे, समुद्र, बिना पतवार के हवा के सहारे तैरती नाव एवम रूपक के तौर पर दिन एवम रात, दलदल जैसे शब्दों का प्रयोग किया। जब भी महाज्ञानी किसी अल्पज्ञानी को कुछ भी समझाए तो उसे उस वस्तु से तुलना करके बताना जरूरी है जिसे सुनने वाला जानता हो।
गीता के इस ज्ञान को विस्तार से जानने से पूर्व द्वितीय अध्याय हमे बता देता है आगे गीता में कृष्ण क्या बताएंगे। कुशल वक्त रुचि पैदा करने के लिए अपने विषय का संक्षिप्त पहले रख देते है जिस से सुननेवाला पूर्ण रूप से तैयार हो जाये। (see detail in english)
बाल गंगाधर तिलक के कर्म रहस्य में गीता के बारे में लिखा है कि जब राम ने लंका पार जाने के लिए सेतु बनाया तो सैंकड़ो बानर पुल से समुन्द्र पार उतर गए किन्तु समुन्द्र की गहराई को किसी ने भी नही नापा। और यदि किसी ने नापा है तो वो पत्थर है जो वानरों ने समुन्द्र में छोड़ा और जो समुन्द्र के अंदर डूब गया। अतः गीता का पठन पूरा करना या इस की गहराई को प्राप्त करना, दो विभिन्न पठन की प्रक्रिया है।
गीता संसार मे जीने की वो कला सिखाती है जिस से कोई भी व्यक्ति आनंदपूर्वक संसार की हर वस्तु का आनंद ले सके। यहां शोक या दुख को कोई स्थान नही, यहां कर्मविहीन भी जीवन नहीं, यहां कर्मकांड को भी कोई महत्व नही। आप को जीवन निष्काम कर्मयोगी की भांति जीना है जिस में जैसे प्रभु रखे उस मे आनंद ले और कर्तव्य भाव से अपने कर्म को समय और स्थान के हिसाब से करे। कृष्ण की भांति आप का हर कार्य निर्लिप्त भाव का होना एवम निस्वार्थ होना चाहिए। आप को संसार को भोगना है उस का त्याग नही करना।
गीता का द्वितीय अध्याय अर्जुन के मन मे उत्कंठा जाग्रत करता है कि भगवान कर्म को करने को कह रहे है किंतु कर्म क्या है। कर्म में भी निष्काम हो कर कर्म करना या ज्ञान योग में कर्म का त्याग करना दोनो में उचित यही होगा कि कर्म करने से कर्म का त्याग ही कर दे। क्योंकि दोनों दृष्टि में आसक्ति को त्यागना ही पड़ता है। अतः तत्वदर्शी होने के लिये शंकाओ का निर्मूलन होना भी आवश्यक है। अर्जुन श्रेष्ठ शिष्य एवम श्रोता है, इसलिये अपनी शंकाओ का निवारण भी चाहता है, यही तृतीय अध्याय के प्रारंभ का सूत्र भी है।
आशा है अब हम तृतीय अध्याय को और आनंद के साथ पढ़ेगे। आप का उत्साह कभी कभी प्रत्युत्तर के तौर पर मुझे मिलता है जिस के लिए मैं आभारी भी हूँ। आप की उठाई शंकाओं को जानने के बात मै मेरी बुद्धि अनुसार से उत्तर देने की चेष्ठा भी करता हूँ और मुझे सोचने का नया दृष्टिकोण भी मिलता है।
।। हरि ॐ तत सत।। सारांश 2 ।। इति II
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)