।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 62-63 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 62-63 ।। विशेष II
।। विषयोनुराग और मैं।। विशेष – 2. 62-63 ।।
गीता का अध्ययन, पूजा पाठ, जप और मंदिर दर्शन आदि सभी करते है। किंतु विचार करे कि हम यह सब जीवन की दिनचर्या की भांति अधिक करते है जब कि मोक्ष प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा के साथ कभी नहीं करते है। हमारी कामनाएं और इच्छाएं संसार में अनुशासित जीवन सद्विचारों के साथ जीने तक है और मृत्यु के बाद स्वर्ग या बैकुंठ जाने तक है। इस लिए लाखो में कोई एक होता होगा जो प्रकृति के विषयों के अनुराग से परे अपने मोक्ष के लिए अपने को तैयार कर रहा होगा।
प्रकृति बहुत आकर्षण और सरलता से किसी भी जीव को लुभा लेती है। विषयोनुराग का सब से बड़ा उदाहरण यह whatsapp या सोशल मीडिया ही है जिस में संदेश भेजने वाले की लालसा लाइक या कमेंट की रहती है और नही मिले तो निराशा लगती है। कभी कभी क्रोध भी आता है क्योंकि इतनी मेहनत से भेजे संदेश को किसी ने सही तरीके पढ़ा ही नही और तारीफ भी नही की।
दूसरी ओर विषयोनुराग से मुक्त कई लोग बिना किसी लालसा के इतने संदेश भेज देते की, देखने वाले डिलीट कर कर के दुखी हो जाते है। किंतु बिना सोचे समझे जो उन को प्रभावित करे, ऐसे संदेश फॉरवर्ड करते रहना ही उन्हे रुचिकर लगता है।
विषय वस्तु की आसक्ति अन्य उदाहरण मै स्वयं हूँ जो गीता के प्रत्येक श्लोक का अर्थ अधिक से अधिक लोगो तक पहुचाने की कामना करता हूँ। मेरे साथ अधिक से अधिक लोग जुड़े, मेरी प्रशंसा करे यह कामना भी जाग्रत होती है। यदि कोई ग्रुप में जुड़े तो प्रसन्नता होती है और छोड़े तो क्षोभ होता है एवम इसी क्षोभ से क्रोध भी आता है। प्रसिद्ध होने की कामना भी जाग्रत होने लगती है। इन्ही सब पर नजर रख कर अपने को मुक्त करने का प्रयास भी कर रहा हूँ यही मेरा वास्तविक क्रियाक्षेत्र है जिस में मुझे सफल भी होना है और अपने विषय आसक्ति से मुक्त भी। विषय की आसक्ति अच्छी या बुरी नही होती क्योंकि विषय अनित्य है और अपने दोनों पहलू के साथ ही आता है, इसलिये इस का कोई स्थायित्व नही है।
मैं, मेरा और मेरी संपत्ति, ख्याति, पद, सम्मान और अधिक से अधिक भोग की लालसा ऐसी है कि हम यह कहते तो कभी थकते नहीं की अब मुझे कुछ नही चाहिए, किन्तु जो है वह तो कम से कम बना रहे।
ज्ञान की प्राप्ति करना और ज्ञान को आत्मसात करना, दोनो ही भिन्न भिन्न अवस्था है। ज्ञान प्राप्त करना विषय अनुराग भी हो सकता है क्योंकि उस के बाद उस को बांटने की लालसा उत्पन्न हो जाती है, इस के बाद प्रशंसा की कामना आ जाती है। कुछ लोग ज्ञान प्राप्त ही इसलिए करते है की उस को बांट कर वह समाज मे अपनी स्वच्छ छवि बना सके किन्तु आचरण में न आने से काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या से घिरे रहते है। इसलिये किसी भी विषय का अनुराग ईश्वर की भक्ति एवम समर्पण के लिये न हो तो चित्त शुद्धि नही हो सकती। जब तक निष्काम नही होते और मैं, मेरा और मुझे के लिये कर्म है, तब तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई न कोई विषय अनुराग रहता ही है।
अतः प्रकृति जब जीव के चारो और अपना नृत्य करती उसे लुभाती रहती है तो आदि शंकराचार्य जी कहते है।
हे शिष्य ! यद्यपि निरूपाधिक भ्रम में सादृश्य की अपेक्षा नहीं है ; तथापि कुछ सादृश्य कहूँगा , ध्यानपूर्वक सुनो ।
आत्मा अत्यंत निर्मल , अतिसूक्ष्म और अत्यंत दीप्तिमान है । वैसे ही अन्तःकरण ( बुद्धि ) सत्वगुण स्वभाववाली , चैतन्य के प्रतिबिंब से युक्त , तेजयुक्त और स्वच्छ है । जैसे स्फटिक सूर्य के समान प्रकाशित होता है , वैसे ही यह अन्तःकरण भी आत्मा की समीपता के कारण आत्मा के समान भासता है ।।
अति समीपता और स्वच्छता के कारण बुद्धिरूप दर्पण में आत्मा का प्रतिबिंब पड़ने पर , बुद्धि आत्मा के समान भासने लगती है ; जिससे मन बुद्धि के समान भासता है , इन्द्रियाँ मन के समान भासती हैं और यह शरीर इन्द्रियों के समान भासता है । इस कारण ही देह , इन्द्रिय आदि अनात्म वस्तुओं में आत्मत्व का ज्ञान होता है ।।
विषयानुराग से मुक्ति का साधन है, विवेक। विवेक से ही वैराग्य उत्पन्न होता है। किसी विषय की पूर्ति होने से उतना सुख नही है, जितना सुख उस विषय के शांत होने में है। विचार करे जिस विषय में अनुराग है, वह तो परिवर्तन शील है, समय और स्थान आदि से बदलता रहता है किंतु जो विषय है वह तो नित्य है। स्वयं प्रकाशवान है। उस विषयी को यदि अपना संबंध जोड़ना है तो नित्य ब्रह्म से जोड़े, जिस से आनंद भी नित्य होगा। अनित्य से संबंध जोड़ने से आनंद भी अनित्य होगा। यही विवेक का विषय है। जिसे हम आगे और विस्तार से पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2. 62-63 ।।
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