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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.75 II

।। अध्याय      18.75 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.75

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥

“vyāsa-prasādāc chrutavān,

etad guhyam ahaḿ param..।

yogaḿ yogeśvarāt kṛṣṇāt,

sākṣāt kathayataḥ svayam”..।।

भावार्थ: 

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ॥७५॥

Meaning:

Through the grace of Vyaasa, I heard this secret of supreme yoga directly from the lord of yogas, while he was himself speaking.

Explanation:

He refers to the conversation between Shri Krishna and Arjuna as adbhuta, which means fascinating, marvellous, wonderful. It made his hair stand on end; such was the level of his amazement. Although Sanjay had his own reasons for expressing his wonder, which we shall see now, from our standpoint, it is indeed fascinating that we are able to study the text that was created by ancient Rishis several thousand years ago. Furthermore, such knowledge is rare to find in this material obsessed world, that is what makes it even more fascinating.

।। हिंदी समीक्षा ।।

महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने के पूर्व, महर्षि व्यास जी ने धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि का वरदान देने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। परन्तु धृतराष्ट्र में उस वरदान को स्वीकार करने का साहस नहीं था। अत धृतराष्ट्र के अनुरोधानुसार युद्ध का सम्पूर्ण वृतान्त जानने के लिए संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की गयी। इस प्रकार, संजय सम्पूर्ण युद्धभूमि को देख सकने तथा वहाँ के संवादों को सुनने में भी समर्थ हुआ था। यह एक संयोग ही था कि वैभवशाली राज प्रासाद में बैठकर संजय अन्ध धृतराष्ट्र को युद्ध का वृतान्त सुनाने का अवसर उसे प्राप्त हुआ। विन्रम व्यक्ति द्वारा जब उसे  कोई अप्रत्याशित वस्तु की प्राप्ति संयोग वश हो जाए, तो कृतज्ञता व्यक्त करने यह भाव अतुलनीय है।

संजय चतुर्वर्ण व्यवस्था के अनुसार कर्म से शुद्र ही था, वह गीता के ज्ञान को प्राप्त कर सका, इस के लिये श्री व्यास जी की अद्वितीय कृपा रही। गीता का ज्ञान जाति, धर्म, व्यक्ति विशेष के लिये नही है, यह गीता के अंतिम उपसंहार में भी संकेत द्वारा स्पष्ट कर के संजय द्वारा बताया गया है।

श्रीकृष्णार्जुन के संवाद के द्वारा परम् गुह्य ज्ञान के श्रवण का सुअवसर पाकर संजय कृतार्थ हो गया था। स्वाभाविक है कि वह सिद्ध कवि महर्षि व्यास जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है और वह मन ही मन महाभारत के रचयिता, अतुलनीय सिद्ध कवि वेदव्यासजी को प्रणाम करता है। यह ज्ञान गुह्य योग इसलिये भी कहा गया है कि इसे समस्त योगों अर्थात कर्मयोग, सांख्य योग, बुद्धि योग, ज्ञान योग को यदि एक सूत्र में पिरो कर युक्ति सहित कोई प्रस्तुत कर सकता है, तो वह योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ही कर सकते है। योग का एक अर्थ युक्ति अर्थात अर्थ पूर्ण चिंतन ही है। क्योंकि गीता समस्त योग को एक सूत्र में पिरो रही है, इसलिये गीता शास्त्र स्वयं में भी एक योगशास्त्र ही है। संजय के आनन्द की कोई सीमा नहीं रही है। इसलिये वे हर्षोल्लास में भरकर कह रहे हैं कि इस योग में मैंने समस्त योगों के महान् ईश्वर साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से सुना है।

साक्षात् योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना ऐसी बात नहीं है कि संजय ने इसके पूर्व कभी औपनिषदिक ज्ञान को सुना ही नहीं था, जिससे वह इस अवसर पर विस्मयविमुग्ध हो जाय। उसके आनन्द का कारण यह था कि उसे इस ज्ञान का श्रवण करने का ऐसा अवसर मिला, जब साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही इस ज्ञान का उपदेश अपने मुखारविन्द से दे रहे थे।

यहाँ, पुनः संजय का प्रयत्न धृतराष्ट्र को यह सूचित करना है कि गीताचार्य श्रीकृष्ण कोई देवकीपुत्र गोपबाल ही नहीं थे वरन् वे सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही थे। स्वयं उन्होंने ने ही अर्जुन को मोहनिद्रा से जगाया था और वे अपने भक्त के रथ के सारथी के रूप में कार्य भी कर रहे थे। वह अन्ध राजा को स्मरण कराता है कि यद्यपि धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना पाण्डवों की सेना से अधिक विशाल और शास्त्रास्त्रों से सुसज्जित थी, तथापि उस का विनाश अवश्यंभावी था, क्योंकि उन्हें अपने शत्रुपक्ष में स्वयं अनन्त परमात्मा का ही सामना करना था।

परमात्मा के मुख से योगशास्त्र को सुन कर गदगद हो कर आगे संजय अपनी भावना को प्रकट करते हुए, आंख और बुद्धि से अंधे हुए, पुत्र मोह और लोभ, कामना और आसक्ति में डूबे धृतराष्ट्र को क्या संदेश देना चाहते  है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.75 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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