।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.68-69 II
।। अध्याय 18.68-69 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.68-69॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥ 68 ।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ 69 ।।
“ya idaḿ paramaḿ guhyaḿ,
mad-bhakteṣv abhidhāsyati..।
bhaktiḿ mayi parāḿ kṛtvā,
mām evaiṣyaty asaḿśayaḥ”।। 68 ।।
“na ca tasmān manuṣyeṣu,
kaścin me priya-kṛttamaḥ..।
bhavitā na ca me tasmād,
anyaḥ priyataro bhuvi”..।। 69 ।।
भावार्थ:
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है। उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उस से बढ़ कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ॥६८-६९॥
Meaning:
He who, having devotion to me, explains this supreme secret to my devotees, will reach me alone, no doubt. And compared to him, no one else among humans performs actions which are dear to me. Nor will there be anyone else on this earth dearer to me than him.
Explanation:
Previously, Shri Krishna described the tradition and method by which the Gita discourse should be handed down from the teacher to the student. He now describes the teacher who imparts this knowledge to society. He says that the foremost quality of the teacher is devotion to Ishvara, and only such a teacher can impart the real knowledge of the Gita to students, who are also devoted to Ishvara. The teacher should deliver the teaching in the spirit of karma yoga, in a spirit of service to Ishvara, not for name, fame or honour.
Shri Krishna says that teacher, the student and a casual listener all the three are dear to me and out of these three, a Gītā teacher is very very dear to me; because he is doing the work which I want to do. The opportunity to engage ourselves in devotion is a special blessing of God, but the opportunity to help others engage in devotion is an even bigger blessing, which attracts the special grace of God.
In return for their selfless service of teaching the Gita, Shri Krishna declares in no uncertain terms that the teacher will go to Ishvara, he will liberate from all sorrow. Praising the teacher, he says that there is no other person on this earth who does actions that are dearer than the action of teaching the Gita. He further says that the teacher becomes the dearest person, Ishvara. It is a status so special that it spans the past, present and future. In other words, this special position transcends all time, such is its greatness.
Why does Ishvara love the teacher so much? The teacher assists Ishvara in his mission to rid the world of ignorance. A teacher can assess the needs of the seeker and give him the guidance from the Gita needed for that particular situation of the seeker. Only a qualified teacher is able to do that, as opposed to someone randomly reading shlokas from the Gita. Furthermore, very few people are able to teach the true meaning of the Gita and convey to the student exactly what Ishvara wants to convey, without distorting anything.
King Janaka asked his guru, “The divine knowledge you have given me is so valuable that I am greatly indebted to you. What can I give you in return?” Guru Ashtavakra replied, “There is nothing that can free you from your debt. The knowledge I gave was divine and all that you have is material. Worldly things can never be the price of divine knowledge. But you can do one thing. If ever you find someone who is thirsty for this knowledge, share it with him.” Sri Krishna here says that he considers sharing the knowledge of the Bhagavad Gita to be the highest loving service to God.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान् श्रीकृष्ण इस विचाराधीन श्लोक में ज्ञान प्रदाता आचार्य की स्तुति करते हैं। जो आचार्य गीतोपदिष्ट ज्ञान की यथार्थ व्याख्या कर के श्रोतृ वर्ग को श्रीकृष्ण की जीवन पद्धति में प्रवृत्त कर सकता है, वही श्रेष्ठ उपदेष्टा है। आन्तरिक हो या बाह्य, अवगुण का नाश करो। यही भगवान् श्रीकृष्ण का प्रमुख सिद्धांत है। ऐसे शक्तिशाली सिद्धांत पर निर्मित संस्कृति का प्रचार करने के लिए केवल पाण्डित्य ही पर्याप्त नहीं, वरन् उस आचार्य में श्रीकृष्ण की क्षमता भी आवश्यक है। इसलिए वे श्रेष्ठ आचार्य को गौरवान्वित करते हैं। कोरा गीता का नित्य प्रतिदिन बिना समझे मंत्र जैसे पाठ करने से ज्ञान की प्राप्ति नही हो सकती। आचार्य जो मेरे में पराभक्ति कर के इस गीता को कहता है। इस का तात्पर्य है कि जो रुपये, मानबड़ाई, भेंटपूजा, आदरसत्कार आदि किसी भी वस्तु के लिये नहीं कहता, प्रत्युत भगवान् में भक्ति हो जाय, भगवद्भावों का मनन हो जाय, इन भावों का प्रचार हो जाय, इन की आवृत्ति हो जाय, सुन कर लोगों का दुःख, जलन, सन्ताप आदि दूर हो जाय, सन्ताप आदि दूर हो जाय, सब का कल्याण हो जाय – ऐसे उद्देश्य से कहता है। वही परमात्मा को प्रिय है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि गुरु, शिष्य और श्रोता तीनों ही मुझे प्रिय हैं और इन तीनों में गीता का शिक्षक मुझे बहुत प्रिय है; क्योंकि वह वही कार्य कर रहा है जो मैं करना चाहता हूँ। भक्ति में लीन होने का अवसर भगवान की विशेष कृपा है, लेकिन दूसरों को भक्ति में लगाने का अवसर उससे भी बड़ा वरदान है, जो भगवान की विशेष कृपा को आकर्षित करता है।
जिन की भगवान में श्रद्धा है, जो भगवान को समस्त जगत की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले, सर्वशक्तिमान और सर्वेश्वर समझ कर प्रेम करते है और जिन के चित्त में भगवान के गुण, प्रभाव, लीला और तत्व की बात सुनने और समझने की उत्सुकता रहती है, उन का वाचक मदभक्तेषु है। गीता श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, स्मरण और समर्पण का ग्रंथ है, इसलिए यह कथन वर्ण, जाति, आश्रम और ऊंच – नीच को त्याग कर सभी के गीता के पठन और पाठन की व्यवस्था कर दी गई है। इस ग्रंथ के पाठ में कोई यज्ञ – याग, मंत्र जाप या किसी प्रकार का विधि विधान की आवश्यकता नहीं है। मात्र शुद्धता, प्रेम और श्रद्धा चाहिए। विश्व का यही एक मात्र ग्रंथ है, जिस को युद्ध भूमि में अर्जुन की शंका के निवारण हेतु भगवान ने अपने वचनों से सुनाया।
हमारी संस्कृति में इसे ऋषि ऋण कहा गया है। इस ऋण से मुक्त होने के लिए हमें ऋषियों के उपदेश का अध्ययन तदनुसार आचरण एवं ग्रहण किये ज्ञान का अध्यापन करना चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है। दर्शन ही प्रत्येक संस्कृति का अधिष्ठान होता है। हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान एवं गौरवमय पुनर्प्रतिष्ठान तभी संभव होगा, जब उपनिषदों से प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के द्वारा वह पोषित की जायेगी। हमारी संस्कृति के जनक, महान् ऋषिगण इस रहस्य को जानते थे। इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से इस ज्ञान का प्रचार करने के लिए सदैव आग्रह किया है। केवल इसी माध्यम से सामान्य जनों के हृदय को ज्ञानालोक से आलोकित किया जा सकता है।
राजा जनक ने अपने गुरु से पूछा था, “आपने मुझे जो दिव्य ज्ञान दिया है, वह इतना मूल्यवान है कि मैं आपका बहुत ऋणी हूँ। बदले में मैं आपको क्या दे सकता हूँ?” गुरु अष्टावक्र ने उत्तर दिया, “ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको आपके ऋण से मुक्त कर सके। मैंने जो ज्ञान दिया वह दिव्य था और आपके पास जो कुछ भी है वह भौतिक है। सांसारिक वस्तुएँ कभी भी दिव्य ज्ञान की कीमत नहीं हो सकतीं। लेकिन आप एक काम कर सकते हैं। यदि कभी आपको कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो इस ज्ञान का प्यासा हो, तो उसे इसे बाँटें।” श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि वे भगवद्गीता के ज्ञान को बाँटना भगवान को दी जाने वाली सर्वोच्च प्रेमपूर्ण सेवा मानते हैं।
जो पुरुष गीता के सिद्धांतों का उपदेश देने में समर्थ है, उसका यहाँ अभिनन्दन करते हैं और उसे सर्वोच्च पुरस्कार का आश्वासन देते है कि वह, निसन्देह, मुझे प्राप्त होगा।
राजा जनक ने अपने गुरु से पूछा था, “आपने मुझे जो दिव्य ज्ञान दिया है, वह इतना मूल्यवान है कि मैं आपका बहुत ऋणी हूँ। बदले में मैं आपको क्या दे सकता हूँ?” गुरु अष्टावक्र ने उत्तर दिया, “ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको आपके ऋण से मुक्त कर सके। मैंने जो ज्ञान दिया वह दिव्य था और आपके पास जो कुछ भी है वह भौतिक है। सांसारिक वस्तुएँ कभी भी दिव्य ज्ञान की कीमत नहीं हो सकतीं। लेकिन आप एक काम कर सकते हैं। यदि कभी आपको कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो इस ज्ञान का प्यासा हो, तो उसे इसे बाँटें।” श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि वे भगवद्गीता के ज्ञान को बाँटना भगवान को दी जाने वाली सर्वोच्च प्रेमपूर्ण सेवा मानते हैं।
सम्पूर्ण गीता में अनेक स्थानों पर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दोहराया गया है कि ध्येयवस्तु से भिन्न समस्त वृत्तियों का परित्याग करके यदि कोई साधक अपने मन को ध्येयवस्तु में एकाग्र या समाहित कर लेता है, तो वह स्वयं ध्येयस्वरूप बनकर अनन्त आत्मा का अनुभव कर सकता है। जो साधक गीता के अध्ययन और चिन्तनमनन में ही अपने समय का सदुपयोग करता है तथा उसी का प्रचार प्रसार करता है, तो उसके मन में उस ज्ञान के प्रति अत्यधिक आदर और सम्मान जागृत होता है। फलत, वह उसके सारतत्त्व से तादात्म्य करके परम शान्ति का अनुभव करता है, जो परमात्मा का स्वरूप ही है। इसलिए, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं ऐसे पुरुष से बढ़कर मेरा कोई प्रिय नहीं है क्योंकि वह ईश्वर के स्वरूप के ज्ञान का प्रचार करता है। इससे अधिक मेरा अतिशय प्रिय कार्य कोई नहीं है।
इस सन्दर्भ में, यह ध्यान रहे कि गीताज्ञान के प्रचार के लिए हमें स्वयं उस में पूर्ण प्रवीणता प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ ज्ञान हम ग्रहण कर पाते हैं, उस का तत्काल ही प्रेमपूर्वक प्रचार ऐसे लोगों में करना चाहिए, जो इस विषय से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। प्रचार के साथ ही, हमें इस ज्ञान के अनुसार ही जीवन यापन करना चाहिए।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
भावार्थ: धर्म परोपकार, दान सेवा करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उस का जल घटना नहीं। धर्म कर के स्वयं देख लो। वस्तुत: यह सत्य है ज्ञान को छुपा कर रखने से ज्ञान लुप्त होता है और बाटने और आपस में चर्चा करने से बढ़ता है। गीता जितनी भी बार पढ़ी या सुनी जाए, सदैव अधिक स्पष्ट और ज्ञान वृद्धि में कहने वाले और सुनने वाले दोनो के ज्ञान की वृद्धि में सहायक होती है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण पूर्व श्लोक में अयोग्य लोगो को ज्ञान नही देने की बात करते है, इस श्लोक में योग्य व्यक्ति को ज्ञान बाटनेवाला और सुनने के इच्छुक लोगो को अपना प्रिय बतलाते है। वे कहते है कि ऐसा पुरुष मुझे अतिशय प्रिय है। यह भगवान् श्रीकृष्ण का आश्वासन है।
यहां समझने योग्य यह भी है कि भगवान ने जिस ज्ञान को अर्जुन को दिया, वह अत्यंत ही गुप्त ज्ञान था, उस गुह्य ज्ञान को कोई भी आम व्यक्ति को बताने लगे तो उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं होगा। इससे गुह्य ज्ञान इसलिए भी कहा है कि गीता हम जितनी बार पढ़ते है हमारा ज्ञान उतना ही बढ़ता है और जब तक आत्मशुद्धि न हो जाए, यह ज्ञान पूर्णतः समझ में भी नहीं आता और इसलिए ज्ञानी शिक्षक को भी आत्मशुद्ध हो कर ज्ञान देने को कहा है।
जिस में गीता का प्रचार करने की योग्यता नहीं है, वह क्या करे इस को भगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18. 68-69 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)