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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.65 II

।। अध्याय      18.65 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.65

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

“man- manā bhava mad- bhakto,

mad-yājī māḿ namaskuru..।

mām evaiṣyasi satyaḿ te,

pratijāne priyo ‘si me”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है ॥६५॥

Meaning:

Fix your mind on me, become devoted to me, worship me, bow to me. You will reach me. This truth I declare to you, for you are dear to me.

Explanation:

These two verses 65 and 66 are the final summary of the Gītā, considered to be one of the important slokas.  Previously he had several verses to summarise to karma yōga; and several verses to summarise to jñāna yōga. Now, 65th verse summarises karma yōgaḥ; and 66 verses summarises jñāna yōgaḥ. In this karma yōga summary, Krishna tells a God- cantered lifestyle is karma yōga. An active God- cantered lifestyle in which I contribute to the Society; which is the first stage of life; an active God- cantered lifestyle in which I contribute to the society without any expectation of return of reward but sake of my duty.

The whole of the Gita comprises a comprehensive curriculum of spirituality. It is applicable for all kinds of seekers at all stages in their spiritual pursuit. A detailed study of the Gita requires several lifetimes. But, from a practical standpoint, is that aspect of the Gita that will benefit the majority of seekers who are stuck in the trappings of material world, not knowing how to take the first step. With this in mind, Shri Krishna provides a four-point summary of the Gita.

 The first point, and the main point, is that the seeker should fix their mind on Ishvara. How can this happen? The second point states that the seeker should become devoted to Ishvara. Devotion here means that the seeker’s actions and speech should support the mind in its attempt to fix itself on Ishvara. This will only happen when the entire day is filled with worship of Ishvara through one’s actions, which is the third point. If no actions are being performed, then the seeker can simply bow to Ishvara in reverence, which is the fourth point.

 In the Srimad Bhaagavatam, when the great devotee Prahlad was asked by his father, the demon Hiranyakashipu, to reveal what he had learned in his school, Prahlad listed the nine-fold aspects of bhakti, which is in line with this shloka. The nine forms of bhakti are hearing the name of Ishvara, repeating the name of Ishvara, remembering Ishvara, serving the feet of Isvhara, worshipping Ishvara, praising Ishvara, looking upon Ishvara as a master, treating Ishvara as a friend, and surrendering to Ishvara wholeheartedly.

।। हिंदी समीक्षा ।।

ये दो श्लोक 65 और 66 गीता का अंतिम सारांश है, जिसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक माना जाता है। पहले उनके पास कर्म योग को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए कई श्लोक थे और ज्ञान योग को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए भी कई श्लोक थे। अब, 65वाँ श्लोक कर्म योग का सारांश प्रस्तुत करता है और 66वाँ श्लोक ज्ञान योग का सारांश प्रस्तुत करता है। इस कर्म योग सारांश में, कृष्ण कहते हैं कि ईश्वर-केंद्रित जीवनशैली ही कर्म योग है। एक सक्रिय ईश्वर-केंद्रित जीवनशैली जिसमें मैं समाज में योगदान देता हूँ; जो जीवन का पहला चरण है। एक सक्रिय ईश्वर-केंद्रित जीवनशैली जिस में मैं बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के, बल्कि अपने कर्तव्य के लिए समाज में योगदान देता हूँ।

गीता के अंतिम अत्यंत गुप्त एवम आत्मीय ज्ञान के मार्ग में जीव को अपने ब्रह्म स्वरूप से परिचय कराना है, जिस के लिये भक्तिमार्ग का उपदेश देश हुए भगवान श्री कृष्ण कहते है कि तू मुझ में मनवाला अर्थात् मुझ में चित्तवाला हो, मेरा भक्त अर्थात् मेरा ही भजन करनेवाला हो और मेरा ही पूजन करनेवाला हो तथा मुझे ही नमस्कार कर अर्थात् नमस्कार भी मुझे ही किया कर। इस प्रकार करता हुआ अर्थात् मुझ वासुदेव में ही ( अपने ) समस्त साध्य, साधन और प्रयोजन को समर्पण कर के तू मुझे ही प्राप्त होगा। इस विषय में मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा प्रिय है। कहने का अभिप्राय यह है कि इस प्रकार भगवान् को सत्यप्रतिज्ञ जानकर तथा भगवान् की भक्तिका फल निःसन्देह  ऐकान्तिक मोक्ष है, यह समझकर मनुष्य को केवल एकमात्र भगवान् की शरण में ही तत्पर हो जाना चाहिये।

आध्यात्मिक उपदेश देने में प्रेम की भावना ही समीचीन उद्देश्य है। शिष्य के प्रति प्रेम न होने पर, गुरु के उपदेश में न प्रेरणा होती है और न आनन्द। एक व्यावसायिक अध्यापक तो केवल वेतनभोगी होता है। ऐसा अध्यापक न अपने विद्यार्थी वर्ग को न प्रेरणा दे सकता है और न स्वयं अपने हृदय में कृतार्थता का आनन्द अनुभव कर सकता है, जो कि अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार है। किंचित परिवर्तन के साथ यह श्लोक इस के पूर्व भी एक अध्याय में आ चुका है। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि वे विशुद्ध सत्य का ही प्रतिपादन कर रहे हैं।

भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सर्वेश्वर, अति सौंदर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यवान आदि गुणों के समुन्दर समझ कर अनन्य प्रेमपूर्वक निश्चल भाव से मन को भगवान में लगा देना, क्षण भर के लिए भी भगवान की विस्मृति को न सह सकना हो कर भगवान के मनवाला हो जाना है।

भगवान को एकमात्र अपना भर्ता, स्वामी, संरक्षक, परमगति और परम आश्रय समझ कर उन की अधीनता मानते हुए भक्त होना है।

जब गुरु अपने शिष्य को गहन ज्ञान देता है तो उस का स्नेह भी रहता है। हम जिस को अपना आदर्श मानते है उस के प्रति पूर्ण समर्पण हमे उस के गुणों की ओर खींच लेता है। महापुरुषों के चरित्र मात्र पढ़ने से ही व्यक्तित्व में बदलाव देखा गया है तो परब्रह्म को समर्पण करने से, परब्रह्म के गुणों से अभय की प्राप्ति सुनिश्चित है। श्री शंकराचार्य जी कहते हैं, कर्मयोग की साधना का परम रहस्य ईश्वरार्पण बुद्धि है।

इस प्रकार समाज के सब लोगो के लिए मोक्ष के दरवाजे को खोल देने से गीता ने नई सामाजिक चेतना को जन्म दिया। परमात्मा भाव का – प्रेम का भूखा है, इसलिए क्या काला और क्या काला, क्या स्त्री और क्या पुरुष, क्या ब्राह्मण और क्या चांडाल किसी भी वर्ण, आश्रम का जन, सभी के लिए मुक्ति का मार्ग भगवान ने खोल दिया। अध्याय नवम में गीता में यह सिद्धांत दिया गया है कि मनुष्य कितना भी बुरा और दुराचारी क्यों न हो, परंतु अंत काल में भी यदि वह अनन्य भाव से भगवान की शरण में जावे तो परमेश्वर उसे नही भूलता। क्राइस्ट के साथ दो चोरों को भी जब सूली पर चढ़ाया गया था, तो उस में एक चोर क्राइस्ट की शरण गया और सद्गति प्राप्त की। भगवान बुद्ध ने भी आम्रपाली नामक वैश्या और अंगुलिमार नामक चोर को दीक्षा दी थी। राम से युद्ध करने वाले राक्षसों में को मरते हुए राम की शरण गया, भगवान ने उस का उद्धार किया। इसलिए गीता का उपसंहार में अत्यंत गुह्यतम ज्ञान भक्ति भाव से भगवान को स्मरण करते हुए अपने कर्म करना चाहिए और उन्हें परमात्मा को समर्पित करना चाहिए।

गीता का सिद्धांत है कि मनुष्य कितना और कैसा भी दुराचारी क्यों न हो, परंतु अंतकाल में भी वह अनन्य भाव से भगवान की शरण जावे तो परमेश्वर उसे नही भूलता। किंतु अंत समय कौन सा है, फिर उस समय साम्य बुद्धि होना और मुख से “राम” या परमेश्वर को किसी भी अन्य नाम से पुकारा जाना कैसे संभव है?भगवान की शरण जाने की कोई उम्र नहीं होती। मनुष्य को जीवन पर्यंत ही सदाचार का पालन करते हुए कर्म करना चाहिए और परमात्मा की शरण में रहना चाहिए।

गीता के उपसंहार में उपनिषदों का ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान आबाल वृद्ध, वैश्या, शुद्र से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि के समान रूप से बिना वर्ण, आश्रम, जाति – पांति अथवा स्त्री – पुरुष के भेद के खोल दिया है। इसलिए जो भी भगवान के मनवाला होगा, उस श्रद्धा, विश्वास, प्रेम से समर्पित होगा, उस की रक्षा का भार परमात्मा उठाते है, यह हम अध्याय नौ में पढ़ भी चुके है, इसे ही पुनः स्थापित किया है।

कहने का अभिप्राय यह है कि इस प्रकार भगवान् को सत्यप्रतिज्ञ जानकर तथा भगवान् की भक्ति का फल निःसन्देह, सभी उपनिषदों का सार, ऐकान्तिक मोक्ष है – यह समझकर, मनुष्य को केवल एकमात्र भगवान् की शरण में ही तत्पर हो जाना चाहिये।

भक्ति का यह मार्ग कर्मयोगी के लिए प्रतिपादित है, क्योंकि इस मार्ग पर चलने को कहने वाले भगवान अर्जुन को युद्ध भूमि त्याग कर भजन कीर्तन को नही कहते।

भक्तिपूर्ण पूर्ण समर्पण की साधना के विषय का उपसंहार करने के पश्चात्, अब कर्मयोग के फलभूत आत्मदर्शन का वर्णन करना शेष है, जो समस्त उपनिषदों का सार है, अत भगवान् क्या कहते हैं, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.65।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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