।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.63 II
।। अध्याय 18.63 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.63॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
“iti te jñānam ākhyātaḿ,
guhyād guhyataraḿ mayā..।
vimṛśyaitad aśeṣeṇa,
yathecchasi tathā kuru”..।।
भावार्थ:
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर ॥६३॥
Meaning:
In this manner, I have declared that knowledge to you which is most secret among all secrets. Reflect on this fully, then do as you desire.
Explanation:
Mystery is knowledge which is beyond the reach of most people. Most of the laws of physics were secret until a few centuries ago and many still remain secret. Spiritual knowledge is profound and cannot be obtained through direct perception. It needs to be learned through the Guru and the scriptures. Therefore, it is described as secret. In the second chapter Sri Krishna revealed the knowledge of the soul, which is guhya or secret knowledge. In the seventh and eighth chapters He explained the knowledge of His powers, which is guhyatar or more secret. In the ninth and subsequent chapters He revealed the knowledge of His devotion, which is guhyatam or most secret. In verse 55 of the present chapter, He explained that He can be known in His personal form only through devotion.
Here Krishna says: Arjuna I am not going to decide for you. My aim is educating you and not to command you; and therefore, etat aśeṣeṇa vimṛśya; whatever I have taught you analyse; and you find out where you stand in spiritual ladder; because the decision will depend upon the level the spiritual level of the person; until citta śuddhi, karma is important. After citta śuddhi, one has to gradually reduce karma; whether I should do more karma, or more vēdāntic study; is not a uniform advice, since the level of the student vary; one person should increase the karma whereas the other should decrease the karma.
We have come across the word “iti” several times in the Gita discourse. It is always used to conclude a chapter, and also to conclude a major theme or topic. Here, Shri Krishna uses this word to inform Arjuna that the Gita discourse has concluded with this shloka. We have to note that the Gita is but one portion of the Mahabharata epic. So the shlokas that follow this one are used to summarize the main teaching, and to link back to the conversation between Sanjaya and Dhritarashtra.
Shri Krishna also emphasizes the most secret aspect of this text. We have to understand the implication of the word secret here carefully. The Gita is by no means an exclusive text. There are several commentaries, including this one, that are freely available on the web. Most people will not approach the Gita due to their preconceived notions. Some think it is outdated; some think it is impractical and so on. Only a few people are interested in the Gita, and of those, fewer still are willing to understand and change their approach to life based on it.
This free will to choose from the available options is given to the soul by God. Freedom of choice is not infinite. One cannot decide, “I want to be the most intelligent person in the world.” Our choices are limited by our past and present actions. However, we do have a certain amount of free will, because we are not machines in the hands of God. Sometimes people question that if God had not given us free-will we would not do any bad deed. But then we would not be able to do any good either. The opportunity to do good always comes with the danger of doing evil. More importantly, God wants us to love Him, and love is possible only when there is a choice. A machine cannot love because it has no freedom of choice. God has created us with free will and has given us choices so that we can choose them and thus show our love to Him. Even the Almighty God cannot force the soul to love and submit to Him; this decision has to be made by the soul itself. Here, Krishna is drawing Arjuna’s attention to his free will and asking him to make a choice.
For any spiritual teaching to have an impact on our lives, it has to go through three steps. Shravana is actively listening to the text through a qualified teacher. Manana is reflection on the teaching, with a view to resolve all doubts or gaps in logic. Nidhidhyaasana is meditation and constant contemplation, with a view to assimilate that teaching completely. Many seekers are enthusiastic listeners, but they make the mistake of skipping the second step. In doing so, they are not able to see the value of the teaching in their own lives. Shri Krishna stresses the importance of reflection to Shri Krishna. He also gives Arjuna the freedom to apply the teaching based on this understanding born of out of reflection, instead of taking it at face value.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गीता के ज्ञान का यह अंतिम श्लोक गहन अर्थ के साथ दिया है। भगवान श्री कृष्ण कहते है कि मुझ सर्वज्ञ ईश्वर ने तुझ से यह गुह्य से भी गुह्य अत्यन्त गोपनीय रहस्ययुक्त ज्ञान कहा है। इस ज्ञान की इति यही है, इस उपर्युक्त शास्त्र को अर्थात् ऊपर कहे हुए समस्त अर्थ को पूर्णरूप से विचार कर इस के विषय में भलीप्रकार आलोचना कर के, तेरी जैसी इच्छा हो वैसे ही कर।
सार गर्भित वेदों और उपनिषदों के गांभीर्य को ले कर भगवान द्वारा अर्जुन को जो गुह्यतम ज्ञान दिया गया, यह उस के समापन की बात इस श्लोक द्वारा “इति” द्वारा कही गई है।
रहस्य वह ज्ञान है जो अधिकांश लोगों की पहुँच से बाहर है। भौतिक विज्ञान के अधिकांश नियम कुछ शताब्दियों पहले तक गुप्त थे और कई अभी भी गुप्त बने हुए हैं। आध्यात्मिक ज्ञान गहन है और प्रत्यक्ष धारणा के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसे गुरु और शास्त्रों के माध्यम से सीखने की आवश्यकता है। इसलिए इसे गुप्त बताया गया है। दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने आत्मा का ज्ञान प्रकट किया था, जो गुह्य या गुप्त ज्ञान है। सातवें और आठवें अध्याय में उन्होंने अपनी शक्तियों का ज्ञान समझाया, जो गुह्यतर या अधिक गुप्त है। नौवें और उसके बाद के अध्यायों में उन्होंने अपनी भक्ति का ज्ञान प्रकट किया , जो गुह्यतम या सबसे गुप्त है। वर्तमान अध्याय के श्लोक 55 में उन्होंने बताया कि उन्हें उनके व्यक्तिगत रूप में केवल भक्ति के द्वारा ही जाना जा सकता है ।
ज्ञान सन्देह रहित तथा विपर्यय (मिथ्या धारणाओं) से रहित होना चाहिए। इसलिए, आचार्य से प्राप्त किये गये ज्ञान पर युक्तियुक्त मनन और चिन्तन करने की आवश्यकता होती है। प्रत्येक साधक को स्वयं ही मनन करके प्राप्त ज्ञान की सत्यता का निश्चय करना होता है। भगवान् श्रीकृष्ण नहीं चाहते कि अर्जुन उनके उपदेश को विचार किये बिना ही स्वीकार कर ले। इसलिए, यहाँ वे कहते हैं, इस पर पूर्ण विचार करके, जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा तुम करो। यथेच्छसि तथा कुरु भगवान् श्रीकृष्ण, कर्मयोग की जीवनपद्धति को स्वीकार करने के विषय में अन्तिम निर्णय अर्जुन पर ही छोड़ देते हैं।
गणित के प्राध्यापक द्वारा अपने प्रिय शिष्य द्वारा जब किसी प्रश्न का हल नही निकलता तो वह उसे उस के नियम, फार्मूले, प्रमेय आदि सब समझाता है जिस से वह उस प्रश्न को हल कर सके और उसे प्रश्न को हल करने के लिये कहता है। इस का सीधा अर्थ यही है जिस ज्ञान को गुरु ने दिया है उस को शिष्य अपनी बुद्धि, विवेक एवम मेहनत से हल करें, तांकि भविष्य में भी कोई शंका न रहे। सीधे सीधे प्रश्न को हल कर देने से उस प्रश्न के गूढ़ तत्व का पता नही रहता और यदि वही प्रश्न थोड़ा घूम कर वापस आ जाये तो शिष्य हल नही कर सकेगा।
अतः भगवान श्री कृष्ण किसी भी जीव की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन नही करते, वह कहते है यह गहन ज्ञान मैंने तुम्हें दिया है, जिस में ब्रह्मभूत, कर्मयोग एवम भक्तियोग सभी है, इसलिये अब युद्ध भूमि में अर्जुन तुम स्वयं फैसला करो कि तुम्हे कर्तव्य धर्म के अनुसार युद्ध करना है कि युद्ध त्याग करते हुए पलायन करना है।
माता-पिता, गुरु एवम श्रेष्ठ जन कभी अपने निर्णय अपने बच्चों या शिष्यों पर नही थोपते, वह मार्ग बताते है कि सत्य व असत्य क्या है, वह उसे निर्णय किस प्रकार लेना चाहिये यह भी बताते है, वह निर्णय के परिणाम एवम दुष्परिणाम के प्रति सचेत भी करते है किंतु निर्णय लेने के बच्चों या शिष्य को ही उत्साहित करते है।
यहाँ कृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन! मैं तुम्हारे लिए निर्णय नहीं करने जा रहा हूँ। मेरा उद्देश्य तुम्हें शिक्षित करना है, तुम्हें आदेश देना नहीं और इसलिए मैंने जो कुछ भी तुम्हें सिखाया है उसका विश्लेषण करो और तुम पाओ कि तुम आध्यात्मिक सीढ़ी पर कहाँ खड़े हो, क्योंकि निर्णय व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करेगा।” चित्त शुद्धि तक, कर्म महत्वपूर्ण है। चित्त शुद्धि के बाद, व्यक्ति को धीरे-धीरे कर्म कम करना होता है। चाहे मुझे अधिक कर्म करना चाहिए, या अधिक वेदांतिक अध्ययन करना चाहिए; यह एक समान सलाह नहीं है, क्योंकि छात्र का स्तर अलग-अलग होता है। एक व्यक्ति को कर्म बढ़ाना चाहिए जबकि दूसरे को कर्म कम करना चाहिए।
रामायण में यह भगवान राम ने जब मानव जीवन का उद्देश्य और उसे प्राप्त करने का तरीका समझाया। अंत में उन्होंने कहा:
नहिं अनिति नहिं कछु प्रभुताइ, सुनहु करहु जो तुमहि सोहै। (रामायण) [v35]
“मैंने जो सलाह तुम्हें दी है, वह न तो गलत है और न ही जबरदस्ती वाली। इसे ध्यान से सुनो, इस पर विचार करो और फिर जो चाहो करो।”
भगवान श्री कृष्ण के कथन का अर्थ यही है कि ज्योही तू इस ज्ञान को समझ लेगा, त्योंही तू स्वयं प्रकाशवान हो जाएगा और प्रकाशवान होने से जो भी कर्म तुम अपनी इच्छा से करेगा, वही धर्मयुक्त, सत्य एवम प्रमाणित होगा। तुम स्वयं स्थितप्रज्ञ की उस अवस्था को प्राप्त हो जाओगे, जहां इच्छा के साथ किये कार्य रोकने की आवश्यकता नही रहेगी।
यह ठीक वैसा ही है जैसे गणित के सूत्र जिस शिष्य ने सही समझ लिए, वह किसी भी गणित के प्रश्न का हल निकाल सकता है। ज्ञान एवम भक्ति द्वारा जहां बुद्धि साम्य अवस्था मे जब पहुंच जाती है तो कोई बुरी इच्छा रहती ही नही है, उस स्थिति में इच्छा स्वातंत्र्य से किया कार्य कर्तव्य धर्म का ही होता है।
व्यवहारिक जगत में अपनी शंकाओं के निर्मूलन के आज के युग मे शिष्य अपनी धारणाओं, कामनाओं एवम इच्छाओं के साथ ही किसी गुरु के पास जाता है, इसलिये जो उस के अनुकूल होता है, वह स्वीकार करता है एवम जो प्रतिकूल होता है उसे अस्वीकार कर देता है। अर्जुन की भांति पूर्णतयः समर्पित भाव से शायद ही कोई गुरु के उपदेश को सुनता है। ऐसे समय मे पूर्णतः ममत्व एवम ज्ञान पूर्वक बात कहने पर भी, गुरु को या माता-पिता को यह विश्वास नही रहता कि सुनने वाला उन की बात को मान लेगा। अतः स्वयं में इस बात का कोई दुख न रहे, शायद भविष्य को देखते हुए भगवान ने अर्जुन को स्वतंत्र कर दिया कि तुम्हें जो उचित लगे करो। जिस से गुरु या माता-पिता द्वारा पुत्र या शिष्य के अनुचित कार्य करने से संताप से बचे रहे। भला सिर्फ ज्ञान देने से ही, बिना मनन और चिंतन किये स्वीकार करने से कोई शिष्य या पुत्र सत्य एवम कर्तव्य धर्म के रास्ते पर आ जाता तो दुनिया मे लोभ, मोह एवम स्वार्थ रहता ही नही।
जो तेरी इच्छा हो, सो कर। किसी कारखाने में मैनेजर की योग्यता, उस का कार्य के प्रति समर्पण, कार्य की शैली पर जब मालिक को पूर्ण विश्वास हो जाता है, तो यह वाक्य वह उस मैनेजर से कहता है कि इस कारखाने को चलाने के लिए वह स्वतंत्र है, वह अब विचार कर के निर्णय ले, उसे बार बार उस के पास आने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात निर्णय की स्वतंत्रता योग्यता, समर्पण और ज्ञान के आधार पर दी जाती है। गीता का संपूर्ण ज्ञान देने के बाद अर्जुन भी अब अपने मिथ्या भ्रम, अज्ञान और अहंकार से परे हो गया है, इसलिए उस में को युद्ध नही करने का जो निर्णय लिया है, वह उस पर पुनः विचार कर के निर्णय ले। क्योंकि जब तक निर्णय व्यक्तिगत तौर पर नही लिया जाता, तब तक मनुष्य उस निर्णय को अंतिम परिणाम तक पहुंचाने के लिए कर्तव्य बंध नही महसूस करता।
यद्यपि प्रकृति ही सब कुछ करती है और जीव उस के निमित्त हो कर कर्म करता है। किंतु कर्म के अधिकार में कर्म के लिए निर्णय या इच्छा का अधिकार जीव के पास है। इस लिए, कर्म के मार्ग में उपलब्ध विकल्पों में से चुनने की यह स्वतंत्र इच्छा आत्मा को ईश्वर द्वारा वे दी गई है। चुनाव की स्वतंत्रता अनंत नहीं है। कोई यह निर्णय नहीं ले सकता कि, “मैं संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति बनना चाहता हूँ।” हमारे चुनाव हमारे भूतकाल और वर्तमान कर्मों द्वारा सीमित हैं। हालाँकि, हमारे पास एक निश्चित मात्रा में स्वतंत्र इच्छा है, क्योंकि हम ईश्वर के हाथों में मशीन नहीं हैं। कभी-कभी लोग सवाल करते हैं कि यदि ईश्वर ने हमें स्वतंत्र इच्छा नहीं दी होती तो हम कोई बुरा काम नहीं करते। लेकिन तब हम कुछ अच्छा भी नहीं कर पाते। अच्छा करने का अवसर हमेशा बुराई करने के खतरे के साथ आता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ईश्वर चाहते हैं कि हम उनसे प्रेम करें, और प्रेम तभी संभव है जब कोई विकल्प हो। एक मशीन प्रेम नहीं कर सकती क्योंकि उसके पास चुनाव की कोई स्वतंत्रता नहीं है। ईश्वर ने हमें स्वतंत्र इच्छा के साथ बनाया है और हमें विकल्प दिए हैं ताकि हम उन्हें चुन सकें और इस प्रकार उनके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन कर सकें। सर्वशक्तिमान ईश्वर भी आत्मा को प्रेम करने और उनके प्रति समर्पण करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता; यह निर्णय आत्मा को ही करना होता है। यहाँ, श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान उसकी स्वतंत्र इच्छा की ओर आकर्षित कर रहे हैं और उसे चुनाव करने के लिए कह रहे हैं।
ज्ञान या भक्ति से जहां बुद्धि साम्य अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तो वह बुद्धि कामना और आसक्ति, लोभ, स्वार्थ आदि किसी भी बुरी या अहितकर कार्य को नही कर सकती। अतः यह वह स्थिति है जहां मनुष्य को इच्छा स्वतंत्र्य अर्थात इच्छा की स्वतंत्रता प्राप्त है। स्थितप्रज्ञ की इच्छा को रोकने का आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वह जो भी इच्छा करेगा, वह धर्म प्रमाणित ही होगी। इसलिए अर्जुन को भी अपनी इच्छा से कर्म की स्वतंत्रता ज्ञानोपदेश के बाद दी गई है।
महृषि व्यास जी ने महाभारत में गीता के द्वारा मानव जीवन का अद्भुत ज्ञान रचा है, जिस की संसार मे लगभग हर भाषा मे व्याख्या भी हुई है। बहुत से लोग इसे पढ़ते है और उस से ज्यादा नही पढ़ते। इसको कई बार आधा अधूरा भी सुना या पढ़ा जाता है। अतः इस उत्कृष्ट ज्ञान को संसार के समक्ष रख कर महृषि व्यास जी ने भगवान श्री कृष्ण के माध्यम से यह संदेश भी स्पष्ट रूप से दे दिया कि जो उत्कृष्ट ज्ञान उन्होंने संसार के हर वर्ग के प्राणी के रखा है, यह उस की मर्जी है कि उसे पढे, समझे और अपना जीवन उन्नत करे या फिर सांसारिक मोह, माया, कामना, लोभ एवम अहम में जीवन व्यतीत करता रहे। अज्ञान में जीवन व्यतीत करने वाला प्राणी कभी नही जान सकता कि इस सृष्टि में उस की भूमिका क्या है, वह जन्म लेता है, कर्म करता है, उस के फलों को भोगता है और मृत्यु को प्राप्त हो कर पुनः कर्मो को भोगने जन्म लेता है। ज्ञान के अभाव में उसे यही संसार ही सत्य लगता है। जिस ने समुन्दर नही देखा वो तलैया को ही समुन्दर मानता है। आध्यात्मिक मूल्य जिस ने जाना वही संसार मे मार्गदर्शक भी होता है एवं मोक्ष को भी प्राप्त होता है। महृषि व्यास जी यही बात गीता में “इति” के साथ सांसारिक लोगो के लिये छोड़ दी।
क्योंकि गुरु का शिष्य पर अत्यंत प्रेम होता है, इसलिये शिष्य को इस प्रकार कहना उसे उस का त्याग देना न लगे, इसलिये भगवान आगे अर्जुन से क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.63 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)