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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.59 II

।। अध्याय      18.59 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.59

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥

“yad ahańkāram āśritya,

na yotsya iti manyase..।

mithyaiṣa vyavasāyas te,

prakṛtis tvāḿ niyokṣyati”..।।

भावार्थ: 

जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा ॥५९॥

Meaning:

Relying on that egoism, you think – I will not fight. This determination of yours is wrong. Your nature will compel you.

Explanation:

Right at the beginning of the Mahabharata war, when Arjuna asked Shri Krishna whether to fight or not, Shri Krishna could have given the answer right away. But he decided to deliver the discourse of the Gita instead, not just for Arjuna’s benefit but for the benefit of all future seekers. Having done so, he now vehemently points out the flaw in Arjuna’s decision.

Speaking in a chastising mood, Shree Krishna now delivers a word of caution. He says, in crystal clear language, that the decision to not fight is wrong. It is purely ego-driven and not in line with Arjuna’s duty as a warrior. We should not think we have complete liberty to do what we wish. The soul does not lead an independent existence; it is dependent upon God’s creation in many ways. In the materially bound state, it is under the influence of the three guṇas. The combination of guṇas creates our nature, and according to its dictates, we are compelled to act. Hence, we do not have absolute freedom to say, “I will do what I desire.” We have to choose between the good advice of God and the scriptures or the compulsions of our nature.

In our personal experience, we come across stories of children who were misfits in their families and communities simply because their prakriti, their nature, their samskaras, were completely different. A family of doctors cannot get along with their son because he wants to become a musician. A family of traders is upset because their daughter wants to join the government civil service. Such conflict is a cause of endless frustration for families across the board, and there is no easy solution, because it is hard to change one’s mental makeup.

Why do parents want to foist its career path onto their children? It is purely due to ego. Parents have a strong sense of mine-ness with regards to their children. They prefer not to think of their children as independent entities. The egos of parents derive strength from this sense of mine-ness and insist that they have the power to reshape the destiny of their children. Similarly, Arjuna also assumed that he could override his nature as a warrior and become a monk. Shri Krishna reminded him that his inherent nature as a warrior would compel him to fight, and that he should reconsider his decision.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जीव एवम प्रकृति का सम्बन्ध कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से अहंकार को ले कर जुड़ा है। जीव परब्रह का अंश है अतः अकर्ता एवम साक्षी है तो समस्त क्रियाएं इस संसार मे प्रकृति करती है, जीव का अहम जुड़े होने से वह उसे अपनी मानता है। इसी अहम से वह अपने को कर्ता मानता है, जब की क्रियाशील उस के साथ जुड़ी प्रकृति है। इसलिए प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कार्य करती है और वहीं जीव का स्वभाव हो जाता है। जब तक उस के गुणों में परिवर्तन न हो और स्वभाव में परिवर्तन न हो, जीव अपने कर्म स्वभाव से ही करेगा। इससे कुछ स्वभाव जन्म से होते है जो उस जीव के पूर्व जन्म के कर्म के फल से आते है। इसलिए यदि कोई व्यापारिक बुद्धि का व्यक्ति सन्यास भी ले ले तो वह त्याग की अपेक्षा आश्रम बना कर अपना संघ ही बनाएगा और उस आश्रम के द्वारा व्यापार करने लग जाएगा।

भगवान श्री कृष्ण पूर्व श्लोक में निर्देश देते है और अब चेतावनी देते हुए कहते है कि यदि तू अहंकार का आश्रय ले कर सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा तो यह मानना तुम्हारा अहंकार मात्र ही है।  हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें अपनी इच्छानुसार कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता है। आत्मा स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखती; यह कई तरह से भगवान की रचना पर निर्भर है। भौतिक रूप से बंधी हुई अवस्था में यह तीन गुणों के प्रभाव में रहती है। गुणों का संयोजन हमारे स्वभाव का निर्माण करता है और उसके अनुसार हमें कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है। इसलिए हमें यह कहने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है कि, “मैं जो चाहूँ करूँगा।” यह हमे कृष्ण को अर्जुन द्वारा शुरुवात में निराशा में मार्गदर्शन की प्रार्थना के शुरुवात में कही थी कि मुझे क्या करना चाहिए, बताए किंतु मैं युद्ध नही करूंगा।  यह वाक्य उस के अहम का प्रतीक है, इसलिए उपदेश के अंत में उस को भी स्पष्ट करना आवश्यक है। अर्जुन भगवान के शरणागत होने की बात भी करता है और अहम से युद्ध नही करने की बात भी। यह आधी अधूरी शरणागति हम अपने जीवन में नित्य प्रतिदिन विभिन्न विषयों पर निश्चय करते हुए करते है, जिस में हमारा अहम छुपा है। जब तक अहम को त्याग कर शरणागति नही करेगे, हम अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। हमें भगवान और शास्त्रों की अच्छी सलाह या अपने स्वभाव की मजबूरियों के बीच चुनाव करना होगा।

यह हम जान चुके है कि जीव अकर्ता, नित्य और साक्षी है, जो भी क्रियाएं होती है, वह प्रकृति करती है। प्रकृति को क्रियाओं के लिए आधार चाहिए, इसलिए जीव के चारो ओर वह अपनी माया से कार्य करती है जिस से जीव को कर्ता और भोक्ता का भ्रम पैदा हो जाता है। हम ने यह भी पढ़ा कि मनुष्य को कर्म का अधिकार है किंतु उस के फल पर कोई अधिकार नहीं। इसलिए उस को निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। इसलिए मनुष्य जो भी क्रियाएं करता है, वह प्रकृति ही उस के स्वभाव और गुण के अनुसार उस से करवाती है। उस के चारो ओर जो भी परिस्थितियां तैयार होती है, वह प्रकृति ही उस के पूर्वजन्मों के कर्मफलो के अनुसार तैयार करती है। इसलिए तैयार परिस्थिति में उस के कर्म के अधिकार सीमित है कि वह निष्काम हो कर वह कर्म करे या सकाम हो कर। सकाम हो कर कर्म करने से उसे जन्म मरण से मुक्ति नही मिलेगी और निष्काम होने से उस के कर्म फलों का क्षय होगा, और वह मुक्त होगा। अतः अधिकार कर्म के प्रति आसक्ति का है, किसी कर्म को करने या न करने का नही। कर्म के अधिकार की स्वतंत्रता भी सीमित है, इसलिए यदि मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त क्रिया में कोई कार्य अहंकार से नही करता तो प्रकृति उस को उस कार्य को करने के लिए विवश करती है। यह विवशता उसे उसके स्वभाव से होती है। उस के समक्ष उसी प्रकार की परिस्थितियां बार बार उत्पन्न होती है।

युद्ध भूमि में अर्जुन युद्ध नही करेगा तो भी अन्य लोग युद्ध करेगे। उस से उस की हत्या भी हो जाए तो अगले जन्म में उस को वह परिस्थितियां विभिन्न रूप से मिलेगी। यदि वह जंगल में चला जाए तो भी क्षत्रिय स्वभाव से वह वहां भी शांति को प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उस के समक्ष समस्त अधर्मी या अन्यायी लोग राज्य करते रहेंगे, क्योंकि अन्याय के विरुद्ध लड़ना उस का स्वभाव है।

सत्य के सामान्य कथन की ओर मनुष्य विशेष ध्यान नहीं देता। इस कारण सत्य के उस ज्ञान को वह आत्मसात् नहीं कर पाता। परन्तु यदि उसी सामान्य कथन को मनुष्य को अपने जीवन से सम्बन्धित अनुभवों में प्रयुक्त कर दर्शाया जाये, तो वह उस ज्ञान को अर्जित कर आत्मसात् कर लेता है। वह ज्ञान उसका अपना नित्य अनुभव बन जाता है। इसलिए, भगवान् श्रीकृष्ण पूर्वोक्त दार्शनिक सिद्धांत को अर्जुन की तात्कालिक समस्या के सन्दर्भ में उसे समझाना चाहते हैं। यदि अपने अभिमान के कारण अर्जुन यह सोचता है कि वह युद्ध नहीं करेगा, तो उसका यह निश्चय व्यर्थ है उसका क्षत्रिय स्वभाव व्यक्त होने के लिए सदैव अवसर की प्रतीक्षा करता रहेगा और उपयुक्त अवसर पाकर वह अर्जुन को कर्म करने को बाध्य किये बिना नहीं रहेगा। प्रकृति तुम्हें प्रवृत्त करेगी। जिसने लवण भक्षण किया है, उसे शीघ्र ही प्यास लगेगी।

युद्ध से निवृत्त होने में अर्जुन जो मिथ्या तर्क प्रस्तुत करता है, वह वस्तुत प्राप्त परिस्थितियों के साथ उसके द्वारा किये गये समझौते को ही दर्शाता है। यदि अर्जुन तत्कालीन अस्थायी वैराग्य अथवा पलायन की भावना के कारण युद्ध से विरत हो जाता है, तो भी प्राकृतिक नियमामुसार कालान्तर में उसका स्वभाव ही उसे कर्म करने के लिए बाध्य करेगा और उस समय संभव है कि उसे अपने स्वभाव को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र न मिले, जिससे वह अपनी वासनाओं का क्षय कर सके।

जन्म जन्मांतर से किये हुए कर्मो के संस्कार जो वर्तमान जन्म में स्वभाव रूप से प्रादुर्भूत हुए है उन स्वभावजः कर्म चातुर्वर्ण वर्ण में अर्जुन के क्षत्रिय वर्ण के अनुसार उसे युद्ध के बाध्य कर देंगे।

इसी प्रकार अज्ञान जनित अहंकार से वशीभूत को कर अपने की पंडित, समर्थ या स्वतंत्र समझना एवम यह निश्चय करना की यह कार्य मैं नही करूंगा, तो यह उस मनुष्य की सब से बड़ी गलती या अहंकार ही होगा।

किसी कार्य के होने के पांच कारक श्लोक 18. 14 में अधिष्ठान, कर्ता, करण, विभिन्न चेष्टाएँ एवम दैव बताए है, जो प्रकृति करती रहती है। मनुष्य उस का एक घटक है, अतः जिसे वह समझता है कि उस ने किया वह उस के सहज स्वभाव से उत्पन्न कर्म है जो वैसा होना ही था।

संत ज्ञानेश्वर जी कहते है कि जैसे पथ्य से द्वेष करने वाला रोगी ज्वर को बढ़ाता ही है या दीपक से द्वेष करनेवाला मनुष्य अधंकार को बढ़ाता है, वैसे ही अहम में विवेक से प्रकृति प्रदत्त कार्य को पूर्ण दक्षता और आलस्य त्याग कर नही करने वाला, मनुष्य भी अपने कर्मो के वेग को आगे बढ़ाता हुए कष्ट को प्राप्त होता है। जब वह जानता है कि जो क्रियाएं हो रही है, वह माया है, वह मात्र निमित्त है, तो उस के करने या न करने का कोई औचित्य नहीं है।

पूर्वश्लोक में भगवान् ने अर्जुन से कहा कि प्रकृति तुझे कर्म में लगा देगी, अब आगे के श्लोक में उसी का विवेचन पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 18.59 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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