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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  02. 33 ।।

।। अध्याय    02. 33  ।।  

श्रीमद्भगवद्गीता 2.33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं करिष्यसि

ततः स्वधर्मं कीर्तिं हित्वा पापमवाप्स्यसि 

“atha cet tvam imaḿ dharmyaḿ,

sańgrāmaḿ na kariṣyasi

tataḥ sva-dharmaḿ kīrtiḿ ca,

hitvā pāpam avāpsyasi”

भावार्थ : 

किन्तु यदि तू इस धर्म के लिये युद्ध नहीं करेगा तो अपनी कीर्ति को खोकर कर्तव्य-कर्म की उपेक्षा करने पर पाप को प्राप्त होगा ॥३३॥

Meaning:

On the other hand, if you do not undertake this righteous war, then by forsaking your duty and valour, you will incur sin.

Explanation:

A part from philosphy, now on the basis of social behaviour as per Dharm shastra, If a warrior chooses to become non-violent on the battlefield, it will be dereliction of duty, and hence, classified as a sinful act. Hence, Shree Krishna states that if Arjun abandons his duty, considering it to be repugnant and troublesome, he will be committing a sin. The Parāśhar Smṛiti states:

“The occupational duty of a warrior is to protect the citizens of the country from oppression. This requires the application of violence in appropriate cases for the maintenance of law and order. He should thus defeat the soldiers of enemy kings, and help rule the country according to the principles of righteousness.”

The word “sin” could mean several things to several people. Let us understand the meaning used here. If you live in society anywhere, in a city, town, village etc. you are always bound by certain laws. If you conduct an act that goes against the law, then it is called a crime. Stealing a car, for example, is a crime.

Similarly, if someone does not perform their svadharma or duty, or does something counter to their svadharma, it is equivalent to a crime under a cosmic or universal law. That crime is termed as a sin. Sin is divided into two part, one not doing the work which a person has to do according to situation, varana, aashram and on other hand doing the work which are prohabitated in Dharm shastra like drinking liquor, prostitution etc.

Therefore, Shri Krishna urges Arjuna and us to consider the repercussions of not conducting our svadharma as Arjun denied to do war against his own kins.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यदि तुम इस युद्ध से विरत हो जाओगे तो न केवल स्वधर्म और कीर्ति को ही खो दोगे वरन् निश्चय रूप से पाप के भागीदार भी बनोगे। अधर्मियों का प्रतिकार न करना निरपराध व्यक्ति की हत्या करने के समान ही घोर पाप है।

धर्म शब्द का विवेचन पहले किया जा चुका है। प्रत्येक प्राणी पूर्वार्जित वासनाओं के साथ किसी देह विशेष में विशेष प्रयोजनार्थ इस जगत् में जन्म लेता है। वह विशेष प्रयोजन इन वासनाओं का क्षय करके स्वस्वरूप को पहचानना है। प्रत्येक व्यक्ति जिन वासनाओं के साथ जन्म लेता है वहीं उसका स्वधर्म स्वभाव कहलाता है। अर्जुन का स्वधर्म क्षत्रिय का है जिसका विशेष गुण आदर और यशपूर्ण शौर्य है।

मृत्यु से पूर्व कर्म- कार्य- कारण के सिंद्धांत के अनुसार यदि कोई अतृप्त इच्छा या वासना रह जाति है या कर्ता भाव से कर्म करने से अहम जुड़ा रहता है तो पुनः जन्म में उस को पूर्ण  करना ही स्वधर्म है। कबीर, रेदास, बाल्मीक, विट्ठल जैसे अनेक संत स्वधर्म का पालन कर के ही मोक्ष को प्राप्त हुए।

वासना क्षय के लिए जीवन में प्राप्त इन अवसरों को खो देना विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना है। यदि इनका क्षय न हुआ तो मनुष्य के मन पर वासनाओं का दबाव बढ़ता जाता है क्योंकि पूर्वार्जित वासनाओं के साथ नएनए संस्कार भी एकत्र होते जाते हैं। प्राप्त क्षण में भले ही अर्जुन युद्ध भूमि से भाग जाये परन्तु बाद में इस अवसर को खो देने का पश्चात्ताप ही उसको होगा क्योंकि इस प्रकार का पलायन उसके उस क्षत्रिय स्वभाव के सर्वदा विपरीत है जिसे युद्ध में ही चिर शान्ति प्राप्त हो सकती है।

जिस बालक में कला के प्रति स्वभाविक रुचि और प्रवृत्ति है वह कभी सफल व्यापारी नहीं बन सकता। पुत्र प्रेम के कारण यदि मातापिता अपनी इच्छाओं काे अपने पुत्र पर थोप देते हैं तो यह देखा जाता है कि ऐसे बालक का व्यक्तित्व बिखरा हुआ रहता है।

इस तरह के उदाहरण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में पाये जाते हैं और विशेषकर आध्यात्मिक क्षेत्र में। बहुत से व्यक्ति थोड़े से दुख और कष्ट के आघात से क्षणिक वैराग्य के कारण ईश्वर की खोज में गृह त्यागकर जंगलों में चले जाते हैं किन्तु वहाँ जीवन भर वे अशान्ति और दुख ही पाते हैं। मन में विषयोपयोग की वासनाएँ होती है जो पारिवारिक जीवन में पूर्ण की जा सकती हैं। परन्तु गृह त्यागकर हिमालय की कन्दराओं में बैठने से न तो वे इन वासनाओं को ही पूर्ण कर पाते हैं और न ईश्वर का ध्यान उनके लिए सम्भव होता है। स्वभाविक है कि उनके मन में विक्षेप बढ़ते जाते हैं जिन्हें पाप कहते हैं।

पूर्ण रूप से व्यवहारिक एवम सामाजिक दृष्टिकोण से अर्जुन के इस युद्ध को न करने के निर्णय का उत्तर देते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते है कि क्षत्रिय होते हुए यदि तुम युद्ध से विमुख होंगे तो कीर्ति तो जाएगी ही, साथ मे स्वधर्म का पालन न करने का पाप भी लग जायेगा। कुछ लोग कहते है कृष्ण अर्जुन को अपने ही भाइयो एवम स्वजनों के विरुद्ध युद्ध के लिये उसका रहे है, जब कि सत्य यही है भगवान श्री कृष्ण ही अंत मे समझौते के लिये गए थे और सिर्फ पांच गांव तक के लिये समझौता करने को तैयार थे। युद्ध दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओ के कारण पांडवो पर थोपा गया है, क्योंकि उन के साथ अन्याय हो रहा है इसलिये उन के साथ भी सेना खड़ी है। कौरव की सेना कौरव के प्रति मजबूरी में बंधी थी किन्तु स्वेच्छा से सेना पांडव के साथ थी, इसलिये यह सेना ज्यादा उत्साहित थी। इसलिये यहां कर्तव्य धर्म, स्वधर्म के पालन का प्रश्न था। जीव संसार मे अपयश या पाप के लिये नही जीता, वह सम्मान के साथ कोई पाप कर्म किये बिना जीना चाहता है।

हिन्दू धर्म के अनुसार अपने आत्मस्वरूप को भूलकर मनुष्य जो गलतियाँ या अनुचित कर्म करता है उन्हें पाप कहते हैं। वह समस्त कार्य जिस में स्वार्थ, हिंसा, घृणा, कपट, ईर्ष्या, दुसरो को अनुचित कष्ट देना और अपने कर्तव्य धर्म का पालन न करना आदि आदि सामाजिक नियमो के धर्म शास्त्र में पाप माने गए है।

पाप धर्म के अनुसार अपने स्वधर्म का पालन न करना और आज देश के कानून को न  मानना के बराबर है। जो भी कार्य आगे हमे क्षोभ दे कि यह गलत किया वो भी पाप है।

आज व्यापारी हो कर कालाबाजारी, विद्यार्थी हो कर पढ़ाई से चोरी, नेता हो कर देश की सेवा न करते हुये भ्रष्टाचार सभी तो पाप है। सनातन धर्म में उत्पन्न होने के बावजूद यदि आप अपने धर्म के प्रति जागरूक नही है, आप  स्वार्थ और लोभ में विधर्म का साथ देते है, तो भी यह पाप है। आप यदि सरकारी या सामाजिक विश्वत पद हो कर, उस सरकार के कानून या नियम या संस्था के तय नियमो का पालन नहीं करते तो यह भी पाप है।

विषयोपभोग के लिए मनुष्य के द्वारा सुख प्राप्ति के प्रयत्नों के कारण मन में विक्षेप उत्पन्न होना स्वाभाविक है और यही पाप है क्योंकि इसमें आनन्द स्वरूप आत्मा का विस्मरण है।

जगत में सम्मान और कीर्ति का महत्व बताते हुए अर्जुन को आगे के श्लोक में कृष्ण जी कहते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 2.33।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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