।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.54 II
।। अध्याय 18.54 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.54॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
“Brahma- bhūtaḥ prasannātmā,
na śocati na kāńkṣati..।
samaḥ sarveṣu bhūteṣu,
mad- bhaktiḿ labhate parām”..।।
भावार्थ:
फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिस को प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है ॥५४॥
Meaning:
One who has become the eternal essence, who has attained the joyful self, does not grieve nor desire. Equanimous towards all beings, he attains supreme devotion to me.
Explanation:
Shree Krishna concludes his description of the stage of perfection. The words Brahma-bhūtaḥ mean the state of Brahman realization. Situated in it, one is prasannātmā, meaning serene and unaffected by turbid and painful experiences. Na śhochati means one does not grieve nor feel any incompleteness. Na kāṅkṣhati means one does not crave for any material thing to make one’s happiness complete. Such a yogi sees all living beings with equal vision, realizing the substratum of Brahman in all of them. In such a state, one is situated on the platform of realized knowledge. However, Shree Krishna concludes the verse with a twist. He says that in such a realized state of knowledge, one then attains parā bhakti (divine love) for God.
Shree Krishna states that having attained the highest realization of jñāna, one develops parā bhakti. Ved Vyas has declared the same in the Śhrīmad Bhāgavatam: “Even those who are ātmārām (rejoicing in the self), established in self-knowledge, and liberated from material bonds, such perfected souls desire to possess bhakti toward God. The super-excellent qualities of God are such that they attract even the liberated souls.”
Having described the duties of a monk or a sanyaasi in the previous three shlokas, Shri Krishna explains the result of assiduously following those duties. The monk develops supreme devotion, paraa bhakti, towards Ishvara. As the monk decreases his involvement in the material world, makes his mind pure, his devotion towards Ishvara starts to increase. The culmination of this devotion is complete equanimity towards everyone and everything. He sees everyone’s joy as his joy, and everyone’s sorrow as his sorrow. He feels fulfilled in himself; therefore, he has no desire for anything new, or no grief for anything that he does not have. Only joy remains.
From the standpoint of Vedanta, the first six chapters of the Gita covered the analysis of “tvam”, the individual. Starting with karma yoga, then the purification of mind, then the study of scriptures, followed by taking up renunciation of all actions or monkhood, the seeker comes to know himself as the pure self, as distinct from his body and mind, which are products of maaya. But so long as he sees even a tinge of difference between his self and the world, that tinge of difference will eventually bring back raaga and dvesha, like and dislike. Therefore, he also needs to conduct analysis on the “tat”, which is Ishvara.
Analysis of Ishvara, knowing Ishvara in essence, was the topic of the chapters seven to twelve in the Gita. The seeker realizes that Ishvara creates, supports and destroys the world, through his power known as maaya. Maaya has the power to cover the true nature of Ishvara, and project a world of dazzling name and form. But, by listing Ishvara’s vibhootis, and by eventually describing his universal form, Shri Krishna informs the seeker that Ishvara also, like the self, is distinct from the universal body and the universal mind. All that the seeker needs to do is to see the oneness between his pure self and Ishvara’s pure self, distinct from all effects of maaya.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के तीन श्लोकों में परा प्रकृति के उपासक सांख्य योग के अनुसार सन्यासी के गुण धर्म को भगवान श्री कृष्ण बताते हुए कहते है कि वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित हो जाता है, जिस की दृष्टि में एक सच्चिदानंदघन ब्रह्म से भिन्न कोई किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं रहती, एवम अहम ब्रह्मास्मि या सोSह्मास्मि आदि महावाक्यों से अधिकृत हो कर वह ब्रह्म स्वरूप प्राप्त कर लेता है। उस की दृष्टि परमात्मा में अभिन्नभाव से नित्य अटल हो जाती है और वह ब्रह्मभूत हो जाता है।
श्रीकृष्ण पूर्णता की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं। ब्रह्म-भूतः का अर्थ है ब्रह्म साक्षात्कार की अवस्था। इसमें स्थित होकर व्यक्ति प्रसन्नात्मा होता है, जिसका अर्थ है शांत और अशांत तथा दुःखद अनुभवों से अप्रभावित। न शोचति का अर्थ है कि व्यक्ति न तो शोक करता है और न ही किसी अपूर्णता का अनुभव करता है। न काङ्क्षति का अर्थ है कि व्यक्ति अपने सुख को पूर्ण करने के लिए किसी भौतिक वस्तु की लालसा नहीं करता। ऐसा योगी सभी जीवों को समान दृष्टि से देखता है तथा उन सभी में ब्रह्म के मूल को अनुभव करता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के स्तर पर स्थित होता है। हालाँकि, श्रीकृष्ण इस श्लोक का समापन एक मोड़ के साथ करते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान की ऐसी अनुभूति की अवस्था में व्यक्ति को भगवान के प्रति परा भक्ति (दिव्य प्रेम) प्राप्त होती है।
जो अद्वितीय ब्रह्मरूप सत्य पदार्थ की खोज करता है, वही मुक्त होकर अपने नित्य महत्व को प्राप्त करता है और जो मिथ्या दृश्य पदार्थो के पीछे पड़ा रहता है, वह नष्ट हो जाता है।
संत ज्ञानेश्वर जी कहते है कि जैसे संगीत की समाप्ति पर तबला आदि वाद्य बंद हो जाते और संगीत का माधुर्य शेष रहता है, वैसे ही आत्मबोध को प्राप्त करने के लिए जो भी उद्योग लिए जाते है, उन सभी का अवसान आत्मबोध होते ही हो जाता है। जीव ‘ आत्मबोध प्रशस्ति ‘ की अवस्था में शांत और प्रसन्न रहता है।
जो व्यक्ति अपने शुद्ध मन के द्वारा, स्वयं को ही सभी चराचर वस्तुओं तथा प्राणियों का आन्तरिक और बाह्य आधार जानकर, समस्त उपाधियों को त्याग कर , अखण्डरूप से पूर्ण आत्मभाव में स्थित रहता है, वही मुक्त है।
स्पष्ट ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला सम्यक विवेक, आत्मा और अनात्म पदार्थों का विभाजन करके, माया द्वारा उत्पन्न मोह बन्धन को छिन्न कर देता है, जिस के फलस्वरूप मुक्त हुआ व्यक्ति पुन: संसार में नहीं आता।
आत्मवस्तु का यथार्थ साक्षात्कार हो जानेपर आवरण का नाश हो जाता है, मिथ्याज्ञान का विनाश हो जाता है और उसपर विक्षेप द्वारा उत्पन्न दुःख चले जाते हैं।
एक मिथ्या धारणा यह भी है कि ब्रह्मभूत की यह अवस्था कर्म त्याग के सन्यास से मिलती है, इसलिए अपनी जिम्मेदारियों और प्रकृति के नियत कर्मो से मोह, भय और अहंकार में लोग त्याग कर संन्यासी बन जाते है। किंतु सन्यास संसार के त्याग का नाम न हो कर अहम और कामना जेड आसक्ति का त्याग है। श्रुति कहती है मूढ पुरुष भी बन्धन में नहीं पड़ना चाहता, इसलिए मोक्ष को चाहनेवालों को निवृत्ति मार्ग ( कर्मसंन्यास ) का अवलम्बन अर्थात् फल पाने की इच्छा को त्यागकर विहित कर्म करने चाहिए। क्योंकि जीव-ब्रह्म की एकता का ज्ञानरूप तत्त्वज्ञान और सकाम कर्म का परस्पर सहयोग सिद्ध नहीं होता है । इस कारण से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान को चाहनेवाले पुरुष को दृढ़ ( निश्चय ) प्रयत्न करके सकाम कर्म त्याग देने चाहिए ।
जिस का मन पवित्र, स्वच्छ और शांत हो, उसे प्रसश्ननात्मा कहते है। ब्रह्म को प्राप्त हुआ, प्रसन्नात्मा अर्थात् जिस को अध्यात्मप्रसाद लाभ हो चुका है ऐसा पुरुष, न शोक करता है और न आकाङ्क्षा ही करता है अर्थात् न तो किसी पदार्थ की हानि के या निज सम्बन्धी विगुणता के उद्देश्य से सन्ताप करता है और न किसी वस्तु को चाहता ही है। न शोचति न काङ्क्षति इस कथन से ब्रह्मभूत पुरुष के स्वभाव का अनुवादमात्र किया गया है। क्योंकि ब्रह्मवेत्ता में अप्राप्त विषयों की आकाङ्क्षा बन ही नहीं सकती अथवा न काङ्क्षति की जगह,न हृष्यति ऐसा पाठ समझना चाहिये तथा जो सब भूतों में सम है अर्थात् अपने सदृश सब भूतों में सुख और दुःख को जो समान देखता है। इस वाक्य में आत्मा को समभाव से देखना नहीं कहा है क्योंकि वह तो भक्त्या मामभिजानाति इस पदसे आगे कहा जायगा। ऐसा ज्ञाननिष्ठ पुरुष, मुझ परमेश्वर की भजनरूप पराभक्ति को पाता है अर्थात् चतुर्विधा भजन्ते माम् इस में जो चतुर्थ भक्ति कही गयी है उसको पाता है।
वेदव्यास ने श्रीमद्भागवतम् में इसी प्रकार की व्याख्या की है।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।कुर्वन्त्यहैतुकी भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।। (श्रीमद्भागवतम् –1.7.10)
“वे ज्ञानी पुरूष जो ‘आत्माराम‘ हैं अर्थात जो अपनी आत्मा में रमण करते हैं, आत्म ज्ञान में स्थित होते हैं और माया के बंधनों से मुक्त होते हैं। ऐसी सिद्ध आत्माएँ भी भगवान की भक्ति से युक्त होने की इच्छा रखती हैं। भगवान के सर्वोत्कृष्ट गुण ऐसे होते हैं कि वे मुक्त आत्माओं को भी आकर्षित करते हैं।”
साधारण शब्दों में परम ज्ञान की यह अवस्था में जीव को अपने ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जिस से मोह, ममता, अहम, कामना और आसक्ति, राग – द्वेष नही रहता और वह सद्चित्तानंद की स्थिति में प्रसन्न रहता है, सब में ब्रह्म स्वरूप को देखता है, उस की कोई आकांक्षा शेष नहीं रहती। इस मूल ब्रह्म स्वरूप उस की भक्ति परमात्मा से होती है, जिसे पराभक्ति भी कहते है। जब भक्ति शुद्ध आत्मस्वरुप से परमात्मा से हो, तो वह भक्ति, जन सामान्य की आत्म शुद्धि की भक्ति नही होती, वरन शुद्ध, सात्विक, ब्रह्मस्वरूप की परमात्मा के मूल स्वरूप से होती है। जब समरूप परमात्मा के साथ अभिन्नता का अनुभव होने से साधक का सर्वत्र समभाव हो जाता है, तब उस का परमात्मा में प्रतिक्षण वर्धमान एक विलक्षण आकर्षण, खिंचाव, अनुराग हो जाता है। उसी को यहाँ ज्ञान लक्षणा पराभक्ति कहा है। पाँचवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में जैसे ब्रह्मभूतअवस्था के बाद ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति बतायी है ऐसे ही यहाँ ब्रह्मभूतअवस्था के बाद पराभक्ति की प्राप्ति बतायी है। अब आगे के श्लोक में ज्ञान लक्षणा पराभक्ति का फल पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.54 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)