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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.47 II

।। अध्याय      18.47 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥

“śreyān sva-dharmo viguṇaḥ,

para- dharmāt sv-anuṣṭhitāt..।

svabhāva-niyataḿ karma,

kurvan nāpnoti kilbiṣam”..।।

भावार्थ: 

अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ॥४७॥

Meaning:

One’s duty, though devoid of merits, is superior to another’s duty well performed. Doing the duty prescribed for one’s nature, one does not incur sin.

Explanation:

The normal tendency of human mind is when it has taken to one type of profession, it always compares that profession with the other profession. Human mind tends to compare; not only profession; anything whether it is dress or food or house or anything we tend to compare. And always it appears the other one is better than what I have. Distant pastures are greener; there is also an English proverb. Therefore, our tendency is to think that the other profession is better. When I take to brāhmaṇa karma, Kṣatriyā, vaiśya, śūdra karma will appear better, when I take to Kṣatriyā, the others will appear better. Krishna says do not compare and keep on changing; You will never perfection in any field; and therefore, try for perfection; in whatever you have taken. Therefore, he says, for you the best profession is your profession; whatever profession you have taken to. Learn to look at it as the best and you can excel in any field.

We now focus on the subject of svadharma, which is the set of actions termed as duty. As we saw earlier, our duty can only be understood by conducting self-analysis to understand what our mental makeup, what our varna is. Some of us may be well suited for starting businesses, whereas some of us may be better suited for the service sector. But it is quite common to get enchanted by another person’s occupation since it generates more money, since it has glamour and fame, and so on. How should we deal with this situation?

Shri Krishna says that we should stick to performing our svadharma, no matter how profitable or how glamourous other occupations seem like. In the short term, if we pick up another occupation, it may seem like we are doing a great job. But in the long run, we will fall into trouble. We will run into some problem or the other on account of not being suitable for someone else’s occupation. We also would deprive society from giving it the level of service possible if we had stuck with what we are good at.

Instead, if we abandon our duties thinking them to be defective, and take up another’s duties unsuitable for our nature, we struggle against the innate inclination of our personality. This was exactly Arjun’s situation. His Kshatriya nature was inclined to military and administrative activities. Events drove him to a situation where it was necessary to participate in a war of righteousness. If he were to shirk from his duty and withdraw from the battlefield to practice austerities in the forest, it would not help him spiritually, for even in the forest, he would not be able to get away from his inherent nature. In all likelihood, he would gather the tribal people in the jungle and become their king. Instead, it would be better for him to continue doing his duty born of his nature, and worship God by offering the fruits of his works to him.

“We must keep doing our prescribed occupational duties as long as the taste for devotion through hearing, chanting, and meditating on the leelas of God has not developed.” Śhrīmad Bhāgavatam

Harbouring likes and dislikes towards actions, preferring someone else’s occupation to ours, has the effect of strengthening the ego, and hence should be avoided. Furthermore, in karma yoga, we are only expected to perform our best actions, and to not worry about the result. By performing our svadharma, by doing the best we can, we automatically the fear of the consequence of our action, whether or not it will be a merit or a sin. To perform actions fearlessly is a blessing in itself.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रस्तुत श्लोक में स्वधर्म, स्वभावज एवम स्वभावनियत कर्मो का वर्णन है।

मानव मन की सामान्य प्रवृत्ति यह है कि जब वह एक प्रकार का पेशा अपनाता है; वह सदैव उस पेशे की तुलना दूसरे पेशे से करता है। मानव मन तुलना करने की प्रवृत्ति रखता है। केवल पेशा ही नहीं, कोई भी चीज चाहे वह वस्त्र हो, भोजन हो, घर हो या कोई भी चीज जिसकी हम तुलना करते हैं और सदैव ऐसा प्रतीत होता है कि जो मेरे पास है, उससे दूसरा बेहतर है। दूर के चरागाह हरे-भरे हैं, यह एक अंग्रेजी कहावत भी है। इसलिए हमारी प्रवृत्ति यह सोचने की होती है कि दूसरा पेशा बेहतर है। जब मैं ब्राह्मण कर्म अपनाता हूँ, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कर्म बेहतर प्रतीत होंगे, जब मैं क्षत्रिय कर्म अपनाता हूँ, तो दूसरे बेहतर प्रतीत होंगे। कृष्ण कहते हैं कि तुलना मत करो और बदलते रहो। तुम किसी भी क्षेत्र में कभी पूर्णता नहीं प्राप्त करोगे और इसलिए पूर्णता के लिए प्रयास करो जो भी तुमने अपनाया है। इसलिए वे कहते हैं, तुम्हारे लिए सर्वश्रेष्ठ पेशा तुम्हारा पेशा  इसे सर्वश्रेष्ठ के रूप में देखना सीखें और आप किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं।

मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिये छः कर्म बताये गये हैं – स्वयं पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना, स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरोंको दान देना। इन में पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना – ये तीन कर्म जीविका के हैं और पढ़ना, यज्ञ करना और दान देना — ये तीन कर्तव्य कर्म हैं। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शम दम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इन के अतिरिक्त खानापीना, उठना बैठना आदि जितने भी कर्म हैं, उन कर्मों के द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णों में व्याप्त परमात्मा का पूजन करें। तात्पर्य है कि परमात्मा की आज्ञा से, उन की प्रसन्नता के लिये ही भगवद्बुद्धि से निष्काम भावपूर्वक सब की सेवा करें।

ऐसे ही क्षत्रियों के लिये पाँच कर्म बताये गये हैं – प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना। इन पाँच कर्मों तथा शौर्य, तेज आदि सात स्वभावज कर्मों के द्वारा और खानापीना आदि सभी कर्मों के द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें।

वैश्य यज्ञ करना, अध्ययन करना, दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य  — इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मों के द्वारा और शूद्र शास्त्र विहित तथा स्वभावज कर्म सेवा  के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित, स्वभावज और खाना पीना, सोना जागना आदि सभी कर्मों के द्वारा भगवान् की आज्ञा से, भगवान् की प्रसन्नता के लिये भगवद्बुद्धि से निष्कामभावपूर्वक सब की सेवा करें।

शास्त्रों में विहित और निषिद्ध – दो तरह के वचन आते हैं। उन में विहित कर्म करने की आज्ञा है और निषिद्ध कर्म करने का निषेध है। उन विहित कर्मों में भी शास्त्रों ने जिस वर्ण, आश्रम, देश, काल, घटना, परिस्थिति, वस्तु, संयोग, वियोग आदि को लेकर अलग अलग जो कर्म नियुक्त किये हैं, उस वर्ण आश्रम आदि के लिये वे नियत कर्म कहलाते हैं। सत्त्व, रज और तम – इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है, उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं, वे स्वभाव नियत कर्म कहलाते हैं। उन्हीं को स्वभावप्रभव, स्वभावज, स्वधर्म, स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि जिस वर्ण, जाति में जन्म लेने से पहले इस जीव के जैसे गुण और कर्म रहे हैं, उन्हीं गुणों और कर्मों के अनुसार उस वर्ण में उस का जन्म हुआ है। कर्म तो करने पर समाप्त हो जाते हैं, पर गुणरूप से उन के संस्कार रहते हैं। जन्म होने पर उन गुणों के अनुसार ही उस में गुण और पालनीय आचरण स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् उन को न तो कहीं से लाना पड़ता है और न उन के लिये परिश्रम ही करना पड़ता है। इसलिये उन को स्वभावज और स्वभावनियत कहा है।

स्वधर्म से तात्पर्य स्वयं के वर्ण एवं कर्तव्य कर्मों से है। वर्ण शब्द का स्पष्टीकरण किया जा चुका है। यह देखा जाता है कि मनुष्य के मन में रागद्वेष होने के कारण उसे अपना कर्म गुणहीन और अन्य पुरुष का कर्म श्रेष्ठ प्रतीत हो सकता है। उसके मन में ऐसी भावना के उदय होने पर वह स्वधर्म को त्यागकर परधर्म के आचरण में प्रवृत्त होता है। परन्तु, स्वभाव के प्रतिकूल होने के कारण वह उस नवीन कार्य में तो विफल होता ही है, साथ ही उसके मन में रागद्वेषों का अर्थात् वासनाओं का बन्धन और अधिक दृढ़ हो जाता है। इसलिए, भगवान् कहते हैं, सम्यक् अनुष्ठित परधर्म से गुणरहित होने पर भी स्वधर्म का पालन ही श्रेष्ठतर है।स्वभाव नियत कर्माचरण से किल्विष अर्थात् पाप नहीं लगता। इसका अर्थ है स्वधर्म पालन से नवीन बन्धनकारक वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।

स्वधर्म पालन के उपदेश में दी गई युक्ति यह है कि स्वकर्माचरण पापोत्पत्ति का कारण नहीं बनता, यद्यपि हो सकता है कि उसमें कुछ दोष भी हो। इसे इस प्रकार समझना चाहिए कि (1) विषैले सर्प का विष स्वयं सर्प का नाश नहीं करता (2) मदिरा में रहने वाला जीवित जीवाणु स्वयं मदोन्मत्त नहीं हो जाते और (3) मलेरिया के मच्छर स्वयं मलेरिया से पीड़ित नहीं होते। उसी प्रकार, किसी भी मनुष्य का स्वभाव उसके लिए दोषयुक्त या हानिकारक नहीं होता यदि सर्प के विष को मदिरा में मिला दिया जाये, तो वे जीवाणु नष्ट हो जायेंगे। ठीक इसी प्रकार, यदि ब्राह्मण के कर्म में क्षत्रिय पुरुष प्रवृत्त होता है, तो वह आत्मनाश ही कर लेगा। अर्जुन क्षत्रिय् था शुद्ध सत्त्वगुण के अभाव में यदि वह वनों में जाकर ध्यानाभ्यास करता तो वह उसमें कदापि सफल नहीं होता। सारांशत, अपने स्वभाव के प्रतिकूल कार्यक्षेत्र में प्रवृत्त होने से कोई लाभ नहीं होता है।

उदाहरण में शरीर के कुछ अंग मल- मूत्र का विसर्जन करते है तो वह उन का स्वाभाविक कर्म एवम शरीर के संचालन की उपयोगिता है। मुख से गुदा या गुदा से मुख का काम नही हो सकता। इसी प्रकार संसार में सभी एक समान कार्य नही कर सकते, कुछ वेदों का अध्ययन करते है, कुछ राजनीति करते हुए शासन, कुछ रक्षा कार्य करते है और कुछ व्यापार करते है। कुछ सेवा कार्य CA, Dr या वकील या नौकरी करते है। कुछ मासाहारी और कुछ शाकाहारी होते है। समाज मे सभी के अपने अपने कर्तव्य और अहमियत है।  समाज मे प्रवृति एवम प्रकृति के गुणों के आधार पर सब की अपनी अपनी कार्य क्षमता एवम उपयोगिता है, इसलिये कोई उच्च-नीच नही है। इसी से समाज, धर्म, देश और सृष्टि चलती है। सभी के नियत कर्म में निषिद्ध कर्म का समावेश नही है, निषिद्ध कर्म नियत कर्म भी नही होते। स्वधर्म का पालन वासनाओं का क्षय है जो पूर्वजन्म के कर्मो का संग्रह है, उन्हें निष्काम भाव से परमात्मा को समर्पित करते हुए करना स्वाभाविक कर्म है। स्वावभिक कर्मो को करते हुए, यदि निष्काम भाव एवम परमात्मा को समर्पण है तो कोई पाप या कर्मफल का बंधन नही है। कोई विहित कर्मो की ओर अग्रसर भी नही हो सकता। इस प्रकार सात्विकता की ओर ही वह अग्रसर होता है।

इस जगत् में प्रत्येक वस्तु का निश्चित स्थान है। प्रत्येक प्राणी या मनुष्य का अपना महत्त्व है और कोई भी व्यक्ति तिरस्करणीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति किसी ऐसे कार्य विशेष को कर सकता है, जिसे दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता। परमेश्वर की सृष्टि में बहुतायत अथवा निरर्थकता कहीं नहीं है। एक तृण की पत्ती भी, किसी काल या स्थान में, व्यर्थ ही उत्पन्न नहीं हुई है। पुनर्जन्म के सिद्धांत और कर्मफल जो कर्तृत्व और भोक्त्व भाव से उत्पन्न होते है, जीव पुनः जन्म लेता है, इसी से उस का वर्ण और कर्म को प्रकृति निर्धारित करती है, इस लिए उन का करना सहज है। उस से कर्म फलो का क्षय होगा, किंतु यदि उस को छोड़ कर कोई कार्य होगा तो वह कामना, आसक्ति या अहम से होगा, इसलिए उस से कर्म फल का बंधन बढ़ेगा। सहज भाव और आसक्ति भाव के कर्म के अंतर को समझना और करना,  ज्ञान का विषय है।

गीता के अनुसार कर्ममात्र में दोष आता ही है, तथापि स्वभाव के अनुसार शास्त्र ने जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों की आज्ञा दी है, उन कर्मों को अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग कर के केवल दूसरों के हित की दृष्टि से निष्काम भाव से किया जाय, तो उस वर्ण के व्यक्ति को उन कर्मों का दोष (पाप) नहीं लगता। ऐसे ही जो केवल शरीर निर्वाह के लिये कर्म करता है, उस को भी पाप नहीं लगता। देश की रक्षार्थ किसी दुश्मन को मारने में हत्या का दोष नही होता, क्योंकि यह सैनिक का सहज कर्म है।

हमे स्मरण रखना चाहिए कि स्वधर्म अपने कर्तव्य पालन का धर्म है कि हम प्रकृति से जितना लेते है, वह हमे उसे लौटना होता है। अतः स्वधर्म और वर्ण व्यवस्था में राग – द्वेष, लोभ, कामना, आसक्ति, मोह, ममता, भय, क्रोध आदि मानवीय भावनाओं का कोई स्थान नहीं है। अतः जब हमारे कर्तव्य निर्वाह में इस में से कोई भी हमे दुर्बल बनाता है तो हमे उस पर विजय प्राप्त करते हुए, सहज भाव में परमात्मा की सेवा समझते हुए, अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना चाहिए। अर्जुन की दुविधा के लिए, भगवान उसे क्षत्रिय धर्म के कर्तव्य का पालन करने की कह रहे है, फिर उस के लिए मोह, ममता, भय, और अहम का कोई स्थान नहीं। कर्तव्य पालन प्रकृति के निमित्त अपने दायित्व का निर्वाह भर है। कर्म फल की कोई आकांक्षा भी नहीं रहनी चाहिए। अतः कर्म परब्रह्म की आराधना हो और कर्मफल में जो भी प्राप्त अच्छा या बुरा प्रसाद समझ कर ग्रहण करने की क्षमता हो।

स्वधर्म का अर्थ, हम जो कुछ भी कार्य कर रहे होते है, वह सृष्टि में अपने योगदान अपने वर्ण के अनुसार करते है, अतः स्वधर्म निस्वार्थ और निर्लिप्त भाव में होगा, तो ही उस से आत्मशुद्धि होगी और उस में सर्वश्रेष्ठ होने के लिए कठिन अभ्यास और प्रयास भी होने चाहिए। किंतु जब कामना, लोभ, मोह और आसक्ति में हम हमारे स्वधर्म को मेहनत, लग्न और श्रेष्ठता के साथ नहीं करते, तो हमारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और एकाग्रता में ही त्रुटि होती है। गीता के उपदेश त्रिशंकु विचार में बहने वालों के लिए अनुपयोगी होगा। व्याघ्र गीता में यह बात ब्राह्मण को व्याघ्र द्वारा ज्ञान दे कर अच्छे से समझाई गई है। इसलिए जो किसी एक कर्म अर्थात धर्म में एकनिष्ठ नहीं हो कर विभिन्न कार्यों में सफल होना चाहते है, वे सन्यास ले कर भी, संन्यासी नहीं होते, डॉक्टर की डिग्री ले कर भी डॉक्टर के पेशे की अपेक्षा अन्य व्यवसाय में रुचि रखने से अच्छे डॉक्टर भी नहीं हो पाते, आदि आदि।

जब हम अपना स्व-धर्म (निर्धारित व्यावसायिक कर्तव्य) करते हैं, तो इसका दोहरा लाभ होता है। यह हमारे स्वभाव के अनुरूप होता है। इसलिए, यह हमारे व्यक्तित्व के लिए उतना ही स्वाभाविक है जितना पक्षी के लिए उड़ना और मछली के लिए तैरना। दूसरा, चूँकि यह मन के लिए आरामदायक है, इसलिए इसे लगभग अनैच्छिक रूप से किया जा सकता है, और चेतना भक्ति में लीन होने के लिए स्वतंत्र हो जाती है।

इसके बजाय, यदि हम अपने कर्तव्यों को दोषपूर्ण समझकर त्याग देते हैं, और दूसरे के कर्तव्यों को अपने स्वभाव के लिए अनुपयुक्त मानकर अपना लेते हैं, तो हम अपने व्यक्तित्व की सहज प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। अर्जुन की स्थिति बिल्कुल यही थी। उसका क्षत्रिय स्वभाव सैन्य और प्रशासनिक कार्यों की ओर प्रवृत्त था। घटनाओं ने उसे ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया, जहां धर्म के युद्ध में भाग लेना आवश्यक था। यदि वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाए और युद्ध के मैदान से हटकर जंगल में तपस्या करने लगे, तो इससे उसे आध्यात्मिक रूप से कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि जंगल में भी वह अपने अंतर्निहित स्वभाव से दूर नहीं हो पाएगा। पूरी संभावना है कि वह जंगल में आदिवासियों को इकट्ठा करेगा और उनका राजा बन जाएगा। इसके बजाय, उसके लिए बेहतर होगा कि वह अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्तव्य को करता रहे, और अपने कर्मों का फल भगवान को अर्पित करके उनकी पूजा करता रहे।

“जब तक भगवान की लीलाओं के श्रवण, कीर्तन और ध्यान के माध्यम से भक्ति की रुचि विकसित नहीं हो जाती, तब तक हमें अपने निर्धारित व्यावसायिक कर्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए।” श्रीमद्भागवतम्

हमारा कर्म दोषयुक्त होने पर भी उस का पालन करना चाहिए, इस के लिये भगवान् आगे क्या कहते हैं, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.47 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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