।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.44 II Additional II
।। अध्याय 18.44 II विशेष II
।। स्वाभाविक कर्मों का तात्पर्य – स्वामी रामसुख दास द्वारा विवेचन ।। गीता विशेष 18. 44 ।।
चेतन जीवात्मा और जड प्रकृति – दोनों का स्वभाव भिन्नभिन्न है। चेतन स्वाभाविक ही निर्विकार अर्थात् परिवर्तनरहित है और प्रकृति स्वाभाविक ही विकारी अर्थात् परिवर्तनशील है। अतः इन दोनों का स्वभाव भिन्न भिन्न होने से इन का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं है किंतु चेतन ने प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मानकर उस सम्बन्ध की सद्भावना कर ली है अर्थात् सम्बन्ध है ऐसा मान लिया है। इसी को गुणों का सङ्ग कहते हैं, जो जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। इस सङ्गके कारण, गुणों के तारतम्य से जीव का ब्राह्मणादि वर्ण में जन्म होता है। गुणों के तारतम्य से जिस वर्ण में जन्म होता है, उन गुणों के अनुसार ही उस वर्ण के कर्म स्वाभाविक, सहज होते हैं जैसे – ब्राह्मण के लिये शम, दम आदि क्षत्रिय के लिये शौर्य, तेज आदि वैश्य के लिये खेती, गौरक्षा आदि और शूद्र के लिये सेवा – ये कर्म स्वतः स्वाभाविक होते हैं। तात्पर्य है कि चारों वर्णों को इन कर्मों को करने में परिश्रम नहीं होता क्योंकि गुणों के अनुसार स्वभाव और स्वभाव के अनुसार उन के लिये कर्मों का विधान है। इसलिये इन कर्मों में उन की स्वाभाविक ही रुचि होती है। मनुष्य इन स्वाभाविक कर्मोंको जब अपने लिये अर्थात् अपने स्वार्थ, भोग और आराम के लिये करता है, तब वह उन कर्मों से बँध जाता है। जब उन्हीं कर्मों को स्वार्थ और अभिमान का त्याग कर के निष्कामभावपूर्वक संसार के हित के लिये करता है, तब कर्मयोग हो जाता हैऔर उन्हीं कर्मों से सब संसार में व्यापक परमात्मा का पूजन करता है अथवा भगवत्परायण होकर केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म (जप, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि) करता है, तब वह भक्तियोग हो जाता है। फिर प्रकृति के गुणों का सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाने पर केवल एक परमात्मतत्त्व ही रह जाता है, जिस में सिद्ध महापुरुष के स्वरूप की स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रता, अखण्डता, निर्विकारता की अनुभूति रह जाती है। ऐसा होने पर भी उस के शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा अपने अपने वर्ण, आश्रमकी मर्यादा के अनुसार निर्लिप्ततापूर्वक शास्त्रविहित कर्म स्वाभाविक होते हैं, जो कि संसार मात्र के लिये आदर्श होते हैं। प्रभु की तरफ आकृष्ट होने से प्रतिक्षण प्रेम बढ़ता रहता है, जो अनन्त आनन्दस्वरूप है। जाति जन्म से मानी जाय या कर्म से ऊँचनीच योनियों में जितने भी शरीर मिलते हैं, वे सब गुण और कर्म के अनुसार ही मिलते हैं। गुण और कर्म के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है इसलिये मनुष्य की जाति जन्म से ही मानी जाती है। अतः स्थूल शरीर की दृष्टि से विवाह, भोजन आदि कर्म जन्म की प्रधानता से ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्ण के अनुसार ही भोजन, विवाह आदि कर्म होने चाहिये।
दूसरी बात, जिस प्राणी का सांसारिक भोग, धन, मान, आराम, सुख आदि का उद्देश्य रहता है, उस के लिये वर्ण के अनुसार कर्तव्यकर्म करना और वर्ण की मर्यादा में चलना आवश्यक हो जाता है। यदि वह वर्ण की मर्यादा में नहीं चलता, तो उस का पतन हो जाता है। परन्तु जिस का उद्देश्य केवल परमात्मा ही है, संसार के भोग आदि नहीं, उस के लिये सत्सङ्ग, स्वाध्याय, जप, ध्यान, कथा, कीर्तन, परस्पर विचार विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति में प्राणी के पारमार्थिक भाव, आचरण आदि की मुख्यता है, जाति या वर्ण की नहीं। तीसरी बात, जिस का उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति का है, वह भगवत्सम्बन्धी कार्यों को मुख्यता से करते हुए भी वर्णआश्रम के अनुसार अपने कर्तव्य कर्मों को पूजन बुद्धि से केवल भगवत्प्रीत्यर्थ ही करता है।
आगे छियालीसवें श्लोकमें भगवान्ने बड़ी श्रेष्ठ बात बतायी है कि जिस से सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिस से सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका ही लक्ष्य रख कर, उस के प्रीत्यर्थ ही पूजन रूप से अपनेअपने वर्ण के अनुसार कर्म किये जायँ। इस में मनुष्य मात्र का अधिकार है। देवता, असुर, पशु, पक्षी आदि का स्वतः अधिकार नहीं है परन्तु उन के लिये भी परमात्मा की तरफ से निषेध नहीं है। कारण कि सभी परमात्मा का अंश होने से परमात्मा की प्राप्ति के सभी अधिकारी हैं। प्राणिमात्र का भगवान् पर पूरा अधिकार है। इस से भी यह सिद्ध होता है कि आपस के व्यवहार में अर्थात् रोटी, बेटी और शरीर आदि के साथ बर्ताव करने में तो जन्म की प्रधानता है और परमात्मा की प्राप्ति में भाव, विवेक और कर्म की प्रधानता है। इसी आशय को ले कर भागवतकार ने कहा है कि जिस मनुष्य के वर्ण को बतानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझ लेना चाहिये। अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण के शमदम आदि जितने लक्षण हैं, वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसी में हों तो जन्ममात्र से नीचा होने पर भी उस को नीचा नहीं मानना चाहिये। ऐसे ही महाभारत में युधिष्ठिर और नहुष के संवाद में आया है कि जो शूद्र आचरणों में श्रेष्ठ है, उस शूद्र को शूद्र नहीं मानना चाहिये और जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित है, उस ब्राह्मण को ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये अर्थात् वहाँ कर्मों की ही प्रधानता ली गयी है, जन्म की नहीं।शास्त्रों में जो ऐसे वचन आते हैं, उन सब का तात्पर्य है कि कोई भी नीच वर्णवाला साधारण से साधारण मनुष्य अपनी पारमार्थिक उन्नति कर सकता है, इस में संदेह की कोई बात नहीं है। इतना ही नहीं, वह उसी वर्ण में रहता हुआ शम, दम आदि जो सामान्य धर्म हैं, उनका साङ्गोपाङ्ग पालन करता हुआ अपनी श्रेष्ठताको प्रकट कर सकता है। जन्म तो पूर्वकर्मों के अनुसार हुआ है, इस में वह बेचारा क्या कर सकता है परन्तु वहीं (नीच वर्णमें) रहकर भी वह अपनी नयी उन्नति कर सकता है। उस नयी उन्नति में प्रोत्साहित करने के लिये ही शास्त्रवचनों का आशय मालूम देता है कि नीच वर्णवाला भी नयी उन्नति करने में हिम्मत न हारे। जो ऊँचे वर्णवाला होकर भी वर्णोचित काम नहीं करता, उस को भी अपने वर्णोचित काम करनेके लिये शास्त्रों में प्रोत्साहित किया है जैसे जिन ब्राह्मणोंका खानपान, आचरण सर्वथा भ्रष्ट है, उन ब्राह्मणों का वचनमात्र से भी आदर नहीं करना चाहिये — ऐसा स्मृतिमें आया है। परन्तु जिन के आचरण श्रेष्ठ हैं, जो भगवान् के भक्त हैं, उन ब्राह्मणों की भागवत आदि पुराणों में और महाभारत, रामायण आदि इतिहासग्रन्थों में बहुत महिमा गायी गयी है।
भगवान् का भक्त चाहे कितनी ही नीची जाति का क्यों न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मण से श्रेष्ठ है। ब्राह्मण को विराट्रूप भगवान् का मुख, क्षत्रिय को हाथ, वैश्य को ऊरु (मध्यभाग) और शूद्र को पैर बताया गया है। ब्राह्मण को मुख बताने का तात्पर्य है कि उन के पास ज्ञान का संग्रह है, इसलिये चारों वर्णों को पढ़ाना, अच्छी शिक्षा देना और उपदेश सुनाना – यह मुख का ही काम है। इस दृष्टि से ब्राह्मण ऊँचे माने गये।क्षत्रिय को हाथ बताने का तात्पर्य है कि वे चारों वर्णों की शत्रुओं से रक्षा करते हैं। रक्षा करना मुख्यरूप से हाथों का ही काम है जैसे – शरीर में फोड़ा फुंसी आदि हो जाय तो हाथों से ही रक्षा की जाती है शरीर पर चोट आती हो तो रक्षा के लिये हाथ ही आड़ देते हैं और अपनी रक्षा के लिये दूसरों पर हाथों से ही चोट पहुँचायी जाती है आदमी कहीं गिरता है तो पहले हाथ ही टिकते हैं। इसलिये क्षत्रिय हाथ हो गये। अराजकता फैल जानेपर तो जन, धन, आदि की रक्षा करना चारों वर्णों का धर्म हो जाता है।वैश्य को मध्यभाग कहने का तात्पर्य है कि जैसे पेट में अन्न, जल, औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीर के सम्पूर्ण अवयवों को खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं, ऐसे ही वस्तुओंका संग्रह करना, उन का यातायात करना, जहाँ जिस चीज की कमी हो वहाँ पहुँचाना, प्रजा को किसी चीज का अभाव न होने देना वैश्य का काम है। पेट में अन्नजल का संग्रह सब शरीर के लिये होता है और साथ में पेट को भी पुष्टि मिल जाती है क्योंकि मनुष्य केवल पेट के लिये पेट नहीं भरता। ऐसे ही वैश्य केवल दूसरोंके लिये ही संग्रह करे, केवल अपने लिये नहीं। वह ब्राह्मण आदि को दान देता है, क्षत्रियों को टैक्स देता है, अपना पालन करता है और शूद्रों को मेहनताना देता है। इस प्रकार वह सबका पालन करता है। यदि वह संग्रह नहीं करेगा, कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा शूद्र को चरण बताने का तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीर को उठाये फिरते हैं और पूरे शरीर की सेवा चरणों से ही होती है, ऐसे ही सेवा के आधार पर ही चारों वर्ण चलते हैं। शूद्र अपने सेवाकर्म के द्वारा सब के आवश्यक कार्यों की पूर्ति करता है।
उपर्युक्त विवेचन में एक ध्यान देने की बात है कि गीता में चारों वर्णों के उन स्वाभाविक कर्मों का वर्णन है, जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात् उन को करने में अधिक परिश्रम नहीं पड़ता। चारों वर्णों के लिये और भी दूसरे कर्मं का विधान है, उन को स्मृतिग्रन्थों में देखना चाहिये और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिये ।वर्तमान में चारों वर्णों में गड़बड़ी आ जाने पर भी यदि चारों वर्णों के समुदायों को इकट्ठा कर के अलगअलग समुदाय में देखा जाय तो ब्राह्मण समुदाय में शम, दम आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे, उतने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। क्षत्रिय समुदाय में शौर्य, तेज आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे, उतने ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। वैश्य समुदाय में व्यापार करना, धन का उपार्जन करना, धन को पचाना (धन का भभका ऊपर से न दीखने देना) आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे, उतने ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। शूद्रसमुदाय में सेवा करने की प्रवृत्ति जितनी अधिक मिलेगी, उतनी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समुदाय में नहीं मिलेगी। तात्पर्य यह है कि आज सभी वर्ण मर्यादारहित और उच्छृङ्खल होने पर भी उन के स्वभावज कर्म उन के समुदायों में विशेषता से देखने में आते हैं अर्थात् यह चीज व्यक्तिगत न,दीखकर समुदायगत देखने में आती है।जो लोग शास्त्र के गहरे रहस्य को नहीं जानते, वे कह देते हैं कि ब्राह्मणों के हाथ में कलम रही, इसलिये उन्होंने ब्राह्मण सब से श्रेष्ठ है ऐसा लिखकर ब्राह्मणों को सर्वोच्च कह दिया। जिन के पास राज्य था, उन्होंने ब्राह्मणों से कहा – क्यों महाराज हम लोग कुछ नहीं हैं क्या तो ब्राह्मणोंने कह दिया – नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं। आप लोग भी हैं, आप लोग दो नम्बर में हैं। वैश्यों ने ब्राह्मणों से कहा – क्यों महाराज हमारे बिना कैसे जीविका चलेगी आप की ब्राह्मणोंने कहा – हाँ, हाँ, आप लोग तीसरे नम्बर में हैं। जिन के पास न राज्य था, न धन था, वे ऊँचे उठने लगे तो ब्राह्मणोंने कह दिया – आप के भाग्य में राज्य और धन लिखा नहीं है। आपलोग तो इन ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा करो। इसलिये चौथे नम्बरमें आप लोग हैं। इस तरह सब को भुलावे में डालकर विद्या, राज्य और धन के प्रभाव से अपनी एकता कर के चौथे वर्ण को पददलित कर दिया – यह लिखने वालों का अपना स्वार्थ और अभिमान ही है।इस का समाधान यह है कि ब्राह्मणों ने कहीं भी अपने ब्राह्मणधर्मके लिये ऐसा नहीं लिखा है कि ब्राह्मण सर्वोपरि हैं, इसलिये उनको बड़े आराम से रहना चाहिये, धन सम्पत्ति से युक्त होकर मौज करनी चाहिये इत्यादि, प्रत्युत ब्राह्मणोंके लिये ऐसा लिखा है कि उन को त्याग करना चाहिये, कष्ट सहना चाहिये तपश्चर्या करनी चाहिये। गृहस्थमें रहते हुए भी उन को धनसंग्रह नहीं करना चाहिये, अन्न का संग्रह भी थोड़ा ही होना चाहिये – कुम्भीधान्य अर्थात् एक घड़ा भरा हुआ अनाज हो, लौकिक भोगों में आसक्ति नहीं होनी चाहिये और जीवन निर्वाह के लिये किसी से दान भी लिया जाय तो उस का काम कर के अर्थात् यज्ञ, होम, जप, पाठ आदि करके ही लेना चाहिये। गोदान आदि लिया जाय तो उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये।यदि कोई ब्राह्मण को श्राद्ध का निमन्त्रण देना चाहे तो वह श्राद्ध के पहले दिन दे, जिस से ब्राह्मण उस के पितरों का अपने में आवाहन कर के रात्रि में ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके। दूसरे दिन वह यजमान के पितरों का पिण्डदान, तर्पण ठीक विधि विधान से करवाये। उसके बाद वहाँ भोजन करे। निमन्त्रण भी एक ही यजमानका स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घरका करे। श्राद्धका अन्न खानेके बाद गायत्रीजप आदि करके शुद्ध होना चाहिये। दान लेना, श्राद्ध का भोजन करना ब्राह्मण के लिये ऊँचा दर्जा नहीं है। ब्राह्मण का ऊँचा दर्जा त्याग में है। वे केवल यजमान के पितरों का कल्याण भावना से ही श्राद्ध का भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं, स्वार्थ की भावना से नहीं अतः यह भी उनका त्याग ही है।
ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये ऋत, अमृत, मृत, सत्यानृत और प्रमृत – ये पाँच वृत्तियाँ बतायी हैं,(1) ऋतवृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है। इस को शिलोञ्छ या कपोतवृत्ति भी कहते हैं। खेती करनेवाले खेत में से धान काट कर ले जायँ, उस के बाद वहाँ जो अन्न (ऊमी, सिट्टा आदि) पृथ्वी पर गिरा पड़ा हो, वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है अतः उन को चुन कर अपना निर्वाह करना शिलोञ्छवृत्ति है अथवा धान्यमण्डी में जहाँ धान्य तौला जाता है, वहाँ पृथ्वी पर गिरे हुए दाने भूदेवों के होते हैं अतः उन को चुनकर जीवननिर्वाह करना कपोतवृत्ति है।
(2) बिना याचना किये और बिना इशारा किये कोई यजमान आकर देता है तो निर्वाह मात्र की वस्तु लेना अमृतवृत्ति है। इसको अयाचितवृत्ति भी कहते हैं।
(3) सुबह भिक्षा के लिये गाँव में जाना और लोगों को वार, तिथि, मुहूर्त आदि बताकर (इस रूपमें काम करके) भिक्षा में जो कुछ मिल जाय, उसी से अपना जीवननिर्वाह करना मृतवृत्ति है।
(4) व्यापार कर के जीवननिर्वाह करना सत्यानृतवृत्ति है।
(5) उपर्युक्त चारों वृत्तियोंसे जीवननिर्वाह न हो तो खेती करे, पर वह भी कठोर विधिविधानसे करे जैसे – एक बैल से हल न चलाये, धूप के समय हल न चलाये आदि, यह प्रमृतवृत्ति है।
उपर्युक्त वृत्तियों में से किसी भी वृत्ति से निर्वाह किया जाय, उस में पञ्चमहायज्ञ, अतिथिसेवा करके यज्ञशेष भोजन करना चाहिये।श्रीमद्भगवद्गीता पर विचार करते हैं तो ब्राह्मण के लिये पालनीय जो नौ स्वाभाविक धर्म बताये गये हैं, उनमें जीविका पैदा करनेवाला एक भी धर्म नहीं है। क्षत्रियके लिये सात स्वाभाविक धर्म बताये हैं। उनमें युद्ध करना और शासन करना – ये दो धर्म कुछ जीविका पैदा करनेवाले हैं। वैश्यके लिये तीन धर्म बताये हैं – खेती, गोरक्षा और व्यापार ये तीनों ही जीविका पैदा करनेवाले हैं। शूद्रके लिये एक सेवा ही धर्म बताया है? जिस में पैदा ही पैदा होती है। शूद्र के लिये खानपान, जीवननिर्वाह आदिमें भी बहुत छूट दी गयी है।
भगवान्ने स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः पदों से कितनी विचित्र बात बतायी है कि शम, दम आदि नौ धर्मों के पालन से ब्राह्मण का जो कल्याण होता है, वही कल्याण शौर्य, तेज आदि सात धर्मों के पालन से क्षत्रिय का होता है, वही कल्याण खेती, गोरक्षा और व्यापारके पालनसे वैश्य होता है और वही कल्याण केवल सेवा करनेसे शूद्रका हो जाता है।
आगे भगवान् ने एक विलक्षण बात बतायी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनेअपने वर्णोचित कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन कर के परम सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं। वास्तव में कल्याण वर्णोचित कर्मों से नहीं होता, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक पूजन से ही होता है। शूद्र का तो स्वाभाविक कर्म ही परिचर्यात्मक अर्थात् पूजनरूप है अतः उस का पूजन के द्वारा पूजन होता है अर्थात् उसके द्वारा दुगुनी पूजा होती है इसलिये उस का कल्याण जितनी जल्दी होगा, उतनी जल्दी ब्राह्मण आदिका नहीं होगा।शास्त्रकारों ने उद्धार करने में छोटे को ज्यादा प्यार दिया है क्योंकि छोटा प्यार का पात्र होता है और बड़ा अधिकार का पात्र होता है। बड़े पर चिन्ता फिक्र ज्यादा रहती है, छोटे पर कुछ भी भार नहीं रहता। शूद्र को भाररहित कर के उस की जीविका बतायी गयी है और प्यार भी दिया गया है।वास्तवमें देखा जाय तो जो वर्णआश्रम में जितना ऊँचा होता है, उस के लिये शास्त्रोंके अनुसार उतने ही कठिन नियम होते हैं। उन नियमों का साङ्गोपाङ्ग पालन करने में कठिनता अधिक मालूम देती है। परन्तु जो वर्णआश्रममें नीचा होता है, उसका कल्याण सुगमतासे हो जाता है। इस विषयमें विष्णुपुराणमें एक कथा आती है – एक बार बहुत से ऋषिमुनि मिलकर श्रेष्ठता का निर्णय करने के लिये भगवान् वेदव्यासजी के पास गये। व्यासजी ने सबको आदरपूर्वक बिठाया और स्वयं गङ्गा में स्नान करने चले गये। गङ्गामें स्नान करते हुए उन्होंने कहा – कलियुग, तुम धन्य हो स्त्रियों, तुम धन्य हो शूद्रों, तुम धन्य हो जब व्यासजी स्नान करके ऋषियोंके पास आये तो ऋषियोंने कहा – महाराज आपने कलियुग, स्त्रियों और शूद्रोंको धन्यवाद कैसे दिया तो उन्होंने कहा कि कलियुग में अपने धर्म का पालन करने से स्त्रियाँ और शूद्रों का कल्याण जल्दी और सुगमतापूर्वक हो जाता है।यहाँ एक और बात सोचने की है कि जो अपने स्वार्थ का काम करता है, वह समाज में और संसार में आदर का पात्र नहीं होता। समाज में ही नहीं, घर में भी जो व्यक्ति पेटू और चट्टू होता है, उस की दूसरे निन्दा करते हैं। ब्राह्मणों ने स्वार्थ दृष्टि से अपने ही मुँह से अपनी (ब्राह्मणोंकी) प्रशंसा, श्रेष्ठता की बात नहीं कही है। उन्होंने,ब्राह्मणों के लिये त्याग ही बताया है। सात्त्विक मनुष्य अपनी प्रशंसा नहीं करते, प्रत्युत दूसरों की प्रशंसा, दूसरों का आदर करते हैं। तात्पर्य है कि ब्राह्मणों ने कभी अपने स्वार्थ और अभिमान की बात नहीं कही। यदि वे स्वार्थ और अभिमान की बात कहते तो वे इतने आदरणीय नहीं होते, संसार में और शास्त्रों में आदर न पाते। वे जो आदर पाते हैं, वह त्याग से ही पाते हैं।इस प्रकार मनुष्य को शास्त्रोंका गहरा अध्ययन कर के उपर्युक्त सभी बातों को समझना चाहिये और ऋषिमुनियों पर, शास्त्रकारों पर झूठा आक्षेप नहीं करना चाहिये।
ऊँचनीच वर्णों में प्राणियों का जन्म मुख्य रूप से गुणों और कर्मों के अनुसार होता है – परन्तु ऋणानुबन्ध, शाप, वरदान, सङ्ग आदि किसी कारण विशेष से भी ऊँचनीच वर्णों में जन्म हो जाता है। उन वर्णों में जन्म होने पर भी वे अपने पूर्वस्वभाव के अनुसार ही आचरण करते हैं। यही कारण है कि ऊँचे वर्ण में उत्पन्न होने पर भी उन के नीच आचरण देखे जाते हैं, जैसे धुन्धुकारी आदि और नीच वर्ण में उत्पन्न होने पर भी वे महापुरुष होते हैं, जैसे विदुर, कबीर, रैदास आदि।आज जिस समुदाय में जातिगत, कुलपरम्परागत, समाजगत और व्यक्तिगत जो भी शास्त्रविपरीत दोष आये हैं उन को अपने विवेकविचार, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि के द्वारा दूर कर के अपने में स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता लानी चाहिये, जिससे अपने मनुष्य जन्म का ध्येय सिद्ध हो सके।
स्वामी रामसुख दास जी के विवेचन के अतिरिक्त हमे यह भी जानना होगा कि सामाजिक व्यवस्था सनातन संस्कृति में गुणों के आधार की गई है।
वास्तव में हम समाज के आंतरिक स्वास्थ्य को समाज द्वारा शिक्षकों को दिए जाने वाले सम्मान से माप सकते हैं। वैदिक समाज में शिक्षक ब्राह्मण होते हैं जिन्हें बहुत ऊंचा दर्जा प्राप्त था। यहां तक कि दैनिक प्रार्थनाओं में भी, गौ, ब्राह्मणॆ शुभमस्त नात्य गो ब्राह्मणेभ्यो शुभमस्तु नित्यं; वे ब्राह्मण के कल्याण के लिए प्रार्थना करते थे, क्योंकि वे अगली पीढ़ी, बच्चों के निर्माता होते हैं। इस प्रकार यह ब्राह्मण पेशा हो सकता है, जो शिक्षण पेशा है या क्षत्रिय पेशा, प्रशासन और रक्षा या वैश्य पेशा, कृषि और वाणिज्य, या शूद्र पेशा, अन्य तीन समूहों की सहायता करना और कृष्ण कहते हैं ये चारों पेशे समान रूप से पवित्र हैं। वे समाज नामक शरीर के चार अंगों की तरह हैं; जैसे शरीर में हर अंग समान रूप से पवित्र है वैसे ही हर पेशा समान रूप से पवित्र है। इसलिए आपको कोई जटिलता महसूस करने की आवश्यकता नहीं है, चाहे आपका पेशा कुछ भी हो, हमेशा गर्व महसूस करें। अपने आप पर गर्व महसूस करें; चाहे आपका पेशा कुछ भी हो; दूसरों के साथ अपनी तुलना करने की आवश्यकता नहीं। यदि आवश्यकता है तो शास्त्र को पढ़ने, समझने और आत्मसात करने की। क्योंकि ज्ञान को श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा आत्मसात किया जा सकता है जिस से तामसी वृति से सात्विकता वृति को प्राप्त करे। सामाजिक परिवेश में शुद्र गुणों से ब्रह्म गुणों को प्राप्त हो। जन्मजात जाति से कोई भी जाति हो, वर्ण व्यवस्था के गुण आप के प्रकृति के गुणों से जाना जाएगा।
जातीय व्यवस्था जो मुख्यत: जन्म पर आधारित थी, वह मध्यकालीन भारत के समय वर्ण व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। और इसके कारण ब्राह्मण वर्ग बिना सात्विक गुणों के अपने की उच्च घोषित करने लगा और अपने अहम और अधिकार का अनधिकृत उपयोग स्वार्थ, लालसा और अहंकार में करने लगा। क्योंकि ब्राह्मण समाज को दिशा देता है और वह ही जब राजसी और तामसी गुणों से युक्त हो जाए तो अन्य जातियां के वर्ण भी अपने आदर्शो से गिरने लगे। इस का नुकसान शुद्र अर्थात सेवा वर्ग को ज्यादा हुआ क्योंकि निम्न वर्ग होने से ब्राह्मण वर्ग ने इन का तिरस्कार किया। फिर बाहरी आक्रमण होने से सनातन संस्कृति में मतान्धात और हिंसक शत्रुओं के कारण छुआछूत, ऊंच नीच आदि सामाजिक बुराइयों का जन्म हुआ। यद्यपि इस काल में जो संत, महापुरुष आदि हुए, उन्होंने इस बुराई को समाप्त करने की कोशिश अवश्य की, परन्तु प्रयास में जातियों में बटे वर्ग ने अहम और अज्ञान में बदलाव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि यह जड़ों तक फैल गया था। आज भी यह सनातन संस्कृति में जातियों का रोग है जो समाप्त होना ही चाहिए।
इसलिए जब एक बार जब आपने अपने पेशे को सीख लिया, तो अगला चरण क्या है? उस व्यवसाय को पूजा के रूप में परिवर्तित करना; और इसलिए आपकी पूजा दिन में आधा घंटा नहीं बल्कि पूरे कामकाजी घंटे एक निरंतर पूजा है। और यदि आप ओटी, ओवरटाइम ले रहे हैं, तो आप अतिरिक्त पूजा कर रहे हैं। और यदि आपके पेशे को पूजा में परिवर्तित करना है, तो आपके दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए; अपने व्यवसाय को पूजा में परिवर्तित करना; रूपांतरण से होता है; आपके दृष्टिकोण में परिवर्तन और वह दृष्टिकोण परिवर्तन क्या है, हे अर्जुन, मैं तुम्हें सिखाऊंगा। वास्तव में कृष्ण स्वयं एक महान शिक्षक हैं। इसलिए वे अर्जुन को सिखाने जा रहे हैं कि यह निम्नलिखित बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोकों में कैसे किया जाना चाहिए। ये सभी श्लोक सुंदर हैं; दयानंद को ये श्लोक बहुत पसंद हैं, वे इन श्लोकों पर टिप्पणी करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए अगले दो श्लोक सभी की ध्यान से समझना चाहिए। राजनीति और स्वार्थ में वर्ण व्यवस्था के विषय मे ज़ितनी भी भ्रांति है, वह दूर होनी चाहिए। मनु स्मृति जलाने से कोई शुद्र ब्राह्मण नहीं बन सकता और देश, जाति और धर्म को छोड़ कर स्वार्थ में विधर्मियों के साथ खड़ा हो कर कोई ब्राह्मण नहीं रह सकता।
।। हरि ॐ तत् सत्।। गीता विशेष -18.44 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)