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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.41 II

।। अध्याय      18.41 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

“brāhmaṇa- kṣatriya- viśāḿ,

śūdrāṇāḿ ca parantapa..।

karmāṇi pravibhaktāni,

svabhāva- prabhavair guṇaiḥ”..।।

भावार्थ: 

हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥४१॥

Meaning:

The duties of braahmans, kshatriyas, vaishyas and shoodras, O scorcher of foes, have been classified according to the gunaas, which have born of nature.

Explanation:

All of us are born with unique proportion of gunaas, with certain levels of sattva, tamas and rajas. These gunaas determine how we perceive the world, how we think about the world, and how we act and transact in the world. At a minimum, we want to live a healthy and materially prosperous life. Now we have seen that high levels of rajas and tamas can bring our downfall. But we cannot sit at home by ourselves, fearful of their impact. We have to engage with the world, transact with society. Someone said very appropriately that to find the perfect profession is like finding a perfect life-partner. What should we do?

Here, Shree Krishna explains that people have different natures, according to the guṇas that constitute their personality, and thus different professional duties are suitable for them. The system of varṇāśhram dharma was a scientific organization of society according to svabhāva-prabhavair guṇaiḥ (work based on one’s nature and guṇas). In this system of categorization, there were four āśhrams (stages in life) and four varṇas (occupational categories). The stages in life were: 1) Brahmacharya āśhram (student life), which lasted from birth till the age of 25. 2) Gṛihastha āśhram (household life), which was regular married life, from the age of 25 till 50. 3) Vānaprastha āśhram (semi-renounced life), which was from the age of 50 till 75. In this stage, one continued to live with the family but practiced renunciation. 4) Sanyās āśhram (renounced order), which was from the age of 75 onward, where one gave up all household duties and resided in a holy place, absorbing the mind in God.

The four varṇas (occupational categories) were Brahmin (priestly class), Kshatriya (warrior and administrative class), Vaishya (mercantile and farming class), and Shudra (worker class). The varṇas were not considered higher or lower amongst themselves. Since the centre of society was God, everyone worked according to their intrinsic qualities to sustain themselves and society and make their life a success by progressing toward God-realization. Thus, in the varṇāśhram system, there was unity in diversity. Diversity is inherent in nature and can never be removed. We have various limbs in our body, and they all perform different functions. Expecting all limbs to perform the same functions is futile. Seeing them all as different is not a sign of ignorance, but factual knowledge of their utilities. Similarly, the variety amidst human beings cannot be ignored. Even in communist countries where equality is the foremost principle, there are party leaders who formulate ideologies; there is the military that wields guns and protects the nation; there are farmers who cultivate the land; and there are industrial workers who do mechanical jobs. The four classes of occupations exist there as well, despite all attempts to equalize. The varṇāśhram system recognized the diversity in human natures and scientifically prescribed duties and occupations matching people’s natures.

However, with the passage of time the varṇāśhram system deteriorated, and the basis of the varṇas changed from one’s nature to one’s birth. The children of Brahmins started calling themselves as Brahmins, irrespective of whether they possessed the corresponding qualities or not. Also, the concept of upper and lower castes got propagated and the upper castes began looking down upon the lower castes. When the system grew rigid and birth-based, it became dysfunctional. This was a social defect that crept in with time and was not the original intention of the Varṇāśhram system. In the next few verses, according to the original categorization of the system, Shree Krishna maps the guṇas of people with their natural qualities of work. It is really very surprises that none of sant clarify the castism of Hindu and also starts revolution against caste system on birth basis instead of work basis.

So, this section of shlokas educates us about analysing our internal proportion of gunaas. This system of classification and analysis is known as the varna system. We have to remind ourselves again to remove all prior conceptions and connotations of varna, which is improperly translated or construed as caste. The caste system as it stands today is not what was envisioned by the Vedas. The analysis of gunaas to understand one’s varna or one’s sphere of activity has to come from within. It cannot be imposed by anyone from the outside.

।। हिंदी समीक्षा ।।

प्रकृति के तीन गुणों का विस्तृत वर्णन करने के पश्चात्, भगवान् श्रीकृष्ण उन गुणों के आधार पर ही मानव समाज का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विवेकपूर्ण विभाजन करते हैं।

इन चार वर्णों के लोगों में कर्तव्यों का विभाजन प्रत्येक वर्ग के लोगों के स्वभावानुसार किया गया है। स्वभाव का अर्थ प्रत्येक मनुष्य के अन्तकरण के विशिष्ट संस्कार हैं, जो किसी गुण विशेष के आधिक्य से प्रभावित हुए रहते हैं। कर्तव्यों के इस विभाजन में व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार को ध्यान में रखा जाता है। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता का मापदण्ड उस व्यक्ति की शरीर रचना अथवा उस के केशों का वर्ण नहीं हो सकता श्रेष्ठता का मापदण्ड केवल उस का स्वभाव और व्यवहार ही हो सकता है। मनुष्यों के स्वभावों में विभिन्नता होने के कारण उन को सौंपे गये अधिकारों एवं कर्तव्यों में विभिन्नता होना स्वाभाविक ही है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि उपयुक्त व्यवसाय की खोज एक उपयुक्त जीवन साथी की खोज करने के समान है लेकिन हम स्वयं अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय की कैसे खोज करें? यहाँ श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार लोगों का स्वभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है जिससे उनके व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है और इसलिए विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक दायित्व उनके लिए सुविधाजनक होते हैं। ‘स्वभाव-प्रभावैः-गुणेः’ (मानव स्वभाव और गुण पर आधारित कर्म) के अनुसार वर्णाश्रम धर्म पद्धति समाज की वैज्ञानिक व्यवस्था थी। इस पद्धति के वर्गीकरण में चार आश्रम थे जिन्हें जीवन की चार अवस्थाएँ भी कहा जाता है और चार वर्ण अर्थात चार व्यावसायिक श्रेणियाँ थी। जीवन की चार अवस्थाएँ इस प्रकार से थीं-(1) ब्रह्मचर्य आश्रम-(विद्यार्थी जीवन) जो जन्म से 25 वर्ष तक की आयु के पश्चात समाप्त होता था। (2) गृहस्थ आश्रम-यह नियमित वैवाहिक जीवन था। यह 25 वर्ष की आयु से 50 वर्ष की आयु तक था। (3) वानप्रस्थ आश्रम- यह 50 वर्ष से 75 वर्ष तक की आयु का था। इस अवस्था में मनुष्य अपने परिवार के साथ रहता था लेकिन वैराग्य का अभ्यास भी करता था। (4) संन्यास आश्रम-यह 75 वर्ष से आगे की अवस्था थी जिसमें मनुष्य अपनी घर गृहस्थी के दायित्वों का त्याग करता था और पवित्र स्थानों में निवास करते हुए मन को भगवान में तल्लीन करता था।

चार वर्णों अर्थात चार व्यावसायिक श्रेणियों में ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग), अत्रिय वर्ग (योद्धा और शासक वर्ग), वैश्य (व्यापार और कृषि वर्ग वाले), शूद्र (कर्मचारी वर्ग) आते थे। वर्णों के मध्य कोई बड़ा या छोटा नहीं माना जाता था। क्योंकि भगवान ही समाज का केन्द्र थे और सभी अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के अनुसार स्वयं और समाज को बनाए रखने के लिए काम करते थे और भगवद्प्राप्ति के लिए प्रगति करते हुए अपने जीवन को सफल बनाते थे। इस प्रकार वर्णाश्रम पद्धति में विविधता में एकता थी। विविधता प्रकृति में अंतनिर्हित है और इसे कोई समाप्त नहीं कर सकता। हमारे शरीर में विभिन्न अंग है और ये सब भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करते हैं। सभी अंगों से एक समान कार्य करने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। इन सबको अलग-अलग समझना अज्ञानता का द्योतक नहीं है बल्कि उनकी उपयोगिता का तथ्यात्मक ज्ञान है। समान रूप से मानव जाति के बीच भी विविधता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। समाजवादी देशों में जहाँ समानता सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है लेकिन वहाँ भी राजनीतिक दलों के नेता हैं जो विचारधारा तैयार करते हैं। वहाँ सेना है जो बंदूकों का प्रयोग करती और देश की सुरक्षा करती हैं। वहाँ किसान हैं जो खेती-बाड़ी करते हैं। इन देशों में औद्योगिक श्रमिक भी हैं जो यांत्रिक कार्य करते हैं। समाजवादी देशों में समानता के प्रयासों के पश्चात भी व्यवसाय के चार वर्ग विद्यमान हैं। वर्णाश्रम पद्धति ने मानवीय प्रकृति में विविधता को मान्यता दी और लोगों के स्वभाव के अनुकूल वैज्ञानिक ढंग से उनके कर्त्तव्य और व्यवसाय निर्धारित किए।

ब्राह्मणादि चारों वर्णों के कर्तव्य परस्पर भिन्न भिन्न हैं तथापि सब का लक्ष्य समाज धारणा एवं सब की आध्यात्मिक प्रगति ही है। प्रत्येक वर्ण के लिए शास्त्रों में विधान किये हुए कर्तव्यों का पालन, यदि उस उस वर्ण का व्यक्ति करता है तो वह व्यक्ति क्रमश तमस एवं रजस से ऊपर उठ कर सत्त्वगुण में स्थित हो सकता है। तत्पश्चात् ही त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप की अनुभूति में निष्ठा संभव होगी।

प्रकृति के तीन गुणों के स्वरूप सत-रज-टीम एवम प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान, कर्म, कर्तव्य, बुद्धि एवं धृति के अध्ययन से ही उसका वर्ण निश्चित किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में, जब किसी पुरुष को सात्त्विक कहा जाता है, तो इसका अर्थ केवल इतना ही है कि सामान्यत उस में सात्त्विक गुण का आधिक्य रहता है। कभी कभी सात्त्विक पुरुष में रजोगुण का अथवा तमोगुणी पुरुष में सत्त्वगुण का आधिक्य हो सकता है।

सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण, रजोगुण की प्रधानता और सत्त्वगुण की गौणता से क्षत्रिय, रजोगुण की प्रधानता और तमोगुण की गौणता से वैश्य तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र होता है।

मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, उस के अन्तःकरण में उस कर्म के संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारों के अनुसार उस का स्वभाव बनता है। इस प्रकार पहले के अनेक जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है, उसी के अनुसार उस में सत्त्व, रज और तम – तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। इन गुणवृत्तियों के तारतम्य के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है। कारण कि मनुष्य में जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं वैसा ही वह कर्म करता है।

(1) कर्म दो तरह के होते हैं – (1) जन्मारम्भक कर्म और (2) भोगदायक कर्म। जिन कर्मों से ऊँच नीच योनियों में जन्म होता है, वे जन्मारम्भक कर्म कहलाते हैं और जिन कर्मों से सुखदुःख का भोग होता है, वे भोगदायक कर्म कहलाते हैं। भोगदायक कर्म अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति को पैदा करते हैं, जिस को गीता में अनिष्ट, इष्ट और मिश्र नाम से कहा गया है।

यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – इन तीनों के लिये एक पद और शूद्रों के लिये अलग एक पद देने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – ये द्विजाति हैं और शूद्र द्विजाति नहीं है। क्योंकि हर प्राणी को शास्त्र निहित कर्म करने को कहा गया है,  इसलिये इन के कर्मों का विभाग अलग अलग है और कर्मों के अनुसार शास्त्रीय अधिकार भी अलग अलग है। यदि कोई मनुष्य किसी अन्य वर्ग के कर्म को करना चाहे तो उसे अपने गुणों में सुधार करना होगा और यदि कोई व्यक्ति अपने गुण धर्म के अनुसार अपने निहित कर्म नहीं करता तो उस के कर्म के फल भी उस को अच्छे एवम सही नही मिलते।

कोई भी व्यक्ति केवल एक गुण से निर्मित नहीं है। जन्म से पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप कुल एवम परिवार में स्थान मात्र मिलता है, जिस से उस के आगे का जीवन पूर्व जन्म के कर्मों के भोग के साथ सात्विक जीवन मे बढ़ने का अवसर मिले। किन्तु वास्तविक वर्ण तो उस के वर्तमान जीवन के कर्मों से तय होता है।

आज भारतवर्ष में समाज की जो स्थिति है, उसमें इस चातुर्र्वण्य का वास्तविक स्वरूप बहुत कुछ लुप्त हो गया है। अब, केवल अनुवांशिक जन्मसिद्ध अधिकार और बाह्य शारीरिक भेद के आधार पर ही जातियाँ तथा अनेक उपजातियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। एक सच्चा ब्राह्मण पुरुष वही है जो सत्त्वगुण प्रधान है, जिसमें इन्द्रियसंयम और मनसंयम है और जो आत्मस्वरूप का निदिध्यासन करने में समर्थ है। परन्तु आज का ब्राह्मण वर्ग मात्र जन्म के आधार पर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है और तामसी वृति ब्राह्मण की हो ही नही सकती। इसलिये मूल स्वरूप में इस सत्य को नकारा नही जा सकता कि कुल से जो स्वयं ब्राह्मण है, वह कर्म के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र ही है। यह दुर्भाग्य है कि उसे कोई सम्मान प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अपने आप को उस सम्मान के योग्य बनाने का वह कभी प्रयत्न ही नहीं करता है।

मनुष्य जन्म से पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर एक अवसर प्राप्त करता है किंतु उस अवसर को अधिक उच्च स्तर एवम सात्विकता की ओर वह अपने कर्मो से तय करता है। जातीय एवम वर्ण के आधार पर भेद भाव तामसी वृति ही है। पूर्व काल मे अनेक महृषि में बाल्मीकि, विश्वामित्र, रैदास, कबीर, परशुराम, जनक आदि हुए जिन के वर्ण समय समय पर कर्मो से बदलते गए और सात्विकता के गुणों को प्राप्त कर सभी ब्राह्मण ही कहलाये।

ब्राह्मणों में भी जन्म के भेद से ऊँचनीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थिति रूप से कर्मों का फल भी कई तरह का आता है अर्थात् सब ब्राह्मणों की एक समान अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती। इस दृष्टि से ब्राह्मणयोनि में भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे। ऐसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी जन्म से ऊँचनीच माने जाते हैं और अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरह की आती है। इसलिये गीता में कहा गया है कि तीनों लोकों में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो तीनों गुणों से रहित हो।अब जो मनुष्येतर योनिवाले पशुपक्षी आदि हैं, उन में भी ऊँचनीच माने जाते हैं जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता, गधा, सूअर आदि नीच माने जाते हैं। कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ, चील आदि नीच माने जाते हैं। इन सबको अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगतिवालों में भी कई तरहके जातिभेद और परिस्थितिभेद होते हैं।

चतुर्वर्ण व्यवस्था स्वभाव जन्य गुणभेद से निर्मित हुई है, यह केवल गीता में कहा गया हो, ऐसा नहीं है। नहुष – युद्धिष्ठर संवाद, द्विज – व्याध संवाद, भृगु जेड भारद्वाज संवाद में महाभारत में विभिन्न पर्व में आता है। दुर्भाग्य यही है कि लोभ, आसक्ति और अज्ञान में इसे जन्म पर आधारित मान कर हिंदू धर्म की सब से बड़ी विसंगति के रूप में खड़ा कर दिया गया। अनुगीता हो या मनु शास्त्र लोग इस पर बहस बिना पूरा पढ़े और समझे करते भी है और अपने को ज्ञानी मानने वाला वर्ग लोभ और लालच में इस का खण्डन भी नही करता।

यद्यपि समय व्यतीत होने के साथ-साथ वर्णाश्रम पद्धति विरूपित हो गयी और वर्गों में परिवर्तन किसी मनुष्य की प्रकृति की अपेक्षा जन्म के आधार पर होने लगा। ब्राह्मणों के बच्चों ने स्वयं को ब्राह्मण कहना आरम्भ कर दिया भले ही वे इसके लिए अपेक्षित गुणों से संपन्न हों या न हों। उच्च तथा निम्न जाति की अवधारणा को भी प्रसारित किया गया और उच्च जातियों के लोग निम्न जातियों को हेय दृष्टि से देखने लगे। जब यह पद्धति कठोर और जन्म आधारित हो गयी तब यह दुष्क्रियात्मक हो गयी। यह एक समाजिक दोष था जो समय के साथ उभरा और यह वर्णाश्रम पद्धति का मूल उद्देश्य नहीं था।

अगले कुछ श्लोकों में इस पद्धति के मूल श्रेणीकरण के अनुसार श्रीकृष्ण लोगों के गुणों को उनके कर्म के स्वाभाविक गुणों के साथ चित्रित करेंगे। आज चार मंत्रों उच्चारण के साथ जो ब्राह्मण वर्ण भेद के अनुसार अहंकार रखता है वो सात्विक गुण नही रखता, इसलिये हम अब भगवान् द्वारा बताए हुए सर्वप्रथम ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म को पढ़ते  हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.41।।

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