।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.39 II Additional II
।। अध्याय 18.39 II विशेष II
।। विशेष-स्वामी रामसुख दास ने सुख की सुंदर विवेचना की है, उसे पढ़ते है। गीता विशेष 18.39 ।।
(1) प्रकृति और पुरुष – दोनों अनादि हैं और ये दो हैं इस प्रकार इन की पृथक्ता का विवेक भी अनादि है। यह विवेक पुरुष में ही रहता है, प्रकृति में नहीं। जब यह पुरुष इस विवेक का अनादर कर के अविवेक के कारण प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब इस सम्बन्ध के कारण पुरुष में राग पैदा हो जाता है।
जब राग बहुत सूक्ष्म रहता है, तब विवेक प्रबल रहता है। जब राग बढ़ जाता है, तब विवेक दब जाता है, मिटता नहीं। पर विवेक ठीक तरह से जाग्रत् हो जाय तो फिर राग टिकता नहीं अर्थात् राग का अभाव हो जाता है और उस समय पुरुष मुक्त कहलाता है।उस राग के कारण मनुष्य की प्रकृतिजन्य सुख में आसक्ति हो जाती है। उस आसक्ति के रहते हुए जब मनुष्य किसी कारणवश सात्त्विक सुख को प्राप्त करना चाहता है, तब राजस और तामस सुख का त्याग करने में उसे कठिनता मालूम देती है। परन्तु जब राग मिट जाता है, तब वह सुख अमृतकी तरह हो जाता है।
राग के कारण ही रजोगुणी सुख आरम्भ में अमृत की तरह दीखता है। पर वह सुख परिणाम में प्राणी के लिये जहर की तरह अनिष्टकारक अर्थात् महान् दुःखरूप हो जाता है। प्रकृतिजन्य सुख की आसक्ति होने पर दुःखी परम्परा का कोई अन्त नहीं आता। जब वही राग तमोगुण का रूप धारण कर लेता है, तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर मनुष्य नींद और आलस्य में समय बरबाद कर देता है तथा आवश्यक कर्तव्य से विमुख होकर अकर्तव्य में लग जाता है। परन्तु तामस पुरुष को इन्हीं में सुख मालूम देता है। इसलिये यह तामस सुख आदि और अन्तमें मोहित करनेवाला है।
(2) जो प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है, वह वास्तव में नहीं है। पर जो नहीं को प्रकाशित करनेवाला तथा उस का आधार है, वह वास्तव में है तत्त्व है। उसी तत्त्व को सच्चिदानन्द कहते हैं। निरन्तर सत्तारूप से रहनेके कारण उसे सत् कहते हैं, ज्ञानस्वरूप होने के कारण उसे चित् कहते हैं और आनन्दस्वरूप होने के कारण उसे आनन्द कहते हैं। उस सच्चिदानन्द परमात्मा का ही अंश होने से यह प्राणी भी सच्चिदानन्द स्वरूप है। परन्तु जब प्राणी असत् वस्तु की इच्छा करता है कि अमुक वस्तु मुझे मिले, तब उस इच्छा से स्वतःस्वाभाविक आनन्द सुख ढक जाता है। जब असत् वस्तु की इच्छा मिट जाती है, तब उस इच्छा के मिटते ही वह स्वतःस्वाभाविक सुख प्रकट हो जाता है।
नित्य निरन्तर रहनेवाला जो सुख रूप तत्त्व है, उस में जब सात्त्विकी बुद्धि तल्लीन हो जाती है, तब बुद्धि में स्वच्छता, निर्मलता आ जाती है। उस स्वच्छ और निर्मल बुद्धि से अनुभव में आनेवाला यह स्वाभाविक सुख ही सात्त्विक कहलाता है। बुद्धि से भी जब सम्बन्ध छूट जाता है, तब वास्तविक सुख रह जाता है। सात्त्विकी बुद्धि के सम्बन्ध से ही उस सुख की सात्त्विक संज्ञा होती है। बुद्धि से सम्बन्ध छूटते ही उस की सात्त्विक संज्ञा नहीं रहती।मन में जब किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होती है, तब वह वस्तु मन में बस जाती है अर्थात् मन और बुद्धि का उस के साथ सम्बन्ध हो जाता है। जब वह मनोवाञ्छित वस्तु मिल जाती है, तब वह वस्तु मन से,निकल जाती है अर्थात् वस्तु का मन में जो खिंचाव था, वह निकल जाता है। उस के निकलते ही अर्थात् वस्तु से सम्बन्धविच्छेद होते ही वस्तु के अभाव का जो दुःख था वह निवृत्त हो जाता है और नित्य रहनेवाले स्वतःसिद्ध सुख का तात्कालिक अनुभव हो जाता है। वास्तव में यह सुख वस्तु के मिलने से नहीं हुआ है, प्रत्युत राग के तात्कालिक मिटने से हुआ है, पर राजस पुरुष भूल से उस सुख को वस्तु के मिलने से होनेवाला मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो वस्तुका संयोग बाहर से होता है और प्रसन्नता भीतर से होती है। भीतर से जो प्रसन्नता होती है, वह बाहर के संयोग से पैदा नहीं होती, प्रत्युत भीतर (मन में) बसी हुई वस्तु के साथ जो सम्बन्ध था, उस वस्तु से सम्बन्धविच्छेद होने पर पैदा होती है। तात्पर्य यह है कि वस्तु के मिलते ही अर्थात् बाहर से वस्तु का संयोग होते ही भीतर से उस वस्तु से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और सम्बन्धविच्छेद होते ही नित्य रहनेवाले स्वाभाविक सुख का आभास हो जाता है।
निद्रा दो प्रकार की होती है – युक्तनिद्रा और अतिनिद्रा।,(1) युक्तनिद्रा – निद्रा में एक विश्राम मिलता है। विश्राम से शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण में नीरोगता, स्फूर्ति, स्वच्छता, निर्मलता और ताजगी आती है। ताजगी आने से साधनभजन करने में और सांसारिक काम करने में भी शक्ति मिलती है और उत्साह रहता है। इसलिये युक्तनिद्रा दोषी नहीं है, प्रत्युत सब के लिये आवश्यक है।
(2) अतिनिद्रा – समय पर सोना और समय पर जागना युक्तनिद्रा है और अधिक सोना अतिनिद्रा है। अतिनिद्रा के आदि और अन्तमें शरीर में आलस्य भरा रहता है। शरीर में भारीपन रहता है। अधिक नींद लेने का स्वभाव होने से हरेक कार्य में नींद आती रहती है।
जब नींद में बुद्धि तमोगुण में लीन हो जाती है, तब बुद्धि की स्थिरता को लेकर वह सुख प्रकट हो जाता है। कारण कि तमोगुण के प्रभाव से नींद में जाग्रत् और स्वप्न के पदार्थों की विस्मृति हो जाती है। पदार्थों की स्मृति दुःखों का कारण है। पदार्थों की विस्मृति होने से निद्रावस्था में पदार्थों का वियोग हो जाता है तो उस वियोग के कारण स्वाभाविक सुख का आभास होता है, इसी को निद्रा का सुख कहते हैं।
परन्तु बुद्धि की मलिनता से वह स्वाभाविक सुख जैसा है, वैसा अनुभव में नहीं आता। तात्पर्य है कि बुद्धि के तमोगुणी होने से बुद्धि में स्वच्छता नहीं रहती और स्वच्छता न रहने से वह सुख स्पष्ट अनुभव में नहीं आता। इसलिये निद्रा के सुख को तामस कहा गया है । इन सब का तात्पर्य यह है कि सात्त्विक मनुष्य को संसार से विमुख होकर तत्त्व में बुद्धि के तल्लीन होने से सुख होता है राजस मनुष्य को राग के कारण अन्तःकरण में बसी हुई वस्तु के बाहर निकलने से सुख होता है और तामस मनुष्य को वस्तुओं के लिये किये जानेवाले कर्तव्य कर्मों की विस्मृति से और निरर्थक क्रियाओं में लगने से सुख होता है। इस से यह सिद्ध हुआ कि जो नित्य निरन्तर रहनेवाला सुखरूप तत्त्व है, वह असत् के सम्बन्ध से आच्छादित रहता है। विवेकपूर्वक असत् से सम्बन्धविच्छेद हो जाने पर रागवाली वस्तुओं के मन से निकल जाने पर और बुद्धि के तमोगुण में लीन हो जाने पर जो सुख होता है, वह उसी सुख का आभास है। तात्पर्य यह हुआ कि संसार से विवेकपूर्वक विमुख होने पर सात्त्विक सुख, भीतर से वस्तुओं के निकलने पर राजस सुख और मूढ़ता से निद्राआलस्य में संसार को भूलने पर तामस सुख होता है परन्तु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थों से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद से ही होता है। इन सुखों में जो प्रियता, आकर्षण और (सुखका) भोग है, वही पारमार्थिक उन्नति में बाधा देनेवाला और पतन करनेवाला है। इसलिये पारमार्थिक उन्नति चाहनेवाले साधकों को इन तीनों सुखों से सम्बन्धविच्छेद करना अत्यन्त आवश्यक है।
सुख के दो स्वरूप है, शारीरिक और मानसिक। अतिभौतिकवाद शारीरिक सुख के पीछे रहता है किंतु शारीरिक सुख स्थायी नही है। पशु भी शारीरिक सुखों के पीछे पूरा जीवन व्यतीत कर देते है, इसलिए आत्यंतिक निवृति और चिर आनंद के सुख के लिए अतिभौतिकवाद से परे आध्यात्मिक अर्थात मानसिक सुख की आवश्यकता होती है। इसलिए ज्ञानी पुरुष द्वारा मन और बुद्धि से आत्मतत्व का विचार किया जाता है। क्योंकि यह सुख आत्मवश है, इस के लिए किसी अन्य का सुख न्युन नही करना पड़ता, यह अपने ही प्रयत्न से हमे मिलता है, इसलिए आत्मिक सुख की ओर जितना बढ़ते है, यह सुख भौतिकवाद के सुख की भांति कष्टमय नही प्रतीत हो कर बढ़ता ही जाता है। मन प्रसन्न हो जाए तो क्या अमीरी और क्या गरीबी। कोई भी अभाव हमारे सुख को कम नहीं कर सकता।
जब मानसिक सुख आत्मनिष्ठा के साथ आत्मनिष्ठ बुद्धि से आत्मा को जानने और आत्मिक प्रसन्नता के होते है, वह स्थायी और सात्विक होंगे। किंतु यही मानसिक सुख इंद्रियों, विषयो और साधनों से मन और शरीर की प्रसन्नता के लिए भौतिक साधनों द्वारा किए जाएंगे तो अस्थायी एवम राजसी होंगे। इसी प्रकार जो सुख इंद्रियों और विषयो से शरीर के लिए उपलब्ध किए जाएंगे, वह तामसी, पशुवत और प्रकृति के होंगे।
कठोनिषद में नचिकेता ने प्रेय सुख जो संसार और प्रकृति के साथ जुड़े है, लालच में न आते हुए स्वीकार किए। उस ने आत्म ज्ञान प्राप्ति का गया, जो आत्मा के लिए (श्रेय) श्रेयस्कर या कल्याणकर का वरदान मांगा।
समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य को ‘ भग ‘ कहते है, इस को धारण करने वाले भगवान है। अर्थात आध्यात्मिक सुख का अर्थ सन्यास नही होता, निष्काम कर्मयोगी होता है। किसी भी भगवान ने ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य में किसी भी तरह के ऐश्वर्य का त्याग नही किया। इसलिए कर्तव्य कर्म के पालन में अर्जुन को भी अपने गुण धर्म में युद्ध का त्याग नही करते हुए, निष्काम हो कर युद्ध करना चाहिए। यह संसार सामर्थ्यवान निष्काम कर्मयोगी को पूजता है, उन का अनुगमन करता है। उन का आचरण अन्य के लिए अनुगमन करने का कारण होता है, युद्धभूमि में यदि अर्जुन मोह में सन्यास लेता है, तो धर्म के युद्ध कौन करेगा। हिमालय की कंदराओं में जो मात्र अपने उद्धार के तप कर रहे है, सृष्टि यज्ञ चक्र में वे ब्रह्मा द्वारा जनकल्याण के अपने कर्तव्य धर्म का पालन भी नही कर रहे।
सुख का अर्थ ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और वैराग्य त्याग नही है, सुख का अर्थ किसी भी वस्तु के प्रति राग, आसक्ति, अहम, मोह और द्वेष का त्याग है। सांसारिक सुखों के भोग के लिए जीवन नही है, हमारा परम साध्य अतिभौतिकवाद यदि हो तो वह अनित्य और अपूर्ण है, उस की साधना से हमे अनित्य और अपूर्णता ही मिलेगी। इसलिए ज्ञानी लोग अतिभौतिकवाद का उपभोग भी जन कल्याण के लिए करते है, श्रेय आत्मनिष्ठ हो कर आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष गीता – 18.39 ।।
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