।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.39 II
।। अध्याय 18.39 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.39॥
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥
“yad agre cānubandhe ca,
sukhaḿ mohanam ātmanaḥ..।
nidrālasya- pramādotthaḿ,
tat tāmasam udāhṛtam”..।।
भावार्थ:
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ॥३९॥
Meaning:
That which deludes the self initially and, in its result, caused by sleep, lethargy and intoxication, that joy is called taamasic.
Explanation:
Tāmasic happiness is of the lowest kind and is foolishness from beginning to end. It throws the soul into the darkness of ignorance. And yet, since there is a tiny experience of pleasure in it, people get addicted to it. That is why cigarette smokers find it difficult to break their habit, even while knowing fully well it is harming them. They are unable to reject the happiness they get from the addiction. Shree Krishna states that such pleasures—derived from sleep, laziness, and negligence—are in the mode of ignorance.
There are some people in this world for whom even ten hours of sleep is not enough. Some others do not want to start any task unless they are reminded several times. Or even worse, some people constantly seek alcohol, smoking or drugs. There has to be a reason why people gravitate to such methods. They derive joy, happiness and a sense of pleasure in these things, even if they know that they will lead to social, physical and mental ruin in the long run. Such a kind of joy is called taamasic sukha.
Shri Krishna says that such people are in moha. They are deluded into thinking that the state of stupor, created by indulging in excessive sleep, laziness and intoxication, is happiness. In other words, there is some sensation of joy which has to be acknowledged, but it is unwanted and destructive. Worse still, this perverse type of joy remains throughout the beginning, middle and end of the action. A lazy person will remain comfortably situated in his stupor throughout the day and continue in his stupor through sleep in the night.
If we examine our lives, we may see that there are a few moments where we may sink into partaking taamasic joy. It is next to impossible to come out of this state once we are in it. Once someone has had a high quantity of alcohol, for instance, there is no way for them to recover. They just have to wait for it to leave the body naturally.
Short of keeping a high level of awareness towards what we eat, drink, watch and think about, there is no clear antidote for taamasic joy.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कबीर कहते है- सुखिया सब संसार है, खाये और सोवे। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे। जो सुख का आधार ही निंद्रा, आलस्य एवम प्रमाद हो, उस सुख में बुद्धि आरंभ एवम परिणाम में मोहित हो कर अपने को नष्ट ही करती है। वह अज्ञानी जीव मोहित सा हो कर जिसे सुख मानता है, वह तामसी ही है क्योंकि उस के मुक्ति के कोई उपाय होते ही नही और वह शुरू से ही परिणामस्वरूप दुखो को प्राप्त होता है।
काव्य शास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति दिमाता व्यासनेन च मूर्काणाम, निद्राय कलहें वा ।।
अर्थात् बुद्धिमान लोग अपना समय काव्य-शास्त्र अर्थात् पठन-पाठन में व्यतीत करते हैं वहीं मूर्ख लोगों का समय व्यसन, निद्रा अथवा कलह में बीतता है।
निद्रा का अर्थ सर्वविदित निद्रावस्था तो है ही किन्तु वेदान्त दर्शन के अनुसार स्वस्वरूप के अज्ञान की अवस्था भी निद्रा कहलाती है। इस आत्म अज्ञान के कारण ही मनुष्य विषय भोगों में सुख की खोज करता है और उस में ही आसक्त हो जाता है। आलस्य क्रियाशीलता रजोगुण का धर्म है और उस के विपरीत आलस्य तमोगुण का धर्म है। तामसी पुरुष की कर्म को टालने की प्रवृत्ति होती है और इस प्रकार आलस्य में ही वह अपने समय को व्यतीत कर देता है। यही उस का सुख है। ऐसा पुरुष विचार करने में भी आलसी होता है। इसलिए वह जीवन में यथार्थ निर्णय नहीं ले पाता। प्रमाद यह सत्त्वगुण के लक्षण सजगता और विवेक के सर्वथा विपरीत लक्षण है। प्रमादशील मनुष्य अपने हृदय के उच्च गुणों के आह्वान की अवहेलना और उपेक्षा कर के निम्न स्तर के भोगों में रमता है। फलत वह दिन प्रतिदिन पशु के स्तर तक गिरता जाता है। निद्रा, आलस्य और प्रमाद से प्राप्त होने वाला सुख प्रारम्भ और अन्त में मनुष्य को मोहित करने वाला होता है और ऐसा सुख तामस माना गया है।
प्रमाद दो तरह का होता है, अक्रिय प्रमाद और सक्रिय प्रमाद। घर, परिवार, शरीर आदि के आवश्यक कामों को न करना और निठल्ले बैठे रहना अक्रिय प्रमाद है।
व्यर्थ क्रियाएँ (देखना, सुनना, सोचना आदि) करना बीड़ी, सिगरेट, शराब, भाँग, तम्बाकू, खेल तमाशा आदि दुर्व्यसनों में लगना और चोरी, डकैती, झूठ, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, अभक्ष्यभक्षण आदि दुराचारों में लगना सक्रिय प्रमाद है। प्रमाद के कारण तामस पुरुषों को निरर्थक समय बरबाद करने में तथा झूठ, कपट, बेईमानी आदि करने में सुख मिलता है। जैसे काम धंधा करने वाले पैसे (मजदूरी या वेतन) तो पूरे ले लेते हैं, पर काम पूरा और ठीक ढंग से नहीं करते। चिकित्सक लोग रोगियों का ठीक ढंग से इलाज नहीं करते, जिस से रोगी लोग बारबार आते रहें और पैसे देते रहें। दूध बेचने वाले पैंसों के लोभ में दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं। पैसे अधिक देने पर भी वे पानी मिलाना नहीं छोड़ते।
जब थकावट में इंद्रियों की प्रवृति में उपरत हो जाना निंद्रा है, इंद्रिय व्यापार में मंदता से कार्य करना आलस्य है और कर्तव्य के प्रति उदासीनता से कार्य करना प्रमाद है। इन तीनों का मूल है, मोह। क्योंकि की मोह में व्यक्ति का विवेक नष्ट होता है और वह निषिद्ध, वर्जित और अनैतिक कार्य की ओर आकर्षित हो जाता है। मोह से वह अपने कार्य से जिस सुख का अनुभव करता है, वह तामसी होता है।
जब तमोगुणी प्रमादवृत्ति आती है, तब वह सत्त्वगुण के विवेक ज्ञान को ढक देती है और जब तमोगुणी निद्रा आलस्य वृत्ति आती है, तब वह सत्त्वगुण के प्रकाश को ढक देती है। विवेकज्ञान के ढकने पर प्रमाद होता है तथा प्रकाश के ढकने पर आलस्य और निद्रा आती है। तामस पुरुष को निद्रा, आलस्य और प्रमाद , तीनों से सुख मिलता है, इसलिये तामस सुख को इन तीनों से उत्पन्न बताया गया है।
व्यवहार में तामसी सुख प्रकृति और मन के स्वाभाविक गुण है, इसलिए यदि जीव अभ्यास और अध्यास न करे, तो उसे सुख निंद्रा, आलस्य, मद और मोह में ही दिखता है, जो उस के संपूर्ण जीवन को नष्ट कर देता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.39।।
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