।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.35 II Additional II
।। अध्याय 18.35 II विशेष II
।। मन, ज्ञान, कर्ता, बुद्धि और धृति ।। विशेष 18.35 ।।
ज्ञानेद्रिया एक यंत्र के समान है, उन में अच्छे – बुरे, सही या गलत का ज्ञान नहीं है। मुंह से शब्द वायु, जीभ और कंठ से विभिन्न ध्वनि से उत्पन्न होते है। इसलिए विज्ञान भी इन यंत्रों को बना पाया है और ये कृत्रिम यंत्र मानव शरीर में फिट भी किए जा रहे है। इन यंत्रों द्वारा क्या देखा सुना, समझा,बोला जा रहा है, वह भी मन में स्थित अनुभव, ज्ञान और शिक्षा से जाना जा सकता है, कंप्यूटर से ज्ञान असीमित मात्रा में भर के विज्ञान इन ज्ञानेद्रियों से प्राप्त सूचना को प्रदर्शित कर सकता है। प्रत्येक ज्ञान के प्रभाव से निष्कर्ष एक ही होगा अनिवार्य नहीं, यह स्थिति, स्थान, व्यक्ति, वस्तु, समय के अनुसार बदल जाता है। इसलिए उस ज्ञानेद्रियों से प्राप्त सूचना से विभिन्न मार्ग अथवा संकल्प या विकल्प तैयार होते है, किंतु विज्ञान यहां कोशिश करता है, कि पूर्व के प्रसंग से इस का क्या विकल्प उचित है।
मन और विज्ञान की समानता यही तक है। विज्ञान एक साथ तर्क, वितर्क और कुतर्क नही कर सकता, वह जो कुछ भी संचित ज्ञान है, उस पर अपना निर्णय दे देता है। किंतु मनुष्य की सरंचना में मन, ज्ञान, कर्ता, बुद्धि एवम धृति में निर्णय विवेक, अविवेक और भावनात्मक आधार पर होते है, जब की विज्ञान में भावनाओ और अविवेक का कोई स्थान नहीं है। धृति में व्यक्ति सत्य को समझते हुए भी नकार सकता है, विज्ञान में नही।
मनुष्य का ज्ञान प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होता है, वह सात्विक, राजसी और तामसी विभाग में बटा है। किसी भी मनुष्य की शिक्षा, उस के आस पास का वातावरण, स्थान, संगति और आस्था का प्रभाव उस के चरित्र की नीव होती है। उच्च कोटि का ज्ञान, शास्त्रों, वेदों और गुरु के वचनों से प्राप्त होता है, वह सात्विक होता है, जो ज्ञान विज्ञान, संसार और सांसारिक अनुभव से मिलता है वह राजसी होता है। किंतु जिसे ज्ञान नही मिलता और कष्ट ही मिलते है, उस का संसार के प्रति ज्ञान तामसी हो जाता है। ज्ञान की शिक्षा का प्रभाव राम और रावण या कृष्ण और कंस या अर्जुन और दुर्योधन से कर सकते है।शास्त्र के अनुसार यह सभी ज्ञानी ही है, किंतु अंतर उस के उपयोगिता पर है।
अतः जो तथ्य इंद्रिय इकठ्ठी करती है, वह मन द्वारा छांट कर प्रस्तुत करने और न करने के लिए तैयार की जाती है। क्योंकि मन भावना के ओत प्रोत है, इसलिए कभी कभी सूचनाएं मन की भावनाओ को अधिक प्रभावित कर देती है, तो वह भी बिना बुद्धि के निर्णय के कर्म इंद्रियों को कार्य करने को कह देता है। कर्ण ज्ञानी था, किंतु अनेक बार अपमानित होने से जब द्रोपति का वस्त्र हरण का विषय आया तो वह अपने अपमान की भावना में बह कर द्रोपती के चीर हरण के प्रयास में सम्मिलित हो गया।
बुद्धि ज्ञान का स्वरूप है, किंतु ज्ञान और गुण दोनो अलग अलग विषय है। बुद्धि में ज्ञान अर्थात शिक्षा अत्यधिक है किंतु उस की निर्णय लेने की क्षमता पर अज्ञान का प्रभाव होने से वह सात्विक, निष्पक्ष या सत्य का निर्णय नही ले पाती। अतः जब तक बुद्धि चिंतन मनन द्वारा सत्य और असत्य में भेद नहीं कर पाती, तब तक वह ज्ञानी होने से भी सात्विक नही है। कंप्यूटर में भी विज्ञान ने ज्ञान तो भरपूर भर दिया, किंतु उस का चिंतन या मनन मात्र ज्ञान पर आधारित है, वह समय, स्थान, व्यक्ति और अवस्था के अनुसार निर्णय नही ले सकता। विज्ञान के ज्ञान और मनुष्य के ज्ञान में यही विभेद है।
बुद्धि का ज्ञान उस की धृति अर्थात प्रेरणा शक्ति पर है। हम जिस संगत में रहते है, जिस समाज और देश को अंगीकृत करते है। जिस धर्म की विचार धारा को समझते है, हमारी धृति भी वैसी बन जाती है और बुद्धि को उस ओर कार्य करने को प्रेरित करती है।
आज का युग अति भौतिकवाद का है। ज्ञान का महत्व समाज में धन, प्रतिष्ठा, पद, भोग – विलास से नापा जाता है। मोक्ष भी भोग के साधन के रूप में समाज में पेश कर दिया है। व्यवसाय वस्तु तक सीमित न हो कर ज्ञान, अनुसंधान, सेवा, भक्ति और प्रवचन तक का हो गया है। गीता जिस का हम अध्ययन कर रहे है, इस का ज्ञान का प्रसार कम नहीं है, किंतु जो इस के ज्ञान को समझ कर निष्काम कर्म योगी है, वह अत्यंत सीमित है। यही कलयुग है, जहां ज्ञान का अर्थ भौतिकवाद हो, उस में अध्यात्म को खोजना कठिन है।
इस लिए आवश्यक है की ज्ञान को ज्ञान की तरह समझे, व्यापार और व्यवसाय की तरह नहीं।कर्मयोगी बने, धन, पद, सम्मान को प्राप्त करे किंतु इन के अधीन हो कर या इन को लक्ष्य मान कर नही। जब तक मन, प्राण, बुद्धि और धृति सभी कर्ता के साथ नही जुड़े, चिंतन करते रहे, उच्च महापुरुष का अनुगमन करे।
ज्ञान जो भी प्राप्त किया जाए, वह सात्विक बुद्धि से प्राप्त किया जाए, क्योंकि ज्ञान स्वयं में गुण रहित है, यह कर्ता के गुण के अनुसार कार्य करता है। जब तक बुद्धि और धृति सात्विक नही होगी, ज्ञान सात्विक नही होगा। इस के लिए कर्ता को ही निष्काम होना होगा। ध्यान और चिंतन से अपने विकारों को समझना होगा।
सड़क पर किसी चौराहे पर लाल बत्ती होते ही, जिस प्रकार गाडियां खड़ी होती है, कुछ लाल बत्ती में नियम तोड़ कर भी भागने की चेष्टा करते है। इस में लाल बत्ती का ज्ञान लगभग सभी को है, किंतु चेष्टाएं अलग अलग, क्योंकि सब की बुद्धि, धृति और ज्ञान में समन्वय का एक समान विस्तार नही है। चौराहे पर खड़ा सिपाही को कानून का ज्ञान भी है, पद के अनुसार अधिकार भी, किंतु बुद्धि अपने गुण से कार्य करती है, इसलिए कुछ नियम भंग के लिए दोषियों को पकड़ते है और कुछ स्वयं की गैर कानूनी कमाई के लिए। इस में सही और गलत के भी कहने वाले का ज्ञान, बुद्धि और धृति यदि सात्विक नही है तो वह अपनी भावना और विचार से निर्णय एक ही बात के दो दे सकता है। न्याय व्यवस्था में ज्ञान के अतिरिक्त बुद्धि और धृति से निर्णय होते है। अतः कर्ता का मन ही अनुभवों को इकठ्ठा कर के आगे की विषय में इंद्रियों को कार्य करने का आदेश देता है, बार बार अधिक संदेश मिलने से, मन इतना अधिक संदेह और अनिर्णय में परेशान हो जाता है, कि वह बुद्धि के नियंत्रण से बाहर हो जाता है। इसलिए झूठ बोलने वाले या बिना पूछे किसी वस्तु को उठा लेने की आदत मन से नियंत्रित होती है, उसे यह गलत है या सही, बताने वाली बुद्धि नही होती। हम कह सकते है, जब बुद्धि का नियंत्रण मन पर कमजोर होगा, मन अपनी सुविधा, सुख और लाभ के लिए आदत बना लेगा, चाहे वह कर्ता के लिए लाभ दायक हो या न हो।
इसी प्रकार बुद्धि जब उपलब्ध तथ्यों को नदरांदाज कर के मन से प्रेरित हो कर किसी वस्तु, विषय या नियम को अपना आत्म सम्मान बताने लगती है, तो विवेक का अभाव हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने लोक कल्याण के किसी भी मर्यादा में बंधना स्वीकार नहीं किया, किंतु निष्काम और लोकसंग्रह के स्वार्थ, लोभ और अहंकार से दूर हो कर कार्य किया। जबकि भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से, कर्ण अपने मित्र धर्म से और द्रोण अपने सेवा धर्म के कर्तव्य से बंध गए थे। इसलिए यह तीनो ज्ञानी हो कर भी बुद्धि और धृति से राजसी एवम तामसी वृति के साथ थे।
गीता में कर्ता का वर्णन करते हुए ज्ञान, मन, बुद्धि और धृति का वर्णन स्पष्ट और पृथक पृथक किया है, किंतु हमे यह नहीं भूलना चाहिए, कर्म करते वक्त यह सभी एक रूप हो कर कार्य करती है। आदमी बुरे कार्य में संलिप्त हो और बुरा नही हो, यह नही हो सकता। भीष्म, कर्ण और द्रोण अत्यंत ज्ञानी, सात्विक और तीव्र बुद्धि के थे, अपने भी थे, किंतु उन की बुद्धि और धृति सत्य और असत्य में अंतर समझने में दूषित थी, क्योंकि सभी अपने अपने निर्णय के राजसी धृति से प्रेरित थे।
अतः आज के युग में भी राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक और न्यायिक मापदंड अतिभौतिकवाद से प्रभावित है। सात्विक ज्ञान के अभाव में भौतिकवाद में शिक्षा जीविका उपार्जन का एक हिस्सा बन गया है। मोक्ष का अर्थ स्वर्ग को प्राप्त करना है। धर्म आध्यात्मिक चर्चा की बजाय राग – द्वेष की कट्टरता में परिवर्तित हो रहा है, जिस में कर्मकांड का अधिक मूल्य है। इस में आध्यात्मिक और सात्विक मूल्यों के साथ ज्ञान का प्रसार कुछ महापुरुष अवश्य कर रहे है किंतु उन की संख्या सीमित है। यही कलयुग का प्रभाव कर्ता की बुद्धि और धृति पर अधिक होने से जीवन के मूल्य ही परिवर्तित हो रहे है। ज्ञान का प्रसार बिना सात्विक बुद्धि और धृति के प्रसार के अधूरा है।
प्रश्न यह भी जीव की बुद्धि और धृति पर किस बात का प्रभाव अधिक होता है। बुद्धि को सूचनाएं इंद्रियों से मन के द्वारा प्राप्त होती है, इसी प्रकार समस्त क्रियाएं या कर्म भी कर्मेंद्रियां ही करती है। इसलिए ताप, शीतलता, सुख, दुख, स्पर्श, कोमलता का प्रथम अनुभव मन को होता है, वह उस को अपने भावनात्मक जानकारी के अनुसार विचार करता है। किसी सुंदर स्त्री को देखने, स्वादिष्ट भोजन का आनंद का अनुभव मन ही करता है, इसलिए वह क्षणिक सुख की ओर भागता है। बुद्धि मन के संग्रह पर भले बुरे पर विचार कर के उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, बताती है। अनुशासन की यह क्रिया धृति पर निर्भर है। यदि व्यक्ति की धारणा शक्ति प्रबल है, तो मन को विवश हो कर वह कार्य करना पड़ेगा, अन्यथा धारणा शक्ति कमजोर है, तो मन विद्रोह कर के बुद्धि की बात नही मानता। इसलिए मन – बुद्धि – धृति में जो भी कर्ता द्वारा नियंत्रित होगा, वही कार्य होगा। सात्विक कार्य करने के लिए अधिक अनुशासन की जरूरत होती है, जब की तामसी कृत्य के मन स्वत: ही इंद्रियों के प्रभाव में कर्म करता है। जब तक सात्विक ज्ञान न हो तो बुद्धि भी दिशा निर्देश नही दे सकती और धृति भी अनुशासित नही कर सकती।
क्या सभी सात्विक ज्ञानी, एक समान बुद्धि और धृति को अपना सकते है? क्योंकि संसार प्रकृति की रचना है, परमात्मा ने संसार एक से अनेक होने को रचा है, इसलिए प्रकृति के प्रत्येक गुण को सात्विक, राजसी और तामसी विचार धाराओं में बांटा है, यह उस के खेल की चौपड़ है, जब चाहे समेट ले, इस चौपड़ में जीव के स्वरूप में वह ही कर्म फल के खेल को खेलता है। इसलिए जो चतुर ज्ञानी परमात्मा को समर्पित है, वह शीघ्र ही इस खेल से मुक्त हो कर उसे प्राप्त करता है, अन्य सभी इस चौपड़ में बिछे मोहरे की तरह खेल में खिलाए जा रहे है। जब प्रलय होगी तो सभी समेट दिए जाएंगे। अब आप पर निर्भर है कि संसार में यह खेल खेलना है या अपने परमात्मा को प्राप्त करना है।
।। हरि ॐ तत् सत् ।। विशेष गीता – 18.35 ।।
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