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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.32 II

।। अध्याय      18.32 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥

“adharmaḿ dharmam iti yā,

manyate tamasāvṛtā..।

sarvārthān viparītāḿś ca,

buddhiḥ sā pārtha tāmasī”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है॥ ३२॥

Meaning:

That by which one understands adharma as dharma, and all things as completely contrary, that intellect is called taamasic.

Explanation:

The tāmasic intellect is without the illumination of sublime knowledge. Hence, it misconstrues adharma to be dharma. For example, a drunk is attached to the inebriation that drinking alcohol provides. Hence, his poor intellect, covered with the fog of darkness, cannot even perceive the sheer ruin that he brings onto himself and he does not even mind selling his property to get his next bottle. In the tāmasic intellect, the faculty of judgment and the ability for logical reasoning become lost.

So, Krishna defines a tāmasic intellect, which does not have any doubt at all. Though it appears as though the tāmasic intellect is a wise intellect, because tāmasic intellect or intelligence does not have a doubt. It is very definite about the wrong conclusions it has made and that wrong knowledge, the tāmasic intellect strongly holds on; assuming that this is the right thing.

There are four classes of the person for discussion or teaching:

1. He who knows not and knows not that he knows not, is a fool; shun him.

2. he who knows not and knows that he knows not, he is ignorant; teach him.

3. he who knows and knows not that he knows, he is asleep; wake him.

4. he who knows and knows that he knows; is wise; follow him.

So here the tāmasic intellect is the fifth variety; he does not know but thinks he knows and therefore he does not want to learn from the elders; he criticises the parents, he criticises the teachers; he criticises the sanyāsis, he criticises the scriptures, as though he has got sufficient wisdom to pass the comment on all these things; and we can never do anything with regard to such people, because even if you want to improve them, they must be available for listening to you.

Let’s imagine that there is a house with three rooms, each having a 100 W light bulb. One room is cleaned and dusted daily, so the bulb light shines brightly. All objects in this room are seen crystal clear. The second room is cleaned once every month, so the light from the bulb is partially covered by dust. Some objects in the room are seen clearly, but some are fuzzy. The third room has not been cleaned for several years, so the bulb delivers hardly any light at all, since it has acquired a thick coating of dust and dirt on it. We can barely see any object in this room.

Similarly, our intellect, which is like a light bulb, gets covered by the dirt of selfish desires. A raajasic intellect is like the bulb in the second room, with partially obscured light. But the taamasic intellect is like the bulb in the third room. The level of selfish desires is so great that the intellect cannot shine through. Shri Krishna says that such a such a person behaves in a totally ignorant and illogical fashion, confusing what is right with what is wrong. Vipareeta, the word used to describe such an intellect, means topsy turvy, contrary, reverse.

Where did such a high degree of selfishness come from? It is nothing but a bundle of vaasanaas, impressions that have been gathered since birth, or even through several lifetimes. It starts with the taamasic jnyaanam, the knowledge or worldview, that presents one object, person or situation as the sole goal of attainment, to the exclusion of everything else. It says, “money is the sole aim of life, everything else is secondary”. So the intellect responds: “let’s rob someone to get this money”, and in doing so, going against all logic, morality, ethics and civility. Each time such an action is committed, its strengthens the vaasanaa for stealing and harming people. Over time, a thick cloud of these harmful vaasanaas coat the intellect.

।। हिन्दी समीक्षा ।।

तामसिक बुद्धि उत्कृष्ट ज्ञान से रहित होती है इसलिए यह अधर्म को धर्म बताने का अनर्थ करती है। उदाहरणार्थ एक शराबी शराब से मिलने वाले नशे में आसक्त हो जाता है। इसलिए उसकी मलिन बुद्धि अंधकार के कुहरे से ढक जाती है और वह स्वयं आमंत्रित की गई अपनी दुर्गति को अनुभव नहीं कर पाता और शराब की अगली बोतल क्रय करने के लिए अपनी संपत्ति को बेचने की भी चिंता नहीं करता। तामसिक बुद्धि के कारण उसकी निर्णय लेने और तर्क वितर्क करने की क्षमता नष्ट हो जाती है।

इसलिए कृष्ण तामसिक बुद्धि को परिभाषित करते हैं, जिसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होता। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि तामसिक बुद्धि एक बुद्धिमान बुद्धि है, क्योंकि तामसिक बुद्धि या बुद्धि में संदेह नहीं होता। यह अपने द्वारा निकाले गए गलत निष्कर्षों और गलत ज्ञान के बारे में बहुत निश्चित है, तामसिक बुद्धि दृढ़ता से उस पर टिकी रहती है; यह मानते हुए कि यह सही बात है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं: सर्वार्थ का अर्थ संसार के सभी विषय हो सकते हैं; संसार के प्रत्येक उद्देश्य के संबंध में; अथवा हम अर्थ को पुरुषार्थ मान सकते हैं; प्रत्येक पुरुषार्थ के संबंध में; एक संभ्रम है; धन को कितना महत्व दिया जाना चाहिए; संभ्रम; या तो वह कोई महत्व नहीं देता है; वह भी गलत है; अर्थात् लक्ष्मीदेवी के बिना कुछ नहीं होता; इसीलिए हम लक्ष्मीदेवी की देवी के रूप में पूजा करते हैं; एक भ्रांति यह है कि धन का कोई महत्व नहीं है; और दूसरी भ्रांति यह है कि क्या? धन से शांति और सुख सहित सब कुछ मिल सकता है। दोनों ही भ्रांति हैं; जैसे ज्ञान के संबंध में, भ्रांति है; धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संबंध में भी।

संसार में समझाने के उद्देश्य से चार प्रकार के मनुष्य कहे गए है।

1. जो नहीं जानता और यह भी नहीं जानता कि वह नहीं जानता, वह मूर्ख है; उससे दूर रहो.

2. जो नहीं जानता और यह भी नहीं जानता कि वह नहीं जानता, वह अज्ञानी है; उसे सिखाओ.

3. जो जानता है और यह भी नहीं जानता कि वह जानता है, वह सोया हुआ है; उसे जगाओ.

4. जो जानता है और यह भी नहीं जानता कि वह जानता है; वह बुद्धिमान है; उसका अनुसरण करो।

अतः यहाँ तामसिक बुद्धि पाँचवीं किस्म की है; वह नहीं जानता, परन्तु सोचता है कि वह जानता है और इसलिए वह बड़ों से सीखना नहीं चाहता; वह माता-पिता की आलोचना करता है, वह शिक्षकों की आलोचना करता है; वह संन्यासियों की आलोचना करता है, वह शास्त्रों की आलोचना करता है, मानो उसके पास इन सब बातों पर टिप्पणी करने के लिए पर्याप्त बुद्धि है; और हम ऐसे लोगों के संबंध में कभी कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि यदि आप उन्हें सुधारना भी चाहते हैं, तो उन्हें आपकी बात सुनने के लिए उपलब्ध होना चाहिए।

आप कभी भी तामसिक व्यक्ति को सुधार नहीं सकते; क्योंकि तामसिक व्यक्ति अपने गलत ज्ञान को ही सही ज्ञान मानता है, वह कभी भी अपने ज्ञान को सुधारने की कोशिश नहीं करेगा, वह कभी किसी से सीखने की कोशिश नहीं करेगा।

कहते है हिंदू सोया हुआ है, वह सभी स्थानों में जहां भी कमजोर हुआ, मार दिया गया या भगा दिया गया या फिर आक्रमणकारियों के साथ मिल गया। किंतु स्वार्थ और मोह में अंधा आज भी विघटन करने में लगा है। इन को पुराने 850 साल के इतिहास से कुछ नहीं सीखना और आप इन्हें सिखाने की कोशिश भी करो तो यह आप को ही बुरा कहेंगे। इन के नीति, नियम, शास्त्र और ज्ञान में स्वार्थ और अहंकार इतना अधिक है कि यह यही मानते है कि ये जो सोचते और करते है, वहीं श्रेष्ठ और धर्म के अनुकूल है।

अन्य उदाहरण आधुनिक परिवार  है, जहां शादी विवाह और मृत्यु आदि में आमोद – प्रमोद और धन कमाना प्रमुख है, इसलिए समस्त रीति रिवाज पंडितों से धन के प्रभाव में आनन फानन कर दिया जाता है। अर्थात समस्त धार्मिक क्रियाओं को करना ही धर्म है और उस के नियम, समय और कार्य प्रणाली भी, ये अपनी सुविधा से बनाते है।

धर्म- अधर्म, कर्तव्य- अकर्तव्य एवम कार्य- अकार्य को समझने के लिये हम महाभारत के प्रमुख दो पात्रों का अध्ययन करते है। महाभारत में अनेक पात्र एवम अनेक छोटी छोटी घटनाएं है। हर चरित्र अपने मे एक विशिष्ट गुण रखता है। इतने चरित्र को ले कर किसी ग्रंथ की रचना महृषि व्यास की अनन्त बौद्धिक क्षमता से ही संभव है। चरित्र काल्पनिक मानने वाले आज कुछ लोग है जिन्हें अपने वंश वृक्ष का मूल नहीं  मालूम, क्योंकि वो पांच पीढ़ी से ऊपर सोच भी नही सकते।

पांडव एवम कौरव का जन्म एक अच्छे वंश में हुआ, दोनों की शिक्षा एवम पालन पोषण भी अभाव रहित ही था। किंतु यदि हम ध्यान से अध्ययन करे तो ज्ञान  के साथ जो संस्कार के बीज उन के बड़े लोगो ने डाले वो भिन्न भिन्न थे। पांडव को संस्कार के बीज, माता कुंती, विदुर एवम भीष्म से मिले जब कि दुर्योधन पर उस के मामा शकुनि का ज्यादा प्रभाव था, इस के अतिरिक्त वह अपने पिता धृष्टराष्ट्र की महत्वाकांक्षा का भी शिकार था। अतः यह सत्य है कि पांडव एवम कौरव दोनों ही राजसी बुद्धि को धारण करने वाले थे किंतु संस्कार एवम संगति ने पांडव का मार्ग राजसी- सात्विक की ओर बढ़ाया और कौरव का राजसी- तामसी की ओर बढ़ाया। बुद्धि को विकसित करने के लिये मात्र ज्ञान अध्ययन एवम श्रवण द्वारा किया जाना सही नही होगा, वरन उस बुद्धि को चिंतन- मनन के साथ वातावरण, संस्कार एवम संगति भी शुद्ध एवम सात्विक मिलनी चाहिये। जब चिंतन- मनन का अभाव हो और सही संगति एवम संस्कार का अभाव हो तो उस बुद्धि के अहंकार जन्म ले लेता है, जिस के कारण व्यक्ति अपने अल्पज्ञान को ही सम्पूर्ण मान कर समझने के सब मार्ग बंद कर देता है। उसे अपने ज्ञान पर मिथ्या अभिमान होता है। इसलिये अपने ज्ञान के रूप में अज्ञान को ही धर्म स्थापित करने लगता है। यही उस का बहस का मुद्दा भी है। यही तामसी बुद्धि है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे पार्थ! जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को, निषिद्ध कार्य को, धर्म मान लेती है यानी शास्त्रविहित मान लेती है तथा जानने योग्य अन्यान्य समस्त पदार्थोंको भी, जो विपरीत ही समझती है, वह तामसी है।

सात्त्विक बुद्धि का पदार्थ ज्ञान यथार्थ होता है, तो राजसी बुद्धि का सन्देहात्मक किन्तु तामसी बुद्धि तो वस्तु को उस के मूलस्वरूप से सर्वथा विपरीत रूप में जानती है। धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानना इस बुद्धि का कार्य है। वस्तुत तामसी बुद्धि कोई बुद्धि ही नहीं कही जा सकती। वह तो विपरीत ज्ञानों की एक गठरी ही है। विपरीत निष्कर्षों पर पहुँचने की इसकी क्षमता अद्भुत है इसका कारण है, अज्ञानावरण का अन्धकार और अहंकार का अंधोन्माद।

आज के युग मे पूर्व श्लोक के समय विश्लेषण को आगे बढ़ाते है तो हमे तमो बुद्धि वाले लोगो के जो लक्षण दिखते है वो वस्तुतः इस प्रकार होते है ईश्वर की निन्दा करना शास्त्र, वर्ण, आश्रम और लोकमर्यादा के विपरीत काम करना मातापिता के साथ अच्छा बर्ताव न करना, सन्तमहात्मा, गुरुआचार्य एवम समाज के लिये समर्पित व्यक्ति आदि का अपमान करना।  झूठ, कपट, बेईमानी, जालसाजी, अभक्ष्य भोजन, परस्त्रीगमन आदि शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मों को धर्म मानना एवम इस के लिये व्यर्थ के वाद-विवाद करना और इस वाद-विवाद में कुछ सही मानने की वजाए अपनी बात पर अडिग रहना (जो हमे व्हाट्सएप्प ग्रुप एवम TV चैनल की बहस में अक्सर देखने को भी मिलता है ) यह सब अधर्म को धर्म मानना है।

बुद्धिहीन व्यक्ति जो मात्र जीविका के लिए कर्म करता है, वह तामसी भी नहीं, पशु ही है। फिर उसे कोई फर्क नहीं है कि वह क्या गलत और क्या सही कर रहा है। युद्ध में कौरव और पांडव की ओर से लड़ने वाले अधिकांश सैनिक की स्थिति कुछ ऐसी ही हो सकती है।

अपने शास्त्र, वर्ण, आश्रम की मर्यादा में चलना मातापिता की आज्ञा का पालन करना तथा उन की तनमनधन से सेवा करना संतमहात्माओं के उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाना धार्मिक ग्रन्थों का पठनपाठन करना दूसरों की सेवा उपकार करना शुद्धपवित्र भोजन करना आदि शास्त्रविहित कर्मों को उचित न मानना – यह धर्म को अधर्म मानना है। तामसी बुद्धि वाले मनुष्यों के विचार होते हैं कि शास्त्रकारों ने, ब्राह्मणों ने अपने को बड़ा बता दिया और तरहतरह के नियम बनाकर लोगों को बाँध दिया, जिस से भारत परतन्त्र हो गया जबतक ये शास्त्र रहेंगे, ये धार्मिक पुस्तकें रहेंगी, तबतक भारत का उत्थान नहीं होगा।  भारत परतन्त्रता की बेड़ी में ही जकड़ा हुआ रहेगा, आदिआदि। अपने को ज्यादा बुद्धिमान मानते हुए अपने लोगों के विपरीत धर्म या मत वालो को श्रेष्ठ समझते हुए, प्रायः यह तामसी बुद्धि वाले अपने की धर्म एवम लोगो के विरुद्ध कार्य अपने को ज्ञानी मान कर करते रहते है।  इसलिये वे मर्यादाओं को तोड़ने में ही धर्म मानते हैं।

आत्मा के स्वरूप न मानकर शरीर को ही स्वरूप मानना ईश्वर को न मान कर के दृश्य जगत् को ही सच्चा मानना दूसरों को तुच्छ समझ कर अपने को ही सब से बड़ा मानना दूसरों को मूर्ख समझकर अपने को ही पढ़ालिखा और  विद्वान् समझना । जितने संतमहात्मा हो गये हैं, उनकी मान्यताओं से अपनी मान्यता को श्रेष्ठ मानना सच्चे सुख की तरफ ध्यान न देकर वर्तमान में मिलनेवाले संयोगजन्य सुख को ही सच्चा मानना न करने योग्य कार्य को ही अपना कर्तव्य समझना अपवित्र वस्तुओं को ही पवित्र मानना – यह सम्पूर्ण चीजों को उलटा मानना है।

पर्याप्त ज्ञान के अभाव, बिना योग्य एवम अयोग्य को पहचाने जो मानवीय संवेदना, सहानुभूति, दया से ओतप्रोत बाते, संदेश या दिखावा करते है, तो यह उन की तामसी बुद्धि ही है, जो उन्हें एक मिथ्या आत्मसम्मान एवम दिलासा दिलाती है।

बुद्धि सात्विक, राजसी या तामसी हो, कर्ता को इस का ज्ञान नहीं होता, वह हमेशा अपने तर्क से अपनी बात को सही मानता है, उसे कोई समझा भी नही सकता। किंतु सद – असद विवेक सात्विक बुद्धि और तामसी बुद्धि का समान नही होगा। अतः सद – असद विवेक का ज्ञान तभी हो सकता है, जब मनोनिग्रह से मन को शुद्ध किया जाए। मनोनिग्रह का अर्थ है, ध्यान, चिंतन, योग, समाधि अर्थात पतंजलि योग में वर्णित विधि का पालन। शुद्ध और सात्विक आचरण। झूठ बोलने वाले, चोरी करने वाले या शराब, मांस आदि खाने वाले को कोई कितना भी समझा ले, उन पर तब तक कोई असर नहीं होता, जब तक उन का मन निग्रह हो कर इसे स्वीकार न कर ले। अन्यथा समझाने वाले तो ही अपमानित होना पड़ता है। तामसी बुद्धि होने से उन्हें अपने अज्ञान पर अहंकार होता है। नास्तिक गर्व से अपने नास्तिक होने की घोषणा करता है, मानो उसे धर्म का पूर्ण ज्ञान हो। क्या दुर्योधन को ज्ञान नही था, रावण भी सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी था उसे तो उस के प्रत्येक शुभ चिंतक ने समझाया था, किंतु उस की बुद्धि तामसी होने से उस में अपने निर्णय को तर्क सम्मत बना कर सही माना। आज भी कुछ लोग रावण में अच्छाई देखते है, तो यह उन की तामसी बुद्धि का प्रभाव है।

तामसी बुद्धि के लक्षण आज यदि हिन्दू या सनातन धर्म मे है, तो भी स्थायी नही है, क्योंकि संत, महात्मा एवम तत्वविद जीव समय समय पर इस धरती पर अवतरित हो कर मार्गदर्शन भी करते रहते है। अपने धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों के प्रति सम्मान होना एवम कोई द्वेष न होना सात्विक बुद्धि है किंतु अन्य धर्मों को अपने धर्म से निकृष्ट मानना तामसी ही है क्योंकि प्रत्येक का वर्ण एवम कर्म निश्चित है, उसे अपना कर्तव्य धर्म का पालन करना ही चाहिये।

व्यवहार में तामसी बुद्धि में व्यक्ति अज्ञान में तो रहता ही है किंतु उसे  अपने अज्ञान का ज्ञान नहीं होता और हो भी जाए तो वह मानने को तैयार भी नही होता, इस का कारण उस का मिथ्या अहंकार है।

अन्य में अर्जुन के प्रारंभिक मोह को यदि याद करे तो वह युद्ध त्याग के प्रति पूर्णतः तर्क के साथ शास्त्र पूर्ण तरीके से आश्वत था। इसलिए कृष्ण को विभिन्न तर्क और शास्त्र के उद्धरण दे कर समझा रहा था और निश्चय कर चुका था कि वह युद्ध नहीं करेगा।

बुद्धि बिना धृति के कोई कर्म नहीं कर सकती, इस लिये आगे सात्त्विकी धृति के लक्षण पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.32 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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