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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.30 II

।। अध्याय      18.30 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.30

प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

“pravṛttiḿ ca nivṛttiḿ ca,

kāryākārye bhayābhaye..।

bandhaḿ mokṣaḿ ca yā vetti,

buddhiḥ sā pārtha sāttvikī”..।।

भावार्थ: 

हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ॥३०॥

Meaning:

That intellect which knows engagement and withdrawal, what is duty and what is not, fear and fearlessness, bondage and liberation, O Paartha, that is saattvic.

Explanation:

Our jnyaanam, our knowledge, gives us an object to pursue, person to approach, or situation to create. Now it is up to our buddhi, our intellect, to decide the course of action. Typically, for any objective, we need to decide whether or not we want to pursue the objective, and if we do, how should we go about doing it. Shri Krishna says that a saattvic intellect, a saattvic buddhi is one that is clear on those two factors. In fact, Shri Krishna breaks the two factors down into four assessments: assessing one’s stage in life and one’s svadharma first, then whether an action is one’s duty or not, then whether to be fearful or not, and lastly, whether to continue to act or not.

The mode of goodness illumines the intellect with the light of knowledge thereby refining its ability to discriminate the right and wrong of things, actions, and sentiments. The sāttvic intellect is one that makes known to us what type of action is to be performed and what type of action is to be renounced, what is to be feared and what is to be ignored. It explains to us the reason for the shortcomings in our personality and reveals the solution for them. To make proper choices, a developed faculty of discrimination is required. The Bhagavad Gita itself was spoken to Arjun to equip him with the power of discrimination. At the outset, Arjun was confused about his duty. His inordinate attachment to his relatives had bewildered his judgment regarding proper and improper action. Feeling weak and fearful, and in utter confusion, he had surrendered to the Lord and requested him to enlighten him regarding his duty. Through the divine song of wisdom, Lord Krishna helped Arjun develop his power of discrimination, until he finally concluded: “I have explained to you the knowledge that is more secret than all secrets. Ponder over it deeply, and then do as you wish.” (verse 18.63)

Now as example of journey by car, before you start, whether the car should turn to the right or left; will depend upon what destination you have; not only destination must be very clear; the path also must be very clear. Clarity with regard to the means and the end is extremely important for success in life. And that is why in our tradition, not only they taught various occupations in life, they also discussed what is the ultimate goal of life; they discussed what is dharma, kāma, artā, and mōkṣa, the caturvida puruṣārthās; the four fold human goals are introduced in the brahmacarya āśrama itself; and when a student comes out of the education, he knew what is the immediate goal, and he also knew what is the ultimate goal. And that is why in the Kathōpaniṣad; buddhi is compared to the driver; the driver must be informed and also the driver must be sober. Sober, you know! Informed drunken driver, information is useless; not only he must be informed, information is intellectual qualification, and he should not be drunken driver means, it is an emotional qualification; I should have a high IQ and I should have a high EQ also. Emotionally balanced and intellectually enlightened person with regard to the goals and the means is important.

As we will see in a later topic in this chapter, the varna aashrama system, the system of aptitude and stage of life, helps us determine whether we should act at all, and if so, which actions should we perform and which we should not. A student should focus on studying, not in creating a family. A soldier should focus on protecting his country, not making money by selling his country out. The varna aashrama system helps address the first two assessments: engagement and withdrawal, and what is our duty and what is not. For example, if we get a new business proposal, we should assess whether we have the aptitude to execute it, but also, whether we are in the right stage of life. It is no use starting a new business when we are in our late sixties.

Once the varna aashrama system has approved the performance of an action, we need to test whether the action is motivated by personal reward, or whether it is motivated by selfless service. If we have fear in our mind while performing an action, chances are that a trace of egoism has crept into it. We may be doing the action out of the need for praise and honour. But if our mind is fearless, we can assume that our action is motivated out of selflessness. Lastly, as we perform one action after another, we should always examine whether these actions are taking us closer to liberation or are further entrenching us in the material world. An intellect that guides us in such a manner is termed saattvic.

।। हिंदी समीक्षा ।।

वह बुद्धि सर्वोच्च मानी जाती है, जो अपने कार्यक्षेत्र की वस्तुओं, व्यक्तियों एवं घटनाओं को यथार्थ रूप में तत्परता से समझ सकती है। बुद्धि के अनेक कार्य हैं, जैसे निरीक्षण, विश्लेषण, वर्गीकरण, संकल्पना, कामना, स्मरण करना इत्यादि तथापि इन सब में जिस क्षमता की आवश्यकता होती है, वह है विवेक की क्षमता। विवेक के बिना यथार्थ निरीक्षण, निर्णय आदि असंभव हैं। अत बुद्धि का मुख्य कार्य है, विवेक।

प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो शब्दों के परिभाषिक अर्थ क्रमश कर्ममार्ग और संन्यास मार्ग हैं।

संसार मे गृहस्थ – वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए, अपने वर्ण धर्मानुसार निष्काम हो कर कर्तव्य पालन करते हुये जीवन व्यतीत करना प्रवृति मार्ग है जिसे राजा जनक ने अपनाया था। समस्त भोगों एवम कर्मो का बाहर-भीतर से सवर्था त्याग कर के निर्वाण का मार्ग निवृति का मार्ग है।  एक साधक को इन दोनों के वास्तविक स्वरूप को समझकर स्वयं की अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी एक मार्ग का यथायोग्य अनुरक्षण करना चाहिये। अन्यथा कोई साधक कर्म में ही आसक्त होकर रह जायेगा, तो अन्य साधक संन्यास के नाम पर केवल पलायन ही करेगे।

सात्विक बुद्धि ज्ञान के प्रकाश से बुद्धि को प्रकाशित करती है, जिससे वस्तुओं, कार्यों और भावनाओं के सही और गलत का भेद करने की उसकी क्षमता परिष्कृत होती है। सात्विक बुद्धि वह है जो हमें बताती है कि किस प्रकार का कर्म करना है और किस प्रकार का त्याग करना है, किससे डरना है और किसकी उपेक्षा करनी है। यह हमें हमारे व्यक्तित्व में कमियों का कारण बताती है और उनके लिए समाधान बताती है। उचित चुनाव करने के लिए विवेक की विकसित क्षमता की आवश्यकता होती है। भगवद्गीता स्वयं अर्जुन को विवेक की शक्ति से सुसज्जित करने के लिए कही गई थी। शुरू में अर्जुन अपने कर्तव्य के बारे में भ्रमित था। अपने सगे-संबंधियों के प्रति अत्यधिक आसक्ति ने उचित और अनुचित कर्म के बारे में उसके निर्णय को भ्रमित कर दिया था। कमजोर और भयभीत महसूस करते हुए, और पूरी तरह से भ्रमित होकर, उसने भगवान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उनसे अपने कर्तव्य के बारे में ज्ञान देने का अनुरोध किया। ज्ञान के दिव्य गीत के माध्यम से, भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपनी विवेक शक्ति विकसित करने में मदद की, जब तक कि वह अंततः यह निष्कर्ष नहीं निकालता: “मैंने तुम्हें वह ज्ञान समझाया है जो सभी रहस्यों से अधिक गुप्त है।  इस पर गहराई से विचार करो, और फिर जैसा चाहो वैसा करो।” (श्लोक 18.63)

कार्य और अकार्य, सत्य और मिथ्या, प्रवृति और निर्वृति, भय और अभय तथा बंध और मोक्ष का ज्ञान रख कर विवेक करने वाली बुद्धि का प्रयोजन, कार्य और अकार्य अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक करना भी है। मनुष्य को यह जानना आवश्यक होता है कि कौन से कर्म कर्तव्य और उचित हैं तथा कौन से कर्म निषिद्ध और अनुचित हैं। करने योग्य कर्म देशकाल आदि की अपेक्षा से जिन के दृष्ट और अदृष्ट फल होते हैं, उन का यथार्थ ज्ञान होना एवम उचित समय पर उचित निर्णय ले कर किसी कार्य को विवेक पूर्वक बिना किसी भावना में बह कर करना ही कार्य एवं अकार्य को जानना है।  उन कर्मों के सम्बन्धमें इस विवेक के न होने पर मनुष्य कभी कभी क्रोधावेश या मिथ्या अभिमान के कारण अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे देता है, जिस का उसे कालान्तर में पश्चाताप होता है। अर्जुन ने भी मानसिक उन्माद की स्थिति में इस विवेक को खो दिया था, जिसका मुख्य कारण उसका मित्र, बन्धु, परिवार से अत्याधिक स्नेह ही था।

वस्तुस्थिति का यथार्थ ज्ञान जब तक नहीं हो, बिना कानून, परिस्थिति जाने न्यायालय में कौन वकील बहस कर सकता है। विवेक का अर्थ है, समय, स्थान, व्यक्ति और विचार एवम कार्य को समझते हुए मंथन द्वारा निर्णय लेना। यही सात्विक बुद्धि है, क्योंकि जब तक सात्विक बुद्धि नही होगी, निर्णय का आधार भावनाए होंगी, विवेक नही। इसलिए सोशल मीडिया पर बिना जांचे परखे किसी संदेश को फॉरवर्ड करने का आधार, या किसी फोटो को देख राग – द्वेष उत्पन्न करने का आधार यही है। किसी की बात पर विश्वास करना, किसी प्रक्रिया को धर्म – अधर्म, कर्तव्य – अकर्तव्य के आधार पर करना या न करना। जब क्रिया भावना के आधार पर संकुचित बुद्धि से की जाती है, तो उस के धारणा शक्ति अर्थात धृति भी दृढ़ता से स्थिर नही होती। इसलिए निर्णय सूचनाओं और समय के आधार पर बदलते रहते है। यही कारण है की ईश्वर के प्रति विश्वास होते हुए भी, हमारी धारणा मजबूत नही होती, और जब हम लाचार या असमर्थ होते है, तो ईश्वर को धारण करते है।

भय और अभय मूढ़ लोग अत्याधिक विषयासक्ति के कारण अवैध, अनैतिक और अधार्मिक कार्य करने से भयभीत नहीं होते परन्तु शास्त्रों का अध्ययन और आत्मानुसंधान जैसे श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त होने में उन्हें भय प्रतीत होता है। संन्यास और वैराग्य जैसे शब्दों से भी उन्हें डर लगता है अत वह बुद्धि सात्त्विक है, जो भय और अभय के कारणों का सम्यक् प्रकार से विवेक कर सकती है।

बन्ध और मोक्ष अपने सच्चिदानन्दस्वरूप के अज्ञान से ही हम विषयों से सुख प्राप्ति की कामना करके कर्म में प्रवृत्त होते हैं। कर्मफल के उपभोग से वासनाएं उत्पन्न होती हैं, जो पुन हमें कर्म में प्रवृत्त करती रहती हैं। ये अज्ञानजनित वासनाएं ही हमारे बन्धन को दृढ़ करती हैं। अत आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान के नाश से ही हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जो बुद्धि बन्धन के कारण और मोक्ष के साधन को तत्त्वत जानती है, वही सात्त्विक बुद्धि है।

अब कार से यात्रा के उदाहरण के रूप में, शुरू करने से पहले, कार को दाईं ओर या बाईं ओर मोड़ना चाहिए; यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपका गंतव्य क्या है; न केवल गंतव्य बहुत स्पष्ट होना चाहिए; बल्कि रास्ता भी बहुत स्पष्ट होना चाहिए। जीवन में सफलता के लिए साधन और साध्य के संबंध में स्पष्टता अत्यंत महत्वपूर्ण है। और इसीलिए हमारी परंपरा में, उन्होंने न केवल जीवन में विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा दी, बल्कि उन्होंने यह भी चर्चा की कि जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है; उन्होंने धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थ क्या हैं, इस पर चर्चा की; ब्रह्मचर्य आश्रम में ही चार गुना मानव लक्ष्यों का परिचय दिया गया है; और जब एक छात्र शिक्षा से बाहर आता है, तो वह जानता है कि तत्काल लक्ष्य क्या है, और वह यह भी जानता है कि अंतिम लक्ष्य क्या है। और इसीलिए कठोपनिषद में; बुद्धि की तुलना चालक से की गई है; चालक को सूचित किया जाना चाहिए और साथ ही चालक को शांत भी होना चाहिए। शांत, आप जानते हैं!  नशे में धुत ड्राइवर के लिए जानकारी बेकार है; उसे न केवल जानकारी होनी चाहिए, जानकारी बौद्धिक योग्यता है, और उसे नशे में धुत ड्राइवर नहीं होना चाहिए, यह एक भावनात्मक योग्यता है; मेरा IQ उच्च होना चाहिए और मेरा EQ भी उच्च होना चाहिए। लक्ष्यों और साधनों के संबंध में भावनात्मक रूप से संतुलित और बौद्धिक रूप से प्रबुद्ध व्यक्ति महत्वपूर्ण है।

अन्य उदाहरण के तौर पर तर्क एवम ज्ञान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने कार्य को सही ठहराने की चेष्टा करता है। कुछ व्यक्ति कुछ ज्यादा ही तर्कों से किसी कार्य के संपादन को टालते भी रहते है, किन्तु समय, स्थान एवम अपनी क्षमता के अनुसार सही एवम उचित कार्य को निष्काम हो कर लक्ष्य के अनुसार कर पाना ही सात्विक बुद्धि का लक्षण है।

सात्विक बुद्धि में सही समय पर सही निर्णय विवेक पूर्ण करने की क्षमता होती है, जिस के लिये स्वाध्याय, अनुशासन गुरू-उपदेश, संस्कार एवम चिंतन-मनन की आवश्यकता होती है। बुद्धि का स्थिर एवम शांत होना एवम किसी भी उतेजना से परे होना आवश्यक है जिस से वासना बुद्धि से जनित विभिन्न विचारों का कम से कम दखल रहे। वासनामय बुद्धि से कामनाओं की विभिन्न तरंगे ही एक ही व्यक्तित्व में अनेक व्यक्तित्व का बोध कराती है और मनुष्य दुविधा ने अपने असली स्वरूप को खोजता रहता है। वासनाओं के मंथन स्वरूप ही बुद्धि सात्विक स्वरूप में अपने कृत्य को नही पहचान पाती।

मन और बुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है और सद्बुद्धि – सद्विवेकविचार से हम किसी भी वस्तु, स्थान, कर्म और क्रिया को जान सकते है। मन और बुद्धि में मन की शुद्धता और बुद्धि का विकास हमारे निर्णय की क्षमता और ज्ञान को बतलाता है। अतः जो एक मात्र सत्य है वह तभी जाना जा सकता है जब मन और बुद्धि पूर्ण विकसित हो। अन्यथा वैचारिक मतभेद और कार्यों में विभिन्नता मन और बुद्धि के संपूर्ण ज्ञान के कारण बनी रहेगी। और जिसे एक विकसित ज्ञान और शांत मन वाला सत्य समझता है उसे अविकसित ज्ञान और राग – द्वेष में ग्रसित मन अपने ज्ञान के अनुसार असत्य समझता है। सात्विक बुद्धि होने का आशय सात्विक मन के साथ संपूर्ण रूप से शुद्ध ज्ञान का होना भी है।

सारांशत, प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्याकार्य, भयाभय और बन्धमोक्ष के स्वरूप को यथावत् पहचानने वाली बुद्धि सात्त्विक है।सात्त्विक बुद्धि मरुस्थल में भी सुन्दर उपवन की रचना कर सकती है और विफलता की प्रत्येक आशंका से सफलता का सम्पादन कर सकती है। पहले जो ज्ञान गीता में कहा गया है, वह बुद्धि की एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाला है। धृति भी बुद्धि की वृत्तिविशेष ही है। बुद्धि और धृति के बिना जीवन में प्राप्त होने वाले सुअवसर भी विपत्ति के कारण बन जाते हैं अथवा धूलि में मिल जाते हैं। सात्त्विक बुद्धि घोरतम त्रासदियों को श्रेष्ठतम सुख समृद्धियों में परिवर्तित कर सकती है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.30 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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