।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.29 II Additional II
।। अध्याय 18.29 II विशेष II
।। कर्म, कर्ता और बुद्धि ।। विशेष 18.29।।
कठोपनिषद में नचिकेता को एक प्रसंग में जीवन को एक रथ की संज्ञा दी गई है, दसों इंद्रियां उस के घोड़े है। मन उन घोड़ों की लगाम है और बुद्धि उस की सारथी। सारथी द्वारा घोड़ों की लगाम को उचित तरीके से खींचने से जीवन रूपी रथ बुद्धि द्वारा संचालित हो सकता, लगाम अधिक या कम खींचने से नही। जीवात्मा को इस रथ का रथी कहा गया है।
कंप्यूटर या रोबोट में उस के हिस्से आपस में प्लास्टिक, स्टील आदि के विभिन्न आकार और प्रकार के हिस्सो से जोड़े जाते है। सेल से उसे शक्ति दी जाती है, उस को विभिन्न ज्ञान से भरा जाता है, फिर उस की प्रोग्रामिंग होती है। यह प्रोग्रामिंग उसे बताती है कि उसे किस प्रकार काम करना है। यदि उस के अनुसार नही है, तो कंप्यूटर काम नही करेगा। मनुष्य के शरीर में बुद्धि अपने विवेक से उस परिस्थिति के अनुसार बदल कर कार्य या अकार्य कर सकती है। इसलिए बुद्धि निर्णय ले कर किसी कार्य को करने, न करने या टालने का काम कर सकती जो कंप्यूटर नही कर सकता।
अतः यह स्पष्ट है कि मन न्यायालय या किसी कार्यालय का मैनेजर के समान होता है। वह विभिन्न ज्ञानेद्रियो से प्राप्त सूचनाओं को वादी, प्रतिवादी के द्वारा बहस के तौर पर न्यायाधीश बुद्धि एवम जीवात्मा को निर्णय के भेजता है। प्रत्येक इंद्रिय से प्राप्त सूचना के आधार पर मन में मंथन चलता रहता है, किंतु निर्णयात्मक क्षमता न होने से मन, असंतुलित भी हो जाता है। इसलिए वह मंथन को बुद्धि के पास निर्णय लेने के लिए भेज देता है। यह सतत प्रक्रिया है, इसलिए जब तक इंद्रियां विभिन्न सूचनाएं इकठ्ठी करती रहती है, उस के लिए प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मन में बहस पक्ष और विपक्ष की जारी रहती है। कभी कभी असंगत या अधिक सूचना से मन अनिर्णय की अवस्था में अशांत भी हो जाता है।
बुद्धि में निर्णय लेने की क्षमता होती है, जिस का आधार ज्ञान होता है। ज्ञान बुद्धि में संकल्प – विकल्प में निर्णय लेने की क्षमता देता है, किंतु जब तक बुद्धि को ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक बुद्धि का निर्णय भी अनिश्चित रहता है। हम जो नही जानते, या नहीं समझते उस पर विचार भी नही कर सकते। ज्ञान चिंतन, मनन, अध्ययन, श्रवण और ज्ञानेद्रियों से होता है। पूर्ण ज्ञान के अभाव में बुद्धि प्राप्त तथ्यों के आधार पर निर्णय लेती है, इसलिए अज्ञानी का निर्णय अभिमान, स्वार्थ, कामना, आसक्ति या लोभ से अधिक भरा होता है।
बुद्धि द्वारा भले – बुरे का निर्णय लेने के बाद मन का कार्य उस कार्य को कर्मेंद्रियो से पूरा करवाने का है। अतः मन किसी भी कर्म के सार – आसार या यथार्थ का ज्ञान नहीं रखता, वरन उस के तथ्यों को अपने अनुभव के आधार पर बुद्धि के सम्मुख रखता है और बुद्धि द्वारा निर्णय प्राप्त होने पर उसे क्रियात्मक स्वरूप देता है। इसलिए बुद्धि व्यवसाय अर्थात सार – आसार पर विचार कर के निर्णय लेती है और मन व्याकरण है, जो निर्णय को क्रियात्मक स्वरूप देता है। संकल्प, वासना, इच्छा, स्मृति, धृति, श्रद्धा, उत्साह, करुणा, प्रेम, दया, सहानुभूति, कृतज्ञता, काम, लज्जा, आनंद, भय, राग, संग, लोभ, मद, मत्सर, क्रोध इत्यादि सब मन के गुण अथवा धर्म है। इसलिए जैसी मनोवृति होगी अर्थात वैसा ही वकील खड़ा हो कर मन की अदालत में जिरह करेगा, उसी के आधार पर बुद्धि भी निर्णय लेगी। इच्छा और धैर्य बुद्धि के धर्म नही है। इसलिए मन के जिस भी वकील या वृति के द्वारा तथ्य मन द्वारा बुद्धि को पेश होंगे, बुद्धि भी वैसा ही करेगी। आप के मन में करुणावृति नही है, तो किसी की पीड़ा देख कर करुणा भी उत्पन्न नही होगी, फिर बुद्धि द्वारा उस के प्रति सहायता करने की इच्छा भी उत्पन्न नही होगी। बुद्धि वही करती है, जिसे मन प्रस्तुत करता है, वह अपनी इच्छा या निर्णय से इंद्रियों से कार्य नही करवा सकती।
अब यदि यह माने की करुणावृति मन में उत्पन्न हो जाने से हृदय में मन द्वारा बिना बुद्धि के निर्णय के कार्य करने की इच्छा हुई, तो संभवत वह सहायता अपात्र को भी दी जा सकती है, या व्यर्थ स्थान या तरीके से दी जाए। इसलिए यह नही कहा जा सकता कि बुद्धि के बिना कार्य का निर्णय शुद्ध और नीतिगत होगा। इसलिए जो निर्णय बुद्धि द्वारा लिए जाते है, वही व्यवसायिक और नीतिगत होते है, जो निर्णय मन बुद्धि को बिना बताए अनुभव के आधार पर ले लेता तो वह भावना में बह कर लिया निर्णय होता है। बुद्धि द्वारा मन पर नियंत्रण होना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि भावना से मन या हृदय के निर्णय शुद्ध या अशुद्ध, सही या गलत किसी भी प्रकार का हो सकता है, जैसे आत्महत्या का निर्णय।
इस के अतिरिक्त अंत:करण एवम चित्त शब्द को भी हम लोग पढ़ते है। अंत:करण का अर्थ के भीतरी करण अर्थात मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि समस्त विषयो का समावेश। चित्त को सामान्यत: हम लोग मन द्वारा विषय पर चिंतन करना मानेंगे।
इतने विश्लेषण के यह स्पष्ट है, मन और बुद्धि में बुद्धि प्रधान है। मन बुद्धि के निर्णय के अनुसार कार्य करता है। मन का कार्य इंद्रियों से प्राप्त सूचनाओं को जमा करना, अपनी वृति के अनुसार चिंतन करना और सभी वृत्तियों के अनुसार चिंतन को बुद्धि के समक्ष पेश करना, फिर बुद्धि अपने ज्ञान के आधार पर उस के लिए निर्णय लेती है, मन उस निर्णय को क्रियावंतित करती है। उदाहरण के तौर पर रास्ते में कोई मित्र दिखा, इस आंखों ने देख कर मन को बताया, मन ने सूचना के आधार पर उस को पहचाना, प्रेम से उस के प्रति प्रगाढ़ता बताई, अन्य वृतियो ने उस के व्यवहार को बताया, बुद्धि में निर्णय लिया की उसे पुकार कर बात की जाए, मन को निर्णय सुनाया और मन ने वाक इंद्रिय से उस को वायु की सहायता से पुकारा। यह समस्त कार्य इतना तेजी से होता है कि हम सोचते है कि तुरंत बिना सोचे हो गया।
क्योंकि समस्त कार्य का निर्णय बुद्धि लेती है, बुद्धि जब तक निर्णय नही लेती जब तक मन द्वारा उसे अवगत न करवाया जाए। इसलिए जब तक वस्तुस्थिति का ज्ञान न हो, तो उस क्रिया करने की इच्छा भी नही होगी। इसलिए भी कार्य करने की इच्छा या वासना का आधार बुद्धि है। जिस की बुद्धि खोटी है, वह निर्णय भी खोटा लेगा, और जिस की बुद्धि शुद्ध है, उस की वासना या इच्छा भी शुद्ध होगी। इसलिए व्यवसायिक बुद्धि तथ्यों का विश्लेषण अपने ज्ञान के आधार पर करती है और निर्णयात्मक बुद्धि उस का निर्णय अपने गुण के आधार पर करती है। मान लीजिए आप ने किसी स्त्री/पुरुष को देखा, मन में काम वासना के सुख में आप के अंदर वासना उत्पन्न की, इस के पक्ष विपक्ष के सभी तर्क के आधार पर बुद्धि को सूचना दी। बुद्धि ने स्थिति को अपने सामाजिक, नैतिक, शास्त्रीय और अनुभव के आधार पर परखा और निर्णय ले कर मन को आदेश दिया। यदि बुद्धि सात्विक है, तो निर्णय भी शुद्ध होगा, राजसी है तो निर्णय समय के अनुसार होगा और तामसी है तो अशुद्ध होगा। इसलिए किसी भी कर्म में कर्ता के कार्य का आधार का उस में निहित व्यवसायिक और निर्णयात्मक बुद्धि ही है।
सार – आसार विवेक नाम की क्रिया सर्वत्र एक सी है, इसलिए विवेक या निर्णय लेने वाली बुद्धि भी एक सी होनी चाहिए। किंतु जैसे मन शरीर का धर्म है, बुद्धि भी शरीर का ही धर्म है। पूर्व जन्म के कर्मो, परंपरागत संस्कारों , शिक्षा आदि अन्य कारणो से बुद्धि भी कम या अधिक सात्विक, राजसी या तामसी हो जाती है। इसलिए जो बात किसी को ग्राह्य अर्थात सही समझ में आने वाली लगती है, वही बात दूसरे को विपरीत लगती है। इसलिए जिस बुद्धि से हम अन्न, हीरा, पत्थर आदि पहचानते है, उसी बुद्धि से हम भय, अभय, धर्म – अधर्म, लाभ – हानि, सत – असत का निर्णय भी लेते है। इसलिए गीता के इस अध्याय में सात्विक, राजसी और तामसी बुद्धि के बारे में बताया गया है, जो कर्ता के कर्म के निर्णय को प्रकृति के गुणों में विभाजित करता है।
मनुष्य जीवन के बुद्धि के प्रयोग का अधिकार ही मनुष्य जीवन को किसी भी योनि से श्रेष्ठ बनाता है। पशु अपने अपने मन की गति से कार्य करते है। उन को ट्रेनिंग दे कर तैयार कर सकते है, जिस से किस परिस्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए, यह वे सीख जाते है किंतु यह भी उपलब्ध इंद्रियों की सूचना के आधार पर मन का ही अनुभव पर आधारित निर्णय होता है। बुद्धि से अच्छे बुरे परिणाम, कोई उद्देश्य हेतु व्यवसायिक विश्लेषण शिक्षा, अनुभव, स्थान, साधन और समय के आधार पर कुछ करने या न करने का निर्णय होता है। इसलिए मनुष्य को कर्म फल का बंधन भी है, पशु या अन्य जीव को कर्म फल का बंधन नहीं होता, वे अपने कर्म फल को भोगते है।
क्योंकि बुद्धि निर्णय अपने ज्ञान, शिक्षा, पूर्व जन्म के कर्मो के आधार, संस्कारों और संगत के आधार पर लेती है, गीता जैसे महायुद्ध में अर्जुन, दुर्योधन, कर्ण, भीष्म एवम धृतराष्ट्र अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार युद्ध धर्म की व्याख्या करते हुए, युद्ध कर रहे है।
व्यवहारिक जीवन में समाज, परिवार और देश में विचारो में विभिन्नता मिलती है, अच्छे या बुरे कर्म करने वाले लोग है। जिस कार्य को एक व्यक्ति अच्छा कहता है, अन्य उस को बुरा कहता है। आतंकवादी किसी भी हत्या को भी ईश्वर की आराधना मानता है, जब की संसार उस के कृत्य की भर्त्सना करता है। इसलिए सही या सत्य क्या है। इस का निर्णय लेने के लिए मन, बुद्धि और जीवात्मा में एकरूपता होनी चाहिए। पातंजली योग, ज्ञान योग, भक्ति योग में जब तक मन और बुद्धि काम – वासना रहित निष्काम और कर्तृत्व भाव से मुक्त नहीं होते, तब तक निर्णय भावनात्मक एवम किसी न किसी वासना से युक्त ही होगा। मन और बुद्धि को वासना से मुक्त करने के लिए पतंजलि योग में योग, धारणा, समाधि इत्यादि अष्ट योग बताए गए है। जिस की अंतिम अवस्था संयम है।
आज गीता का अध्ययन करते हुए भी, ग्रुप में कई सदस्य होंगे, जो समयाभाव में गीता नही पढ़ते होंगे। शुद्ध और परिष्कृत भावना रखते हुए भी, जब तक अभ्यास और अध्यास नही किया जाता, हम शुद्धता को प्राप्त नहीं कर सकते। स्वर्ण जितना तपाया जाता, उतना ही अधिक अशुद्धियों से नष्ट हो शुद्ध होता है। जो लोग सिर्फ अच्छी बाते, पिक्चर या वीडियो आदि पोस्ट करते है, सत्संग आदि में जाते है, भजन, कीर्तन, पूजा पाठ करते है, वे अध्यात्म में परिशुद्घ होने के लिए तप रहे है, किंतु उन्हें और अधिक कठिन प्रयास की आवश्यकता है।
गीता का बुद्धि और धृति को ले कर भगवान द्वारा दिया ज्ञान, अत्यंत गहन एवम व्यवहारिक है। इसलिए गीता भी वही समझ पाते जो उचित शिक्षा, संस्कार और संगत में इस को बार बार अध्ययन भी करते है और अपने दैनिक जीवन चर्या में क्रियाविंत भी करते है।
किसी कार्य को सात्विक और करने योग्य कहने से पहले हमें आवश्यकता बुद्धि और ज्ञान की होती है। देश, स्थान, धर्म, लिंग और जाति की कुछ सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक परंपरा भी होती है। अतः इन सब वस्तुओं का हमारे निर्णय पर बहुत बड़ा असर होता है। जो हिंदू धर्म के अनुसार असत्य है वहीं मुस्लिम धर्म में सत्य हो सकता है। अतः बुद्धि और ज्ञान के अतिरिक्त सद्बुद्धि विवेक और विचार के बिना सात्विक कर्म और कार्य के घटक को तय कर पाना निश्चय ही कठिन होगा। गणित के उत्तर के लिए प्रश्न के सभी नियमों को जानना और उन को क्रम से उपयोग में लाना और प्रश्न को हल करने की इच्छा भी होना आवश्यक है। वैसे वेद, शास्त्र और स्मृति के ज्ञान का श्रवण, मनन और निदिध्यासन भी करना आवश्यक है। इस के लिए अभ्यास और दृढ़ इच्छा शक्ति भी आवश्यक है।
।। हरि ॐ तत् सत।। विशेष – गीता 18. 29 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)