।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.29 II
।। अध्याय 18.29 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.29॥
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥
“buddher bhedaḿ dhṛteś caiva,
guṇatas tri-vidhaḿ śṛṇu..।
procyamānam aśeṣeṇa,
pṛthaktvena dhanañjaya”..।।
भावार्थ:
हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ॥२९॥
Meaning:
According to gunaas, intellect and fortitude are said to be of three types also. Listen to this, completely and with its distinctions, O Dhananjaya.
Explanation:
To recap the teaching so far, Shri Krishna provided a threefold classification of knowledge, action and the doer. Jnyaanam or knowledge prompts an individual to perform an action. The kartaa or doer is the state of mind while performing the action. Now, although the knowledge or jnyaanam aspect supplies the doer with the target of action, it does not prescribe a plan of action as to how to get that object. Therefore, the buddhi, the intellect, gives the course of action.
Now Shree Krishna explains the two factors that impact the quality and quantity of work. They not only propel action but also control and direct it. These are the intellect and determination. Buddhi is the faculty of discrimination that distinguishes between right and wrong. Dhṛiti is the inner determination to persist in accomplishing the work undertaken, despite hardships and obstacles on the way. Both are of three kinds in accordance with the modes of nature.
Once the intellect has determined the course of action, the doer needs to hold on to that course of action, and not arbitrarily get distracted or change its tactics. The quality of holding on to something in spite of obstacles is known as dhriti or fortitude. Shri Krishna says that intellect and fortitude are part of Prakriti’s gunaas. So they also are divided into three types. He proceeds to describe them in the next six shlokas. He also emphasizes that he will give a complete description, without leaving anything out.
Dhṛti means Will power, perseverance. So Will power is an extremely important qualification to sustain any pursuit until the goal is accomplished; Because when we take to any pursuit to accomplish the goal, there are bound to be obstacles; there is no pursuit without obstacles; unless will power is there; obstacles will be too big for me; the moment, I see the slightest obstacle, three miles away, I withdraw here itself. Krishna says that this will power is also threefold; sātvika, rājasa, tāmasa dhṛtiḥ.
So then, jnyaanam is the goal, buddhi is the plan and dhriti is adherence to the plan. Even in our daily life we see that different people can get the same outcome through different plans. And some people fail in face of obstacles, while some people persevere. Some people see a roadblock as an opportunity to think outside the box, whereas some people are completely flummoxed. Understanding how to plan and how to stick to the plan has benefits in the material path as well as the spiritual.
।। हिंदी समीक्षा ।।
श्रीकृष्ण अब कार्य की गुणवत्ता और मात्रा को प्रभावित करने वाले दो कारकों का वर्णन करते हैं जो न केवल कर्म को प्रेरित करते हैं बल्कि उसे नियंत्रित भी करते हैं। ये कारक हैं-बुद्धि और धृति। बुद्धि विवेक शक्ति है जो उचित और अनुचित में भेद करती है। धृति मार्ग में आनेवाली कठिनाईयों और बाधाओं के पश्चात भी कार्य को संपूर्ण करने के लिए अडिग रहने का दृढ़ संकल्प है। प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार इन दोनों की तीन श्रेणियाँ हैं।
पूर्व में अध्ययन किये को पुनः एक बार दोहराते है कि मनुष्य ज्ञानेद्रियों से ग्रहण करता है किंतु इंद्रियाए क्या सुनती, देखती आदि है उस का उन्हें नही पता होता है, वह मन के आधीन है, मन मे सभी संस्कार, भावनाएं आदि होने से मन ज्ञानेद्रियों से प्राप्त सूचना को समझता है फिर बुद्धि को प्रेषित करता है। बुद्धि ज्ञान से उस पर क्या कार्य करना है, अपने जीव की कामना एवम अहंकार से निर्धारित करती है। अतः बुद्धि मन एवम इंद्रियाओ के आधीन हो कर काम न करे और मन एवम इन्द्रियाँ बुद्धि के आधीन होनी चाहिये। इसी प्रकार बुद्धि शुद्ध एवम विकार रहित हो तो वह भी कामना एवम अहंकार से मुक्त होगी। अतः बुद्धि निश्चय करने वाली शक्ति विशेष का वाचक है और इसी प्रकार धृति धारणा करने की शक्ति विशेष की वाचक है जो बुद्धि की ही वृति है जिस से मनुष्य दृढ़ता पूर्वक किसी काम को करने को प्रवृत्त होता है। बुद्धि शब्द यहां निश्चय करने वाली शक्ति विशेष का वाचक है, इसे अंत:करण भी कह सकते है।
अध्याय के अठारहवें श्लोक में कर्मसंग्रह के तीन हेतु बताये गये हैं – करण, कर्म और कर्ता। इन में से कर्म करने के जो इन्द्रियाँ आदि करण हैं, उन के सात्त्विक राजस और तामस – ये तीन भेद नहीं होते। उन इन्द्रियों में बुद्धि की ही प्रधानता रहती है और सभी इन्द्रियाँ बुद्धि के अनुसार ही काम करती हैं। इसलिये यहाँ बुद्धि के भेद से करणों के भेद बता रहे हैं।
बुद्धि और धृति कोई क्रिया या कर्म नही है, न ही किसी कर्म के पांच तत्व में एक है, किंतु किसी कार्य की गुणवत्ता एवम कार्य के प्रति कर्ता का उत्साह का मुख्य कारक है। युद्ध की शुरुवात में अर्जुन निरुत्साहित हो कर, युद्ध न करने की बाते करने लगा था, यही उस की बुद्धि एवम धृति है, जो उस के मन को विचलित कर रही थी।
बुद्धि के निश्चय को, विचार को दृढ़ता से ठीक तरह रखनेवाली और अपने लक्ष्य से विचलित न होने देनेवाली धारणशक्ति का नाम धृति है। धारणशक्ति अर्थात् धृति के बिना बुद्धि अपने निश्चयपर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिये बुद्धि के साथ ही साथ धृति के भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गये।
धृति का अर्थ है इच्छा शक्ति; दृढ़ता। इसलिए इच्छा शक्ति किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने तक किसी भी प्रयास को जारी रखने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण योग्यता है; क्योंकि जब हम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई भी प्रयास करते हैं, तो उसमें बाधाएँ अवश्य आती हैं; बाधाओं के बिना कोई प्रयास नहीं होता। जब तक इच्छा शक्ति नहीं होती, बाधाएँ मेरे लिए बहुत बड़ी होंगी। जिस क्षण, मुझे थोड़ी सी भी बाधा दिखाई देती है, तीन मील दूर भी हो, मैं यहीं से वापस चला जाता हूँ। कृष्ण कहते हैं कि यह इच्छा शक्ति भी तीन गुणयुक्त है; सात्विक, राजसा, तामस धृति:।
मनुष्य जो कुछ भी करता है, बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात् ठीक सोच समझ कर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। उस कार्य में प्रवृत्त होने पर भी उस को धैर्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है। उस की बुद्धि में विचारशक्ति तेज है और उसे धारण करनेवाली शक्ति, धृति श्रेष्ठ है, तो उस की बुद्धि अपने निश्चित किये हुए लक्ष्य से विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहती है, तब मनुष्य का कार्य सिद्ध हो जाता है। अभी साधकों के लिये कर्मप्रेरक और कर्मसंग्रह का जो प्रकरण चला है, उस में ज्ञान, कर्म और कर्ता की ही खास आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधना में दृढ़तापूर्वक लगा रहे, इस के लिये बुद्धि और धृतिके भेद को जानने की विशेष आवश्यकता है क्योंकि उन के भेद को ठीक जानकर ही वह संसार से ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकार की बुद्धि और धृति को धारण करके साधक संसार से ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकार की बुद्धि और धृतिके रहनेसे उसे ऊँचा उठनेमें बाधा लग सकती है, यह जानना साधक के लिये बहुत जरूरी है। इसलिये भगवान् ने उन दोनों के भेद बताये हैं। भेद बताने में भगवान् का भाव यह है कि सात्त्विकी बुद्धि और धृति से ही साधक ऊँचा उठ सकता है, राजसी तामसी बुद्धि और धृतिसे नहीं।
बुद्धि शब्द का प्रयोग प्रायः दो भाव मे करते है, जिसे हम व्यावसायिक बुद्धि एवं वासनात्मक बुद्धि कह सकते है। व्यावसायिक बुद्धि जिस से हमे वस्तु के ज्ञान होता है कि वह क्या है। व्यवसायिक बुद्धि का विकास श्रवण, अध्ययन एवम मनन से करते है। इस मे पूर्व के संस्कारों का भी योग दान रहता है। सही एवम गलत का निर्णय, शास्त्र, समय एवम स्थान के अनुसार वस्तुस्थिति से अवगत व्यावसायिक बुद्धि द्वारा ही होता है, अतः इस को विकसित किया जाना आवश्यक है। वासनात्मक बुद्धि जीव के चेतन्य के संस्कारों, स्थान, आवश्यकताओं एवम कामनाओं से प्रेरित होती है। व्यावसायिक बुद्धि से प्राप्त तथ्य को निर्णय लेने तक मार्ग वासनात्मक बुद्धि से तय होता है। जब तक व्यावसायिक बुद्धि स्थिर एवम शुद्ध नही रहती, वासनात्मक बुद्धि में तरह तरह की कामनाएं, विचार, आशंकाएं एवम अनिश्चितता जन्म लेती रहती है। जब हम कहते है कि मेरा मन विचलित हो रहा है, इस का तातपर्य यही है की व्यावसायिक बुद्धि द्वारा पर्याप्त ज्ञान के अभाव में वासनात्मक बुद्धि कामनाओं के वशीभूत हो कर अनिर्णय की स्थिति में है। युद्ध भूमि में अर्जुन की यही स्थिति हो गयी थी। इसलिये व्यावसायिक एवम वासनात्मक बुद्धि शुद्ध, संस्कारयुक्त, ज्ञान एवम मनन से विकसित होने से मन एवम इंद्रियाओ पर नियंत्रण संभव है। क्योंकि वस्तु के सार-आसार, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म एवम सत्य-असत्य के निर्णायक तत्व को बुद्धि से ही जाना जा सकता है और जब तक बुद्धि स्थिर, ज्ञानयुक्त, कामनारहित एवम यथार्थ को पहचान सकने में सक्षम नही होगी, किसी भी कार्य को पूर्ण धृति के साथ करना संभव नही होगा।
धृति बुद्धि से निर्णय का परिणाम है जिस से हम कार्य को एकनिष्ठ हो कर पाते है।
अतः भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि बुद्धि और धृति के विषय में जानने की जो जो आवश्यक बाते हैं, उन सब को मैं पूरा पूरा कहूँगा, जिस के बाद फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। अब भगवान् द्वारा सात्त्विकी बुद्धि के बताए हुए लक्षण पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.29।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)