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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.25 II

।। अध्याय      18.25 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 18.25

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ ।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥

“anubandhaḿ kṣayaḿ hiḿsām,

anapekṣya ca pauruṣam..।

mohād ārabhyate karma,

yat tat tāmasam ucyate”..।।

भावार्थ: 

जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान एवम मोह से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ॥२५॥

Meaning:

That which is begun in delusion, without considering its consequence, loss, harm and capability, that action is called taamasic.

Explanation:

Shri Krishna now explains the nature of a taamasic action, listing its characteristics.

The intellects of those in tamo guṇa are covered by the fog of ignorance. They are oblivious to or unconcerned with what is right and what is wrong and are only interested in themselves and their self-interest. They pay no heed to money or resources at hand, or even to the hardships incurred by others. Such work brings harm to them and to others. Shree Krishna uses the word kṣhaya meaning “decay.” Tāmasic action causes decay of one’s health and vitality. It is a waste of effort, a waste of time, and a waste of resources. Typical examples of this are gambling, stealing, corruption, drinking, etc.

Therefore, any thoughtless action; any action done without proper thinking; proper planning is tāmaasic karma. Vedant needs all work must be done with intellectual mind. The work, which is without proper utilising the human capacity, personal capacity; personal resources, physical capacity; intellectual capacity; financial capacity and setting of end target is Tamaasic work.

Hence under Tamaasic work, one works on emotional, without considering the consequences and in end result, he losses or incures additional and abnormal expenditure, without getting any result accordingly means loss of resources. He wastes his physical energy, and some time goes out of control towards violence or unethical practices.

On similar lines, many people invest money in new ventures without having done the due diligence on the business plan, understanding the market and so on. They do not take into account the potential loss of their investment, since they only focus on the potential game. Furthermore, they do not assess whether their new venture could harm the economic, political or natural environment. Even if they know what the harm is, they conveniently choose to overlook those facts. Such kind of action is also called taamasic action.

The root of taamasic action is taamasic knowledge, which creates a highly perverse sense of attachment towards certain object, person, situation or end goal, that everything else becomes inferior and worthless. The underlying connectedness or unity of things is forgotten. Even a simple thing like cutting our face when shaving is a taamasic action, which has happened because our mental noise shifted our focus and attention away from the action. Similarly, whenever we eat food that is tasty but creates negative long term health impacts, whenever we give importance to our tongue, we are committing a taamasic action.

।। हिंदी समीक्षा ।।

यदि कर्म में आसक्ति, कर्तापन एवम फलाशा न भी रहे तो भी बिना विचारे, उस के परिणाम की चिंता किये बिना एवम मनमाने तरीके से कर्म करने की छूट नही होती। इसलिये भगवान श्री कृष्ण कहते है कि तमोगुणी पुरुष कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व इस बात का विचार ही नहीं करता कि उस कर्म का परिणाम (अनुबन्ध) क्या होगा तथा उस के करने में कितनी शारीरिक, आर्थिक आदि शक्तियों का क्षय अर्थात् ह्रास होगा। उसे इस बात की भी कोई चिन्ता नहीं होती कि उस के कर्म के कारण कितनी हिंसा अथवा लोगों को कष्ट होगा एवम उस कार्य को करने के लिए वह समस्त साधनों से युक्त सामर्थ्य भी रखता है या नही। ऐसे प्रमादी और उत्तरदायित्वहीन लोगों के कर्म मोहवश अर्थात् किसी भ्रान्त धारणा और हीन उद्देश्य से प्रेरित होते हैं। उदाहरणार्थ, मद्यपान, दुसाहसपूर्ण द्यूत, भ्रष्टाचार आदि ये सब तामस कर्म हैं। ऐसे कर्मों के कर्ता केवल क्षणभर के वैषयिक सुख की संवेदना ही चाहते हैं। पतंगा लौ को देख कर उस की ओर कूद जाता है, परिणाम स्वरूप अपने प्राण तो गवाता है, लौ को बुझा कर अंधेरा भी कर देता है।

जिन की बुद्धि अज्ञानता की धुंध से आच्छादित होती है। वे क्या उचित है और क्या अनुचित है? के संबंध में असावधान और उदासीन रहते हैं। वे केवल स्वयं में और अपने निजी स्वार्थों में रुचि रखते हैं। वे अपने पास उपलब्ध धन और संसाधनों का दुरुपयोग करने में तथा दूसरों को कष्ट देने में संकोच नहीं करते। श्रीकृष्ण ने इसके लिए ‘क्षयं’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ ‘क्षीण’ है। तामसिक कार्य किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य और शक्ति के क्षीण होने का कारण बनते हैं। यह प्रयास, समय और संसाधनों का दुरुपयोग है। जुआ, चोरी भ्रष्टाचार मदिरापान इत्यादि इस के विशिष्ट उदाहरण हैं।

बिना सोचे-समझे किया गया कोई भी काम, बिना सोचे- समझे, बिना योजना बनाए किया गया कोई भी काम तामस कर्म है। वेदांत के अनुसार सभी काम बौद्धिक मन से किए जाने चाहिए। जो काम मानवीय क्षमता, व्यक्तिगत क्षमता, व्यक्तिगत संसाधन, शारीरिक क्षमता, बौद्धिक क्षमता, वित्तीय क्षमता और अंतिम लक्ष्य निर्धारित किए बिना किया जाता है, वह तामस कर्म है।

अतः तामसिक कर्म के अन्तर्गत व्यक्ति बिना परिणाम की चिंता किए भावना के आधार पर कार्य करता है, जिसके परिणामस्वरूप उसे हानि होती है या व्यय होता है, तथा उसके अनुरूप परिणाम नहीं मिलता, अर्थात संसाधनों की हानि होती है। वह अपनी शारीरिक ऊर्जा को नष्ट करता है तथा कुछ समय के लिए हिंसा या अनैतिक कार्यों में भी नियंत्रण खो देता है।

जिस को फल की कामना होती है, वह मनुष्य तो फलप्राप्ति के लिये विचार पूर्वक कर्म करता है, परन्तु तामस मनुष्य में मूढ़ता की प्रधानता होने से वह कर्म करने में विचार करता ही नहीं। इन का सिंद्धान्त यही है “अभी तो कर लो, जो होगा देखा जाएगा” 

1)  इस कार्य को करने से मेरा तथा दूसरे प्राणियों का अभी और परिणाम में कितना नुकसान होगा, कितना अहित होगा – इस अनुबन्ध अर्थात् परिणाम को न देखकर वह कार्य आरम्भ कर देता है।

 2) इस कार्य को करने से अपने और दूसरों के शरीरों की कितनी हानि होगी, धन और समय का कितना खर्चा होगा ।

3) इस से दुनिया में मेरा कितना अपमान, निन्दा, तिरस्कार आदि होगा,  मेरा लोक परलोक बिगड़ जायगा आदि नुकसान को न देख कर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है।

4) इस कर्म से कितने जीवों की हत्या होगी कितने श्रेष्ठ व्यक्तियों के सिद्धान्तों और मान्यताओं की हत्या हो जायगी दूसरे मनुष्यों की मनुष्यता की कितनी भारी हिंसा हो जायगी।

5) अभी के और भावी जीवों के शुद्ध भाव, आचरण, वेशभूषा, खानपान आदि की कितनी भारी हिंसा हो जायगी इस से मेरा और दुनिया का कितना अधःपतन होगा आदि हिंसा को न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है। 6) इस काम को करने की मेरे में कितनी योग्यता है, कितना बल, सामर्थ्य है मेरे पास कितना समय है, कितनी बुद्धि है, कितनी कला है, कितना ज्ञान है आदि अपने पौरुष(पुरुषार्थ) को न, देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है।

दुनिया को जीतने का सपना देखने वाले, बल पूर्वक अपनी नीतियों, धर्म एवम मान्यताओं को थोपने वाले, छल कपट से दूसरों को लूटने एवम अधिकार जमाने वाले एवम अपनी महत्व आकांक्षाओं से जकड़े जीव संसार मे युध्द, हत्या, खून खराबा जैसी स्थितियां उत्पन्न कर देते है, जिस के ज्ञान का कोई महत्व नही रहता। इस परिस्थिति में जो भी वर्ण के अनुसार कर्तव्यधर्म है, उस का पालन करना ही उत्तम मार्ग है। फिर चाहे उन के साथ अपने ही बंधु बांधव ही क्यों न खड़े हो।

वर्तमान युग में ऐसे बहुत से मामले हैं, जहां युवा अपने स्वास्थ्य की कीमत पर या अनैतिक व्यवहार या चोरी या धोखाधड़ी या हत्या आदि के माध्यम से किसी भी तरह से पैसा कमाना चाहते हैं।

आज के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक एवम विश्व की समस्याओं में हम किन लोगों के साथ खड़े है यदि हम उन के कर्मो से उन्हें नही पहचान पाते, तो हम भी उन्ही के कर्मो के परिणाम के सहभागी होंगे, चाहे वह सात्विक रूप से क्यों न किया गया हो। महाभारत में कर्ण, द्रोण एवम भीष्म की मृत्यु इस बात का प्रत्यक्ष परिणाम है जो इस अजेय महावीरों को भी पराजय के रूप में कर्म फल में प्राप्त हुआ। दुर्योधन का यह निर्णय कि वह पांडव को सुई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं देगा, समस्त कौरव वंश के विनाश का कारण बना।

ज्ञान एवम कर्म के त्रियामी गुणों के बाद कर्ता के गुण पढ़ते है किंतु यह स्पष्ट करना आवश्यक के ज्ञान यानी जानकारी जिसे नॉलेज कहते है, कर्म यानि क्रिया और दोनों अपने आप मे किसी गुण में नही बंटे। इन्हें तीन गुणों में बाटने वाली विधा बुद्धि एवम धृति है, जो जीव को प्रेरणा देती है जिस का वर्णन स्वयं भगवान कृष्ण ने कर्ता के वर्णन के बाद किया है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.25।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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