।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.23 II
।। अध्याय 18.23 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.23॥
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥
“niyataḿ sańga-rahitam,
arāga-dveṣataḥ kṛtam..।
aphala-prepsunā karma,
yat tat sāttvikam ucyate”..।।
भावार्थ:
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ॥२३॥
Meaning:
That action prescribed by scripture which is performed without attachment, without like or dislike, by one without hankering for reward, that is said to be saattvic.
Explanation:
After studying three types of knowledge, we come to three types of Action. A pure action needs the following performance along with action: 1. Niyatam karma means, specially prescribed actions in the scriptures. The scriptures prescribe certain special actions, exclusively for the sake of spiritual growth, exclusively for the sake of inner maturity, exclusively for the sake of developing value.
The mind requires a particular type of condition, which was enumerated daivi sampath vimōkṣaya; all the values can be developed, if a person performs those specially prescribed karmas; they all are called sātvika, niṣkāma, vihita or śōdaka karmāṇi; ṣōdakam means purifier karma. They are not meant for giving any worldly, materialistic benefit; they are specially designed for inner growth. However, material benefit may also be generated out of them.
2.Then the next condition for sātvika karma is saṅgarahitam means selfless service without attachment. The actions mean for purification of mind, it shall not be object of the doer. 3.Sātvika karmas are performed without rāgaḥ-dveṣaḥ; without rāgaḥ- dveṣaḥ means without any worldly motive. These karmas are not done for changing the external world. Karma yōgi must be interested in transforming himself; he does not have a complaint against the set-up. 4.It is done without the expectation of any external benefit directly or indirectly. Even every action generates result, there is always acceptance to result, but work must be in such manner and effort, that we work full of our energy to complete the task, as per target.
Knowledge is the main instigator of any action. So, if the knowledge is saattvic, the action will be saattvic and so on. A simple way to differentiate between the three types of knowledge is the gauge the severity of the likes and dislikes, the raaga and dvesha, that the knowledge creates. When we only see unity and harmony, without any likes or dislikes, that is saattvic knowledge. When we have strong likes or dislikes for this object or that person or that situation, it is raajasic knowledge. When we have a extreme or perverted like or dislike, it is taamasic knowledge.
Imagine that you are a guest at a friend’s house. A group of young children are playing a game of monopoly that they ask you to join. Some children want you to win, since you are in their team. The other team wants you to lose. At the conclusion of the game, you end up losing all your monopoly money. But you do not harbour any feelings of resentment or anger towards the children. Why does this happen? You have no attachment to the monopoly game, the money or property that you have acquired, since you know that it is not real.
Shri Krishna says that any action performed without attachment, without like or dislike towards any part or character in the action, without hankering for the reward of the action, such an action is a sattvic action. In other words, while commencing the action, our intent and our state of mind is saattvic. We will only be able to perform such an action if we have reduced our likes and dislikes towards material objects to a great extent. This happens only if we see the world as illusory and ephemeral, either through seeing everything as Ishvara’s Prakriti or through meditation upon the hollowness of Maaya.
।। हिंदी समीक्षा ।।
ज्ञान के तीन सत- रज- तम गुणों के वर्गीकरण के बाद भगवान श्री कर्म का वर्गीकरण स्पष्ट करते हुए कहते है कि जो कर्म शास्त्र विहित, वर्णोश्रमोचित, नियत – नित्य है तथा कर्तृत्व अभिमान, ममता- आसक्ति से रहित है और फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग – द्वेष के निर्लिप्त भाव से कर्तव्य समझ कर किया गया है, वह सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्म राग से या द्वेष से प्रेरित होकर किया जाता है, वह राग – द्वेष से किया हुआ कहलाता है और जो उस से विपरीत है वह बिना राग – द्वेष के किया हुआ है। जो कर्ता कर्मफल को चाहता है, वह कर्मफल की तृष्णावाला होता है और जो उस से विपरीत है वह कर्मफल को न चाहने वाला है।
जिस व्यक्ति के लिये वर्ण और आश्रम के अनुसार जिस परिस्थिति में और जिस समय शास्त्रों ने जैसा करने के लिये कहा है, उस के लिये वह कर्म ही नियत हो जाता है। यहाँ नियतम् पद से एक तो कर्मों का स्वरूप बताया है और दूसरे, शास्त्र निषिद्ध कर्म का निषेध किया है।
नियत कर्म कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर किया जाय। कर्तृत्वाभिमान से रहित कहने का भाव है कि जैसे वृक्ष आदि में मूढ़ता होने के कारण उन को कर्तृत्व का भान नहीं होता, पर उन की भी ऋतु आने पर पत्तों का झड़ना, नये पत्तों का निकलना, शाखा कटने पर घाव का मिल जाना, शाखाओं का बढ़ना, फलफूल का लगना आदि सभी क्रियाएँ समष्टि शक्ति के द्वारा अपने आप ही होती हैं ऐसे ही इन सभी शरीरों का बढ़ना घटना खाना पीना, चलना फिरना आदि सभी क्रियाएँ भी समष्टि शक्ति के द्वारा अपने आप हो रही हैं। इन क्रियाओँ के साथ न अभी कोई सम्बन्ध है, न पहले कोई सम्बन्ध था और न आगे ही कोई सम्बन्ध होगा। इस प्रकार जब साधक को प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है तो फिर उस में कर्तृत्व नहीं रहता। कर्तृत्व न रहने पर उस के द्वारा जो कर्म होता है, वह सङ्गरहित अर्थात् कर्तृत्वाभिमान रहित ही होता है। साधक अन्तःकरण से प्रकृति की समस्त क्रियाओ का साक्षी, अकर्ता एवम दृष्टा के समान व्यवहार करता है।
सात्विक कर्म में राग – द्वैष न होना, कर्तृत्व अभिमान न होना, ममता रहित कर्तव्य भाव न होना आदि गुण तभी संभव है जब कर्ता की बुद्धि सात्विक होगी। सात्विक बुद्धि और सात्विक ज्ञान दोनो यद्यपि एक दिखता है किंतु बुद्धि ज्ञान का भाग है, जो जीव को क्रियात्मक स्वरूप देती है, इसलिए जब तक बुद्धि समभाव नही होगी, कर्म भी सात्विक नही होगा। कर्म की क्रियात्मक प्रक्रिया अन्य गुण से संभव है, जैसे मंदिर जाना, परमात्मा के फोटो प्रेषित करना, भजन, कीर्तन, यज्ञ, प्रवचन, कथाओं को करवाना और उस में भाग लेना, सादे वस्त्र धारण करना आदि। यह कर्म दिखते सात्विक है, किंतु जब तक सम बुद्धि से न लिए जाए, सात्विक नही हो सकते। इसलिए सात्विक कर्म होने के लिए बुद्धि भी सात्विक होना अनिवार्य है।
युद्ध भूमि में अर्जुन को असमंजस था कि मैं अपने सामने खड़े परिजन, गुरु एवम भीष्म को कैसे मार सकता हूँ, ज्ञान, कर्म एवम कर्ता के सामंजस्य से कोई कर्म किया जा सकता है किंतु इस का संचालन बुद्धि या विवेक करता है, जिसे आगे हम पढेंगे, किन्तु किसी सात्विक कर्म के लिये निसंग होना सब से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिस से अहंकार या कर्तृत्त्व भाव जन्म नही लेता और कर्म अनासक्त भाव से कर्तव्य धर्म के अनुसार किया जा सके। उसे यह समझना होगा कि क्रियाएं प्रकृति जीव को निमित्त बना कर करती है किंतु अज्ञान से जीव उस कार्य में भोक्ता और कर्ता भाव को समझ कर अहम में यही मानता है कि उस कार्य को वहीं करने वाला है। कर्म को करने का अधिकार जीव को अवश्य है किंतु यह प्रकृति ही तय करती है कि जीव को किस कार्य के लिए निमित्त बनना है। इस कारण उस का फल पर भी कोई अधिकार नहीं रहता। अर्जुन युद्ध भूमि के अपने स्वेच्छा से लिए निर्णय से या योजना बद्ध तरीके से नहीं पहुंचा था। युद्ध की सारी कथा और परिस्थितियां प्रकृति से निमित्त की गई थी। वह उस परिस्थिति का निमित्त भाग था। यदि वह युद्ध नहीं भी करे तो भी युद्ध को रोकना उस के हाथ में नहीं था।
जीव जिस सुख की आशा रखता है, वह मानसिक और आत्मिक अधिक एवं शारीरिक कम होता है। किंतु संसार प्रकृति के नियमों से चलता है। अतः प्रकृति में कर्म के अतिरिक्त सुख का कोई उपाय नहीं है, जिस कर्म से आलस्य, निंद्रा या किसी को हानि, निजी लाभ के लिए नहीं हो, वह कर्म राजसी है। यह शारीरिक भी है और आध्यात्मिक भी। इस की आवश्यकता ठीक वैसी है जैसे पूरा सोना अत्यंत मूल्यवान होते हुए भी, लोहे की जगह नहीं ले सकता। सभी धातुओं का अपना महत्व है, इसी प्रकार सत्व के साथ सभी कर्म का अपना अपना महत्व इस प्राकृतिक संसार में रहने के लिए है। यह हम पर निर्भर है कि हम महत्व किस प्रकार के कर्म को देते है या सत्व के अतिरिक्त अन्य कर्म उतना ही करते है जिन के लिए प्रकृति ने हमे निमित्त किया है। मोक्ष हमारा अंतिम लक्ष्य है और यह शरीर उस लक्ष्य के लिए साधन, साधन के सही और वास्तविक उपयोग के लिए संसार और प्रकृति को महत्वहीन समझ कर मोक्ष को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए जब भी हमे प्रकृति हमारे वर्ण से हमारे किसी कार्य के लिए निमित्त बनाती है तो उस से भाग कर यदि हम कुछ और करना भी चाहे, तो हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए पीछे हटते है। अतः कर्म के त्याग की अपेक्षा निष्काम और निर्लिप्त भाव में विवेक बुद्धि से किया कर्म, संसार को भोगने और मोक्ष के लिए आवश्यक है। यही कर्तव्य कर्म भी है।
त्रिविध कर्मों में सात्त्विक कर्म सर्वश्रेष्ठ है, जो कर्ता के मन में शान्ति तथा उस के कर्मक्षेत्र में सामञ्जस्य उत्पन्न करता है। प्राय मनुष्य फल में आसक्त होकर अपने व्यक्तिगत राग और द्वेष से प्रेरित होकर कर्म करता है। परन्तु यहाँ कहा गया है कि नियत अर्थात् कर्तव्य कर्म को अनासक्त भाव से तथा राग द्वेष से रहित होकर करने पर ही वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। सात्त्विक पुरुष कर्म को इसीलिए करता है, क्योंकि कर्म कर्तव्य है और वही ईश्वर की पूजा है। ऐसी भावना और प्रेरणा से युक्त होने पर मनुष्य अपनी ही सामान्य कार्यकुशलता एवं श्रेष्ठता से कहीं अधिक ऊँचा उठ जाता है। अर्पण की भावना से किये गये कर्मों में राग और द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। समस्त साधु सन्तों का सेवाकार्य इस तथ्य का प्रमाण है।
जो सात्त्विक पुरुष एकमेव अद्वितीय, सच्चित्स्वरूप सर्वव्यापी परमात्मा को आत्मस्वरूप में पहचान लेता है, तो उस पुरुष के लिए कोढ़ी और राजकुमार, स्वस्थ और अस्वस्थ, दरिद्र और सम्पन्न ये सभी लोग अपने आध्यात्मिक शरीर के विभिन्न अंगों के समान ही प्रतीत होते हैं। ऐसा पुरुष अनुप्राणित आनन्द और कृतार्थता की भावना से जगत् की सेवा करता है। इस प्रकार, सात्त्विक कर्मों की पूर्णता उनके करने में ही होती है। फल प्राप्ति का विचार भी उसमें उत्पन्न नहीं होता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.23 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)