।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 18.20 II
।। अध्याय 18.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 18.20॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥
“sarva- bhūteṣu yenaikaḿ,
bhāvam avyayam īkṣate..।
avibhaktaḿ vibhakteṣu,
taj jñānaḿ viddhi sāttvikam”..।।
भावार्थ:
जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक- पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ॥२०॥
Meaning:
By which one sees a single, imperishable, indivisible entity in all diverse beings, know that knowledge to be sattvic.
Explanation:
Knowledge, the doer and action were introduced in the prior shloka. Shri Krishna now begins the analysis of knowledge. To recap, jnyaanam or knowledge here refers to the meaning given by an individual to information conveyed by the senses and the mind. The view of a large garden, for instance, could be interpreted differently by different people. A nature lover would rush towards it. A city dweller may think of it is a waste of living space. A real estate developer would imagine a resort being built on it, and all the consequent profits that follow from it.
Knowledge can be saattvic, raajasic or taamasic, since it is a product of Prakriti or nature. Sattvic knowledge is taken up here. The mind and the senses, by their very nature, report a diverse world. Shri Krishna says that the vision that can see unity within this diversity is called saattvic vision or knowledge. Few people have such a vision, since it is hard to fight against the normal tendency of the mind to chop up the world into fragments.
so, we try to explain all three types of knowledge. Initially when a person looks at himself, he sees only the physical body. I experience my physical body alone. Other than the physical body, I do not see anything; therefore, I take myself to be the mortal body. And the date of birth of the body, I take as my date of birth. And the parents of this body I take as my parents, and the children born out of this body, I look upon as my children. And when the body is growing old, I say I am growing old; and when body will die, I consider that is the end of myself. So, this typical perspective is called deha-ātma buddhi. Looking upon oneself as the mortal body. You ask him what the mind is, he will say mind is nothing but the brain with its neuronal connection. This is called Chārvāka philosophy, materialistic philosophy. Knowing himself only body, this is called tāmasa jñāna.
And Krishna says, the knowledge that I am immortal, I am the immortal mind which survives the death of the body; which is invisible, and which travels from one body to another body, like removing the dress; I keep on removing the body and travel. So I am immortal, sūkṣma śarīram is also many in number, because there are so many minds. So previously I am jīvā, the body, I was telling; now I am telling, the jiva the mind. In fact, in India, most of the people believe in the survival of all of us. That is why they are worried about srāddham, tarpanam, etc. because they strongly believe that they will survive and they go to different lokas, and the children are giving oblations, offering and that will help my forefather. So, this knowledge, Krishna calls rājasika jñānam.
Further after developing more knowledge from material body to suksham body or mind Tamsi to Rajasi gyaan, I further develop more knowledge, I claim I am not the body, I am not even the mind which travels after death, but I am the consciousness which blesses not only this mind in this body; I am the consciousness which is behind all the bodies and all the mind. And that consciousness is ēkaḥ, akartā, abhōktā; this is the culmination of self-knowledge is satvik gyaan.
Creation gives the appearance of a panorama of diverse living beings and material entities. But the substratum behind this apparent diversity is the Supreme Lord. Those who possess this vision of knowledge see the unity that exists behind the variety of creation, just as an electrical engineer sees the same electricity flowing through different gadgets, and a goldsmith sees the same gold cast into different ornaments
Ultimately, a sattvic vision of seeing unity in diversity paves the way to understanding that the entire universe is pervaded by one single, imperishable, undivided entity. Initially, this entity is the eternal essence with attributes, the saguna brahman, also known as Ishvara. At the conclusion of the spiritual journey, the understanding evolves to recognize this entity as the nirguna brahman, the pure eternal essence, which is our own self. We can develop such a unified vision, this samyak darshana, through karma yoga. Instead of serving ourselves, we serve our family, then our community, our company, our state, our nation and eventually, Ishvara.
।। हिंदी समीक्षा ।।
बृहदारण्यक एवम कठोपनिषद के वर्णनानुसार जो यह पहचान लेता है कि इस जगत में नाना प्रकार के तत्व नही है, वह मुक्त हो जाता है और जो इस जगत में अनेकता को देखता है, वह जन्म मरण के चक्कर मे पड़ा रहता है। पूर्ण जगत को एकीकरण कर के एक मात्र परब्रह को देखना ही ज्ञान की परम सीमा है। यही सात्विक ज्ञान भी है। प्राणी मात्र में एक ही आत्मा को पहचानना पूर्ण एवम सात्विक ज्ञान है। इसे ही विभक्त में अविभक्त अथवा अनेकता में एकता भी कहते है।
पूर्व श्लोकों में हम ने इस ज्ञान को विभिन्न मिट्टी के पात्रों में मिट्टी एवम आभूषण में स्वर्ण को पहचानने के उदाहरण स्वरूप पढ़ा है। अब हम ज्ञान से इन तीनों गुणों को समझते है।
प्रारंभ में जब कोई व्यक्ति स्वयं को देखता है, तो उसे केवल भौतिक शरीर दिखाई देता है। मैं अकेले अपने भौतिक शरीर का अनुभव करता हूं। भौतिक शरीर के अलावा मुझे कुछ दिखाई नहीं देता; इसलिए मैं खुद को नश्वर शरीर मानता हूं और शरीर के जन्म की तारीख, मैं अपनी जन्मतिथि के रूप में लेता हूं। और इस शरीर के माता-पिता को मैं अपने माता-पिता के रूप में लेता हूं, और इस शरीर से पैदा हुए बच्चे, मैं अपने बच्चों के रूप में देखता हूं और जब शरीर बूढ़ा हो रहा है, तो मैं कहता हूं कि मैं बूढ़ा हो रहा हूं; और जब शरीर मर जाएगा, तो मैं मानता हूं कि यह मेरा अंत है। इसलिए इस विशिष्ट परिप्रेक्ष्य को देह-आत्मा बुद्धि कहा जाता है। अपने आप को नश्वर शरीर के रूप में देखना। आप उससे पूछते हैं कि मन क्या है, वह कहेगा कि दिमाग इसके न्यूरोनल कनेक्शन के अलावा और कुछ नहीं है। इसे चार्वाक दर्शन कहा जाता है यानि भौतिकवादी दर्शन। अपने आप को केवल शरीर को जानते हुए रहना, इसे तामसी ज्ञान कहा जाता है।
और कृष्ण कहते हैं, यह ज्ञान कि मैं अमर हूँ, मैं अमर मन हूँ जो शरीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है; जो अदृश्य है, और जो एक शरीर से दूसरे शरीर में यात्रा करता है, जैसे वस्त्र उतारना; मैं शरीर उतारता रहता हूँ और यात्रा करता रहता हूँ। तो मैं अमर हूँ, सूक्ष्म शरीर भी संख्या में अनेक है, क्योंकि मन बहुत हैं। तो पहले मैं जीव हूँ, शरीर, मैं कह रहा था; अब मैं जीव को मन कह रहा हूँ। वास्तव में, भारत में, अधिकांश लोग हम सभी के जीवित रहने में विश्वास करते हैं। इसीलिए वे श्राद्ध, तर्पण आदि के बारे में चिंतित रहते हैं क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास है कि वे जीवित रहेंगे और वे विभिन्न लोकों में जाएँगे, और बच्चे हवन, अर्पण कर रहे हैं और इससे मेरे पूर्वजों को सहायता मिलेगी। तो इस ज्ञान को, कृष्ण राजसिक ज्ञान कहते हैं।
भौतिक शरीर से सूक्ष्म शरीर या मन से तामसी से राजसी ज्ञान तक और अधिक ज्ञान विकसित करने के बाद, मैं और अधिक ज्ञान विकसित करता हूँ, मैं दावा करता हूँ कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मृत्यु के बाद यात्रा करने वाला मन भी नहीं हूँ, बल्कि मैं वह चेतना हूँ जो न केवल इस शरीर में इस मन को आशीर्वाद देती है; मैं वह चेतना हूँ जो सभी शरीरों और सभी मन के पीछे है। और वह चेतना एकः, अकर्ता, अभोक्ता है; यह आत्म-ज्ञान की परिणति है, जिसे सात्विक ज्ञान कहते हैं।
भगवान जिन तीन श्लोक में ज्ञान के त्रियामी गुणों का वर्णन करते है उस मे द्वेत में अद्वेत को पहचानना प्रथम सात्विक ज्ञान माना गया है, वे कहते है जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य, अव्यक्त से लेकर स्थावरपर्यन्त समस्त भूतों में एकभाव – एक आत्मवस्तु, जो कि अपने स्वरूप से या धर्म से कभी क्षय नहीं होता, ऐसा अविनाशी और कूटस्थ नित्यतत्त्व देखता है। यहाँ भाव शब्द वस्तुवाचक है तथा ( जिस ज्ञानके द्वारा ) उस आत्मतत्त्व को अलग अलग प्रत्येक शरीर में विभागरहित अर्थात् आकाश के समान समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को अर्थात् अद्वैतभाव से आत्मसाक्षात्कार कर लेने को तू सात्त्विक ज्ञान पूर्ण ज्ञान जान।
सृष्टि भौतिक जीवन और विभिन्न प्रकार के जीवों का परिदृश्य प्रकट करती है किन्तु इस प्रत्यक्ष विविधता का आधार परम भगवान ही हैं। जो मनुष्य इस प्रकार की ज्ञान दृष्टि से संपन्न हैं वे सृष्टि के निर्माण के पीछे उसी प्रकार की एकीकृत शक्ति को देखते हैं जिस प्रकार से एक विद्युत अभियंता विभिन्न प्रकार के विद्युत उपकरणों में एक समान विद्युत को प्रवाहित होते देखता है और एक सुनार भी एक ही सोने को विभिन्न प्रकार के स्वर्ण आभूषणों में परिवर्तित होते हुआ देखता है।
प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान, कर्म और कर्ता का जो त्रिविध वर्गीकरण किया जा रहा है। उसका उद्देश्य अन्य लोगों के गुणदोष को देखकर उनका वर्गीकरण करने का नहीं है। यह तो साधक के अपने आत्मनिरीक्षण के लिए है। आत्मविकास के इच्छुक साधक को यथासंभव सत्त्वगुण में निष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अपने अवगुणों को समझकर उनका तत्काल निराकरण कर सकते हैं। सात्त्विक ज्ञान के द्वारा हम भूतमात्र में स्थित एक अव्यय सत्य को देख सकते हैं। यद्यपि उपाधियाँ असंख्य हैं, तथापि उन का सारभूत आत्मतत्त्व एक ही है।
प्रस्तुत वर्गीकरण ज्ञान का है, ज्ञाता या कर्ता का नहीं। ज्ञान का सही एवम उत्तम होने से ज्ञाता का वर्गीकरण होगा। जिन्हें हम दैविक एवम आसुरी सम्पद में पढ़ कर आये है।
संसार का ज्ञान इन्द्रियों से होता है, इन्द्रियों का ज्ञान बुद्धि से होता है और बुद्धि का ज्ञान मैं से होता है। वह मैं बुद्धि, इन्द्रियाँ और विषय – इन तीनों को जानता है। परन्तु उस मैं का भी एक प्रकाशक है। जिस में मैं का भी भान होता है। वह प्रकाश सर्वदेशीय और असीम है, जब कि मैं एकदेशीय और सीमित है। उस प्रकाश में जैसे मैं का भान होता है, वैसे ही तू, यह और वह का भी भान होता है। वह प्रकाश किसी का भी विषय नहीं है। वास्तव में वह प्रकाश निर्गुण ही है परन्तु व्यक्ति विशेष में रहनेवाला होने से (वृत्तियों के सम्बन्ध से) उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। इस सात्त्विक ज्ञान को दूसरे ढंग से इस प्रकार समझना चाहिये, मैं, तू, यह और वह – ये चारों ही किसी प्रकाश में काम करते हैं। इन चारों के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी आ जाते हैं, जो विभक्त हैं परन्तु इन का जो प्रकाशक है, वह अवभिक्त (विभागरहित) है।
यह चारो मैं, तू , यह एवम वह संज्ञा एवम सर्वनाम के अनुसार अपनी अपनी स्थिति बदलते रहते है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मैं, तू यह और वह – ये सब परिवर्तनशील हैं अर्थात् टिकनेवाले नहीं हैं, वास्तविक नहीं हैं। अगर वास्तविक होते तो एक ही रहते। वास्तविक तो इन सब का प्रकाशक और आश्रय है, जिस के प्रकार मैं, तू, यह और वह – ये यारों ही एक दूसरे की उस प्रकाश में मैं, तू, यह और वह ये चारों ही नहीं हैं, प्रत्युत उसी से इन चारों को सत्ता मिलती है। अपनी मान्यता के कारण मैं, तू, यह, वह का तो भान होता है, पर प्रकाशक का भान नहीं होता। वह प्रकाशक सब को प्रकाशित करता है, स्वयंप्रकाश स्वरूप है और सदा ज्यों का त्यों रहता है। मैं, तू, यह और वह – यह सब विभक्त प्राणियों का स्वरूप है और जो वास्तविक प्रकाशक है वह विभागरहित है। यही वास्तव में सात्त्विक ज्ञान है।
कभी भीड़ में यदि पीठ दिखाकर फ़ोटो ली जाए तो सभी एक से दिखेंगे। यही वास्तविक पहचान है।
यद्यपि विभिन्न एवं विभक्त उपाधियों के कारण प्रतिदेह आत्मतत्त्व भिन्न प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में आत्मतत्त्व एक, अखण्ड और अविभाज्य है। जैसे, विभिन्न घट उपाधियों के कारण सर्वगत आकाश विभक्त हुआ प्रतीत होता है, परन्तु स्वयं आकाश सदैव अखण्ड और अविभक्त ही रहता है। जिस ज्ञान के द्वारा हम उस एकमेव अद्वितीय परमात्मा के इस विलास को समझ पाते हैं, वही ज्ञान सात्त्विक है।
यह ज्ञान की सर्वोत्तम अवस्था है, जिस में कोई विभेद नही अर्थात यहां ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का विभेद समाप्त हो जाता है, जीव स्वयं प्रकाशमान ब्रह्मविद हो जाता है, इसलिए विवेक चूड़ामणि के कुछ सुक्त को हम पढ़ते है।
नाट्यकर्मी जैसे विचित्र वेष-विन्यास धारण किए रहने पर अथवा उसके अभाव में भी सर्वदा वही व्यक्ति रहता है, वैसे ही सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञ पुरुष उपधियुक्त हो या उपधिमुक्त , सभी अवस्थाओं में ब्रह्म ही रहते हैं, अन्य कुछ नहीं ।।
मोक्ष न देह की मृत्यु का नाम है और न दण्ड-कमण्डलु के त्याग का, बल्कि हृदय ( अन्तःकरण ) की अविद्यारूपी ग्रन्थि के नाश को मोक्ष कहते हैं ।।
जिस प्रकार पत्थर, वृक्ष, घास, धान,भूसी आदि जलने पर मिट्टी में ही परिणित हो जाते हैं; उसी प्रकार देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन आदि समस्त दृश्य ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाने के बाद शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त होते हैं ।।
क्योंकि सत्स्वरूप ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व-बोध के फलस्वरूप जिनकी अविद्या आदि से उत्पन्न होनेवाले तीनों शरीर ( स्थूल ,सूक्ष्म और कारण) दग्ध हो गये हैं, उनकी ब्रह्मीभूत अवस्था के फलस्वरूप, ब्रह्म का पुनर्जन्म कहाँ से होगा? अर्थात उनका पुनर्जन्म नहीं होगा ।।
बन्धन तथा मोक्ष- ये दोनों ही माया से कल्पित हैं। अपनी आत्मा में इन दोनों का वास्तविक अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है, जैसे कि निष्क्रिय रस्सी में सर्प की भ्रान्ति आती है और चली जाती है।।
बन्ध और मोक्ष दोनों बुद्धि के गुण हैं। इन्हें मूढजन भ्रान्तिवश आत्मस्वरूप पर उसी प्रकार आरोपित करते हैं, जैसे मेघ के द्वारा दृष्टि के ढक जानेपर सूर्य को ढका हुआ कहा जाता है । ब्रह्म तो अक्षय, अद्वय, असंग तथा चैतन्य-स्वरूप है।।
पदार्थ का होना और न होना– ऐसा जो ज्ञान है वह बुद्धि का ही गुण है ; नित्य वस्तु आत्मा का नहीं ।।
अतः बन्धन और मोक्ष- ये दोनों माया द्वारा कल्पित हैं, आत्मा में कदापि नहीं रहते। आकाश के समान पूर्ण, निष्क्रिय, शान्त, निर्मल, निरन्जन और अद्वितीय परमब्रह्म में बन्धन या मोक्ष की कल्पना भला कैसे हो सकती है।।
वास्तविक बात तो यह है कि न किसी की उत्पत्ति होती है और न विनाश होता है, न कोई बद्ध है और न कोई साधक है, न कोई मुमुक्षु है और न कोई मुक्त है।।
आगे राजस ज्ञान का वर्णन पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 18.20 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)