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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  18.13 II Additional II

।। अध्याय      18.13 II विशेष II

।। संक्षिप्त पुनरावलोकन – विशेष – गीता 18.13।।

गीता का अध्याय 18 सम्पूर्ण गीता का उपसंहार होने से अत्यंत महत्वपूर्ण है एवम अभी तक गीता में जो भी तथ्य, उपदेश, निर्देश एवम मार्ग बताया गया है उस का कारण सहित उत्तर भी है। इसलिये हो सकता है समीक्षा कुछ बड़ी भी हो जाये।

मनुष्य जब जन्म लेता है, तो पूर्व जन्म का उसे कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर प्रथम 5 सालो तक जिस भी वातावरण में वह पलता है, वह उस के लिए एक व्यक्तित्व, आस्था और विश्वास का आधार होता है। इस के बाद की यात्रा ज्ञान की यात्रा है, जिस में वह अपने आधार स्वरूप प्रदत्त आस्था विश्वास और व्यक्तित्व को उज्ज्वलित कर सकता है, इस के लिए उस को खुले विचारों और ज्ञान, सत्संग और उत्तम पुस्तकों की आवश्यकता होती है। सनातन धर्म ने कभी अपनी सीमाएं निर्धारित नहीं की, इसलिए आस्था के नाम पर प्रत्येक विचार धारा जो भी मानव के कल्याण के लिए हो, सनातन धर्म में स्वीकार किया गया।

इस महान ग्रंथ को अध्ययन करते हुए मुझे याद आता है कि अग्निपथ नाम की पिक्चर में गीता के श्लोकों को विलेन द्वारा बोला हुआ बताया गया था। हिन्दू धर्म के ग्रंथो का यद्यपि अनेक बार अपमान या गलत अर्थ भी स्वार्थ वश आम व्यक्ति को प्रस्तुत कर के, इन के बारे में भद्दी टिप्पणियां कर के, इन ग्रंथों के ज्ञान का उपहास भी हुआ है। किंतु जिस किसी ने विवेक बुद्धि से इन ग्रथो को पढा है वो सदा के लिये उन महान विचारकों एवम महऋषियों के ज्ञान के आगे नत मस्तक हो गया।

आस्था एवम कट्टरता में अंतर है। आस्था अन्तःकरण में ज्ञान के मार्ग पर विश्वास है और इस के लिये शंकाओं का समाधान एवम उन्नति के नए विचारों का हमेशा स्वागत किया गया है। यही आस्था हमारी धर्म संस्कृति की पूंजी है। कट्टरता मतान्धता है, जिस में विवेक का द्वारा बन्द कर के अंधविश्वास को बढ़ाया गया है। हमारे अंदर आस्था होनी चाहिये जिस से हम सही मार्ग पर भी चले एवम अपने को उन्नत भी करे।

किंतु हम लोग लोभ, स्वार्थ, आलस्य, काम, क्रोध आदि राजसी और तामसी गुणों के कारण सात्विक होने की इच्छा रखते हुए भी, इन दो गुणों को छोड़ नही पाते। धर्म ग्रंथो के पठन से मुक्ति की आशा तो रखते है, किंतु उन के गहन अर्थ को समझ कर आचरण में लाने से भयभीत रहते है। राजसी और तामसी प्रभाव में शब्दो के अर्थ या भाव को भी बदल कर अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते है। इसलिए गीता जैसे महान ग्रंथ का अर्थ सभी ने अलग अलग भाव में समझा। केवल ज्ञानी ही इस के अर्थ को समझ कर निष्काम कर्मयोगी बने।

सांसारिक जीव ने अपने कर्म क्षेत्र में राजनैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं पारिवारिक ज्ञान की शैली तैयार कर रखी है। संसार में पद, नाम और धन को सफलता का मापदंड बना कर हर जीव इन के पीछे सुख के लिए भाग रहा है। शरीर प्रकृति को भोगने के लिए बना है किंतु अज्ञान से वह स्वयं प्रकृति का दास हो कर भोग्य पदार्थ हो गया है। इसी कारण आपसी ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, लोभ, अहंकार और अहम में वह अपना जीवन व्यतीत करता है।

प्रकृति के तीन गुणों और योगमाया का जाल में जीव अपने अस्तित्व को भूल कर संसार और सम्पूर्ण सृष्टि को ही सत्य समझ कर भोग रहा है। उस का अतिभौतिकवाद ही धर्म, नीति और ज्ञान हो गया। इसलिए शास्त्र और वेदों के अर्थ को वह अपनी सुविधा और सुख के लिए परिभाषित कर रहा है। अतः जब तक सत्व गुण का प्रदुर्भाव नहीं होता, तब तक जीव को माया के सत्य का ज्ञान भी नहीं होता। इसलिए गीता के अध्ययन के साथ उस की विवेचना भी विभिन्न अर्थों में की जाती है।

आगे सतहरवे श्लोक में जिस गूढ़ अर्थ से गीता के भगवान के कर्तव्य पालन का सार है, उसे शायद ही कोई समझ सके कि इतनी गहन बात इतने सरल शब्दों में कैसे कही जा सकती है।

अग्निपथ का विलेन हो या आसुरी वृति का जीव, गीता उन्ही के लिये है, जो स्वयं का कर्मयोग से मोक्ष चाहता है, शेष सभी इस महान ग्रंथ को अपने अपने स्वार्थ के अनुसार अर्थ निकाल कर उपयोग करते है। सनद रहे कि प्राचीन इतिहास में हिरण्यकश्यप, रावण, कंस, दुर्योधन आदि सभी शूरवीर और ज्ञानी थे, किंतु उन का ज्ञान उन के स्थूल शरीर तक ही सीमित था। आत्मज्ञान के बिना शरीर के ज्ञान को ही अतिभौतिकवाद माना गया है। महाभारत के युद्ध में भी सहस्त्र योद्धाओं एवम शूरवीरों में मात्र अर्जुन ही ज्ञान का पात्र बना, क्योंकि परमात्मा को उस ने और परमात्मा ने उस को चुना था। गीता संजय ने भी सुनाई और धृष्टराष्ट्र ने सुनी किन्तु परमात्मा के प्रति समर्पण के अभाव में यह विलेन के हाथों में अग्निपथ के विलेन की भांति ही थी। अतः बोलने, सुनने और पढ़ने से प्रेरणा अवश्य मिलती है किंतु परिवर्तन समर्पण से मिलता है।

हम सदा एकरूप चैतन्यमय , सर्वव्यापी, आनन्दस्वरूप, पवित्र कीर्तिवाले, अविनाशी आत्मा हैं । हमें अहंकार के अध्यास हुए बिना किसी भी प्रकार से संसार- बन्धन की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए हम अहंकार रूपी शत्रु को विज्ञानरूपी महाखड्ग से छेदनकर , स्पष्ट रूप से प्रकट होने वाले आत्म- साम्राज्य – सुख का भोग करें।

सुख और आनंद का प्रथम दृष्टया अनुभव शरीर से होता है। इसलिए हमारी सारी चेष्टा उसी सुख और शांति प्राप्त करने की होती है जो हम प्रत्यक्ष इंद्रियों से अनुभव कर सके। किंतु इंद्रियों से  जो भी सुख की प्राप्ति होती है वह स्थायी नहीं होने से, आवश्यकता मानसिक सुख को अनुभव करने की हुई जिसे हम दान, धर्म, दया और सहयोग से प्राप्त करते है। किंतु यह मन भी स्थायी नहीं होने से, यह सुख स्थायी नहीं होता इसलिए जीव को यह समझ में आने लगता है कि वह शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और भी है, वहीं स्थायी है जिसे आत्मा कहा गया। सन्यास और त्याग को परिभाषित करते हुए, इस आत्मा को जानने का प्रयास और व्यक्त सूक्ष्म और स्थूल प्रकृति के सुख की कामना और लालसा को त्यागने को ही त्याग कहा गया है। अतः जैसे बल्ब के प्रकाशित होने में बल्ब की रचना के अतिरिक्त बिजली का योगदान है, वैसे ही सांसारिक क्रियाएं भी प्रकृति अपने व्यक्त, स्थूल और सूक्ष्म जड़ पदार्थ को क्रियामान रखने के लिए अपनी अव्यक्त ऊर्जा और आत्मा को जोड़े रखती है। अतः संसार में प्रत्येक जीव जब तक वास्तविक आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं करता, प्राकृतिक ज्ञान के कारण विभिन्न विचार और धारणाओं को अपनाता है।

मेरा ऐसा निज का अनुभव है कि जिन सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों में हम रहते है, उस में महत्व जीवन व्यापन के धन की आवश्यकता है, क्योंकि आतिभौतिकवाद में धन का महत्व बढ़ जाता है, इसलिए सम्मान का विषय पद, सत्ता और धन होता है। धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी व्यवसायिक हो जाता है। धर्म की व्याख्या भी बदल जाती है, व्यक्ति जो भी श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से करता है, वही उस की भक्ति और आस्था और भक्ति है। इसलिए गीता का अध्ययन हमारे बौद्धिक विकास और समस्या को सही तरीके से समझ कर करने में सहायक होता है और किसी कार्य को संसार में अपने अपने कर्म को करते हुए भी, मुक्ति के मार्ग पर किस प्रकार चले, यह हम सीख जाते है।

अतः प्रकृति किस प्रकार जड़ पदार्थों को आत्मा से जोड़ कर क्रियाशील होती है और जीव अज्ञान और भ्रम में किस प्रकार अपने को कर्ता और भोक्ता समझ कर अस्थायी सुखों की कामना और आसक्ति में जीवन व्यतीत करते हुए, कर्मफल बंधन में बार बार जन्म लेता है और उन्हें भोगता है, इस के कौन कौन से घटक है, यह गीता के सार में स्वरूप इस अध्याय में आगे हम पढ़ने जा रहे है।

इसलिये निवेदन यही है आने वाले कुछ श्लोक अत्यंत ध्यान से पढ़े।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – विशेष 18.13 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)          

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