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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.24 II

।। अध्याय      17.24 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 17.24

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।

प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥

“tasmād oḿ ity udāhṛtya,

yajña- dāna- tapaḥ- kriyāḥ..।

pravartante vidhānoktāḥ,

satataḿ brahma- vādinām”..।।

भावार्थ: 

इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव “ओम” (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)

Meaning:

Therefore, with the chanting of Om, are the acts of sacrifice, charity and penance, according to scripture, always begun by the followers of Vedas.

Explanation:

To connect to a website, we need its address. To call someone, we need their number. To hear a radio station, we need to tune the radio to the station’s frequency. Similarly, before we begin an action, we need to align our mind, to connect our mind, to Ishvara. We can only do so when the level of likes and dislikes, of raaga and dvesha, has been reduced to a great extent. Is there a way, a technique, by which we can quickly calm our mind down, and tone down our likes and dislikes?

Shri Krishna suggests that we chant Om prior to performing any sattvic action. Doing so sets up vibrations in our system. These vibrations reduce our likes and dislikes and clear our mind of selfish thoughts. Visualizing the symbol of Om while chanting it is even better. Om has been used in this manner by those who have faith in the scriptures, who are performing acts of sacrifice, penance or charity. The more frequently we begin actions with Om, the more we will bring sattva into our actions.

The syllable Om is a symbolic representation of the impersonal aspect of God. It is also considered as the name for the formless Brahman. It is also the primordial sound that pervades creation. Its proper pronunciation is: “Aaa” with the mouth open, “Ooh” with the lips puckered, and “Mmm” with the lips pursed. It is placed in the beginning of many Vedic mantras as a bīja (seed) mantra to invoke auspiciousness.

In the Jnyaneshwari, Sant Jnyaneshwar points out that Om has an additional feature. Normally, acts of sacrifice, penance and charity bind us through attachment to their results. By adding Om, also known as the Pranava, to the start of any action helps us focus on the action and weakens attachment to the result. He says that the chanting of Om while commencing an action is as valuable as a steady light in deep darkness, and as an able-bodied companion while travelling in a jungle.

।। हिंदी समीक्षा ।।

अध्यात्म दृष्टि से जगत में सभी वस्तुओं के दो वर्ग माने गए है, नाम रूप और नाम रूप से आच्छादित नित्य तत्व। यह नित्य तत्व ही ब्रह्म का स्वरूप माना गया, जिस को कभी सत और कभी असत कहा जाता है। नाम रूपात्मक जगत दृश्य है इसलिये जो दिखता है वह सत है और जो आंखों से नही दिखता वह अनृत अर्थात त्यत अर्थात परे है। किंतु सत-असत की इस परिभाषा को अंत मे बदला भी गया। गीता में भी अध्याय दो में परब्रह को सत और अविनाशी है, एवम नाम रूप जगत को असत अर्थात नाशवान कहा गया।

ओम् शब्दांश भगवान के निरोकार रूप की एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। यह निराकार ब्रह्म के नाम के रूप में भी माना जाता है। यह मूल ध्वनि भी है जो सृष्टि में व्याप्त रहती है। इसका शुद्ध उच्चारण खुले मुख के साथ ‘आ’, ओष्ठों को सिकोड़कर ‘ऊ’ तथा ओष्ठों को पीछे लाकर ‘म’ ध्वनि निकालने से होता है। इसे मांगलिक कार्यों के आह्वान के लिए कई वैदिक मंत्रों के रूप में प्रथम स्थान पर रखा गया है।

‘ॐ तत सत’ पूर्व में तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णित परिभाषा को ध्यान में रखते हुए, ॐ प्रणव अक्षर, तत जो परे अथवा दृश्य सृष्टि से दूर रहने वाला अनिर्वाच्य तत्व और सत का अर्थ आखों के सामने वाली दृश्य सृष्टि ही लेंगे।

गीता कर्मप्रधान ग्रन्थ है, अतः ॐ तत सत ब्रह्मनिर्देश का द्वारा कर्मयोग का पूर्ण समर्थन किया है, इसलिये यहाँ इसको हम कर्मयोग के माध्यम से ही समझने की चेष्टा करेंगे।

ब्रह्मवादियों से तात्पर्य सात्त्विक, जिज्ञासु साधकों से है। अपने सभी कर्मों में परमात्मा का स्मरण रखने से उन्हें श्रेष्ठता, शुद्धता और दिव्यता प्राप्त होती है। परमात्मा के स्मरण में ही अहंकार और उसके बन्धनों का विस्मरण है। अहंकार के अभाव में, साधक अपने तपाचरण में अधिक कुशल, यज्ञ कर्मों में निस्वार्थ और दान में अधिक उदार बन जाता है। यहां ब्रह्मवादी के लिए जाति, लिंग और वर्ण व्यवस्था के अनुसार जन्म आधारित वर्ण की कोई बात नही की गई है।

इसलिये वेद का प्रवचन पाठ करने वाले ब्राह्मणों की शास्त्रविधि से कही हुई यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ ब्रह्म के ओम् इस नाम का उच्चारण कर के ही सर्वदा आरम्भ की जाती हैं।

कारण कि सब से पहले – प्रणव प्रकट हुआ है। उस प्रणव की तीन मात्राएँ हैं। उन मात्राओं से त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई है और त्रिपदा गायत्री से ऋक, साम और यजुः – यह वेदत्रयी प्रकट हुई है। इस दृष्टि से सब का मूल है और इसी के अन्तर्गत गायत्री भी है तथा सब के सब वेद भी हैं। अतः जितनी वैदिक क्रियाएँ की जाती हैं वे सब का उच्चारण करके ही की जाती हैं।

अद्वेतवाद में जीव को अपने परमब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हो जाता है एवम उस का प्रकृति से सम्बन्ध का अज्ञान भी समाप्त को जाता है, इसलिये वह ब्रह्मसन्ध हो कर अहम ब्रह्मास्मि का मंन्त्र बोल उठता है। अतः जो ब्रह्मसन्ध है उस के समस्त कर्म भी परमात्मा के ही कर्म है और वह अपने समस्त कर्मो का प्रारम्भ ॐ से करता है। उस की श्रद्धा यजन, यज्ञ, तप एवम ज्ञान शास्त्रविहित होती है। इसलिये वेद मंन्त्र ॐ से प्रारम्भ होते है।

जो अशुद्ध है उन्हें वेद मंत्रों के उच्चारण पर रोक थी, क्योंकि बिना ब्रह्मसन्ध हुए वेद मंत्रों के उच्चारण में ब्रह्म की सिद्धि नही। कालांतर में राजनीतिक कारणों से अशुद्ध को शुद्र में परिवर्तित किया गया, जब कि जितने भी ऋषि मुनि ब्रह्मसन्ध हुए, उन की जाति नही देखी गयी।

ब्रह्म का नामरूपान्तर नही हो सकता किन्तु ब्रह्मसन्ध में प्रणव अक्षर ॐ की खोज की जिस के उच्चारण मात्र से ब्रह्म जागृत हो जाता है। ब्रह्मसन्ध के समस्त कर्म ब्रह्म के निमित है, इसलिये वेद मंत्रों में, यजन में, यज्ञ में, तप में, दान में कुछ भी करने से पूर्व ॐ का उच्चारण किया जाता है।

बोधवान मुनि में निरंहकारता के कारण विषयों को ग्रहण या त्याग करने की वृत्ति न होने से कोई कर्म- प्रयास नहीं रहता।  अत: निरन्तर ब्रह्म में एकनिष्ठा के द्वारा ॐ के उच्चारण द्वारा अपने अध्यास को हमें दूर करना है। ।

“ॐ तत् सत्” का कर्म के आरंभ, मध्य और अंत, इन तीनों स्थान पर करना चाहिए। ब्रह्मवेदा जो कर्म के बंधन से मुक्त है, वह लोग यज्ञ आदि का प्रारंभ ॐ के उच्चारण से ही करते है। अर्थात उन के प्रत्येक कर्म का आधार परब्रह्म है, इसलिए ब्रह्म से एकता बनाए रखते हुए, उन के समस्त कर्म भी ब्रह्म के ही कर्म होते है।

उदाहरण के लिए किसी वेबसाइट से जुड़ने के लिए हमें उस का पता चाहिए। किसी को कॉल करने के लिए हमें उसका नंबर चाहिए। किसी रेडियो स्टेशन को सुनने के लिए हमें रेडियो को स्टेशन की फ्रीक्वेंसी पर ट्यून करना होगा। इसी तरह, किसी काम को शुरू करने से पहले हमें अपने मन को ईश्वर से जोड़ना होगा। हम ऐसा तभी कर सकते हैं जब पसंद-नापसंद, राग और द्वेष का स्तर काफी हद तक कम हो गया हो। क्या कोई तरीका, कोई तकनीक है, जिससे हम अपने मन को जल्दी से शांत कर सकें और अपनी पसंद- नापसंद को कम कर सकें? इस के अतिरिक्त जब हम जप, दान, तप, कर्म आदि करते है तो वह हमारी भौतिक या आध्यात्मिक आवश्यकताओं से जुड़ी होती है, इस का संपूर्ण ज्ञान नहीं होता। ध्यान लगाते वक्त कुछ सेकंड के ध्यान के बाद, मन पुनः संसार में विचरण करने लगता है, ऐसे में यदि हम जो भी क्रियाएं करते है उस को परमात्मा से जुड़ी रखने के लिए, क्रिया करने के बाद ॐ तत् सत् कह कर पूर्ण करते है अर्थात जिस भी प्रकार, मन और बुद्धि से कार्य किया हो, वह परमात्मा द्वारा ही किया कार्य, परमात्मा को ही समर्पित कर देना है।

गीता कर्मप्रधान ग्रन्थ होने से कहती है जीव को शास्त्रों के अनुसार अपने सभी कर्म ब्रह्म निमित ही मानना चाहिये। कर्म से कोई मुक्त नहीं है, जिन्हे शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है, उन की श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के अनुसार उन का प्रत्येक कार्य ॐ से ही शुरू होता है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17. 24 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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