।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.22 II
।। अध्याय 17.22 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.22॥
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥
“adeśa- kāle yad dānam,
apātrebhyaś ca dīyate..।
asat- kṛtam avajñātaḿ,
tat tāmasam udāhṛtam”..।।
भावार्थ:
जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है॥२२॥
Meaning:
That which is donated at an incorrect place or time, to wrong persons, without respect and out of ignorance, that charity is called taamasic.
Explanation:
Having covered the nature of saatvic and raajasic charity, Shri Krishna now describes taamasic charity. He says that charity performed without considering a proper time and place is considered taamasic. If we donate on a whim rather than doing so on an auspicious day, for instance, we introduce a tinge of our ego into the donation. Also, gifts that trouble the recipient, gifts given out of complete ignorance, are taamasic as well. Donating an expensive TV to a person who is struggling to eat does not make sense.
Charity in the mode of ignorance is done without consideration of proper place, person, attitude, or time. No beneficial purpose is served by it. For example, if money is offered to an alcoholic, who uses it to get inebriated, and then ends up committing a murder, the murderer will definitely be punished according to the law of karma, but the person who gave the charity will also be culpable for the offence. This is an example of charity in the mode of ignorance that is given to an undeserving person.
Many people nowadays take pleasure in insulting their priest or their teacher while giving them a gift, simply because they are drunk with power and money. Such charity in which an insult, a slur or a taunt is given along with the gift also becomes taamasic. If we disrespect the recipient of our charity, we are harming ourselves and the recipient instead of performing an auspicious act. A gift should always be given with politeness and humility. Furthermore, gifts should never be given to unworthy persons such as robbers and criminals.
when it is given to a deserving person, when the gift is given by ill-treating or not respecting the person properly; that deserving person may be a poor person, does not mean that I have to look down upon him. That is why, look upon the person as Nārayaṇa and it is an opportunity for me, I am in a position to share. And that person needs; therefore, without looking down upon the receiver, without insulting the receiver, without harassing him donation is to be given.
We should be careful, however, to use our judgement and our discretion while performing charity, and not abstain for charity just because we are worried about going against the rules prescribed here. There are millions of people around the world that struggle to survive, that are in need of food, water, clothing and medicine. If we donate money to any institution that provides needy people with these amenities, we may not have control over the time and place of the donation, but that should not stop us. More broadly, there are instances where our acts of sacrifice, penance and charity may have a defect in them. Shri Krishna gives us a formula to deal with them next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
शास्त्रविहित श्रद्धा रखने वालों के दान के गुण को बताते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते है, जो दान अयोग्य देशकाल में अर्थात् अशुद्ध वस्तुओं और म्लेच्छादि से युक्त पापमय देश में तथा पुण्य के हेतु बतलाये हुए संक्रान्ति आदि विशेषता से रहित काल में और मूर्ख, चोर आदि अपात्रों को दिया जाता है तथा जो अच्छे देशकालादि में भी बिना सत्कार किये, प्रिय वचन, पादप्रक्षालन और पूजादि सम्मान से रहित तथा पात्र का अपमान करते हुए दिया जाता है, वह तामस दान कहा गया हैं।
तमोगुण में उचित स्थान, व्यक्ति, भावना अथवा समय का विचार किए बिना दान किया जाता है। इससे किसी प्रकार के लाभप्रद उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती। उदाहरणार्थ यदि धन को किसी मदिरापान करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है तब वह इसका प्रयोग मदिरा क्रय करने में करेगा तथा किसी की हत्या करेगा, हत्यारे को कर्मों के नियमों के अनुसार निश्चय दंड मिलेगा। किंतु जिस व्यक्ति ने यह दान दिया है वह भी इस अपराध का दोषी होगा और दंड का भागी बनेगा। यह तमोगुण के प्रभाव में किए गए दान का एक उदाहरण है जो किसी कुपात्र को दिया गया था।
तामस दान सात्विक दान के विपरीत रीति का है, इसलिये तामसी दान किसी तिरस्कार या अपमानित कर के, देश-काल और स्थान का ध्यान नही रख कर दिया जाता है, पात्रता को भी ध्यान नही दिया जाता है। स्थान और समय से आशय अस्वच्छ स्थान पर, अस्वच्छ या असमाजिक क्रिया करते हुए भी ले सकते है।
अन्न, जल, वस्त्र और औषध- इन चारों के दान में पात्र कुपात्र आदि का विशेष विचार नहीं करना चाहिये। इस में भी देश, काल, और पात्र मिल जाय, तो उत्तम बात और न मिले, तो कोई बात नहीं। लेकिन कुपात्र को अन्नजल इतना नहीं देना चाहिये कि जिस से वह पुनः हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त हो जाय जैसे कोई हिंसक मनुष्य अन्न जल के बिना मर रहा है, तो उस को उतना ही अन्नजल दे कि जिस से उस के प्राण रह जायँ, वह जी जाय। इस प्रकार उपर्युक्त चारों के दान में पात्रता नहीं देखनी है, प्रत्युत आवश्यकता देखनी है।
दान श्रद्धा, प्रेम और विश्वास के साथ त्याग का विषय है, दान लेने वाला और दान करने वाला दोनो में से कोई भी यदि तामसी गुण से युक्त होगा तो दान के विषय त्याग, सहयोग, सम्मान और उपयोगिता से बाहर, तिरस्कार, उपेक्षा, दंभ, अहंकार और दान की गई वस्तु की अनुपयोगिता में बदल जाएगा। जब दानी दान की गई वस्तु पर वैधानिक अधिकार नही रखता तो उस का दान भी तामसी अर्थात निरर्थक है। वैसे ही दान लेने वाला कपट, छल या गलत उद्देश्य से दान प्राप्त करता है तो यह दान भी तामसी है।
तमोगुण में उचित स्थान, व्यक्ति, भावना अथवा समय का विचार किए बिना दान किया जाता है। इससे किसी प्रकार के लाभप्रद उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती। उदाहरणार्थ यदि धन को किसी मदिरापान करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है तब वह इसका प्रयोग मदिरा क्रय करने में करेगा तथा किसी की हत्या करेगा, हत्यारे को कर्मों के नियमों के अनुसार निश्चय दंड मिलेगा। किंतु जिस व्यक्ति ने यह दान दिया है वह भी इस अपराध का दोषी होगा और दंड का भागी बनेगा। यह तमोगुण के प्रभाव में किए गए दान का एक उदाहरण है जो किसी कुपात्र को दिया गया था।
गीता में तामस कर्म का फल अधोगति बताया है और रामचरितमानस में बताया है कि जिस किसी प्रकार से भी दिया हुआ दान कल्याण करता है -जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।।
इन दोनों में विरोध है, जिसे हम समझने की चेष्टा करते है
धर्म के चार चरण हैं- सत्यं दया तपो दानमिति। इन चारों चरणों में से कलियुग में एक ही चरण दान है – दानमेकं कलौ युगे (मनुस्मृति 1। 86)।
इसलिये गोस्वामीजी महाराज ने कहा — प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7। 103 ख)
इस कलियुग के समय मनुष्यों का अन्तःकरण बहुत मलिन हो रहा है। इसलिये कलियुग में एक छूट है कि जिस किसी प्रकार भी किया हुआ दान कल्याण करता है। इस से मनुष्य का दान करने का स्वभाव तो बन ही जायगा, जो आगे कभी किसी जन्म में कल्याण भी कर सकता है।
आहार, यज्ञ, तप और दान के समान ही ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख की त्रिविधिता का वर्णन अध्याय 18.20-39 में किया है, अतः श्रद्धा युक्त शास्त्र का अध्ययन न करने वालो के कर्म के गुणभेद प्रकरण यही समाप्त होते है। गीता में आसुरी वृति से धन के अर्जन के दान के विषय मे यद्यपि कोई स्पष्ट वर्णन नहीं है किंतु यह स्पष्ट है कि कर्म का फल सम्पति के अर्जन की त्रिविधि और दान की त्रिविधि का परिणाम कर्म के साथ ही संयुक्त है, अतः तामसी विधि से अर्जित धन का दान भी तामसी ही होना चाहिए। और दान के दाता के रहीम का कहना है:
देनहार कोई और है,
भेजत सो दिन रैन..।
लोग भरम हम पै धरैं,
याते नीचे नैन..।।
हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं। देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए।
आगे ब्रह्मनिर्देश के आधार पर हम सात्विक कर्म की श्रेष्ठता और संग्राह्ययता को पढ़ेगे, क्योंकि कर्म सात्विक, राजस या तामसी कैसा भी हो दुखदायक और दोषमय माना गया है, फिर कर्म करने या उस का भेद क्यों किया जाता है। गीता कहती है कि कर्म के सात्विक, राजस, और तामस भेद परब्रह से अलग नहीं है, जिस संकल्प में ब्रह्म का निर्देश किया गया है, उसी में सात्विक कर्मो और सत्कर्मो का समावेश होता है, और इस से निर्विवाद सिद्ध है कि ये कर्म अध्यात्म दृष्टि से भी त्याज्य नही है। अतः आगे परब्रह के जिस स्वरूप का ज्ञान अर्जित किया गया है, उस परब्रह को हम ॐ तत्सत इन तीन शब्दो के माध्यम से पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17. 22 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)