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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.07 II

।। अध्याय      17.07 II

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता 17.7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु

“āhāras tv api sarvasya,

tri- vidho bhavati priyaḥ..।

yajñas tapas tathā dānaḿ,

teṣāḿ bhedam imaḿ śṛṇu”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! सभी मनुष्यों का भोजन भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है, और यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं, इनके भेदों को तू मुझ से सुन। (७)

Meaning:

Food, also, which is dear to all, is of three types, and similarly, sacrifice, penance and charity. Hear this, their distinction.

Explanation:

Shri Krishna now begins to explain the method by which we can analyze the texture or the nature of our faith. The principle here is to assess the attitude with which we perform actions. The type of attitude maintained while performing an action will reveal whether our faith is saatvic, raajasic or taamasic. Shri Krishna covers the entire spectrum of actions performed by us with just four categories: our intake of food, sacrifice, penance and charity. To better understand these categories, we need to understand the underlying symbolic meaning.

Ahāraḥ; the food that a person consumes; is also of three types. Trividhā means sātvic, rājasic and tāmasic categories are there; in the type of food that we eat. And the yajñāḥ; means the worship or karm, the type of pūja that a person performs. Even though Krishna has talked about pūja before, it is from the standpoint of śraddhā that is talked about before. Here Krishna wants to directly talk about pūja, therefore yajñāḥ, worship is also trividha, three types, sātvik, rājasic and tāmasic. Then tapaḥ, means austerity, penance. is also of three types. then finally, Charity is very good; even in charity there are three types, sātvika, rajasa, tamasa. All these four are very very important for spiritual seeker.

We have come across broader meaning of the term yajnya or sacrifice in karma yoga. It refers to any action or transaction with another person or object while adhering to our duty. If we are an accountant by profession, then earning a livelihood as an accountant becomes a yajyna or sacrifice. Next, tapas or penance is the means by which we conserve energy needed to perform our duties. A scientist will give up innumerable opportunities to party because he is performing an experiment in his lab in the night. This is penance. Daanam or charity refers to the donation of excess wealth accumulated while performing our duties. The act of charity helps reduce our level of lobha or greed.

The intake of food or aahaara is given its own category. It different than sacrifice, penance or austerity for a couple of reasons. Any action performed towards feeding the body gives its phala, its result, immediately. But any other type of action gives its result much later. Furthermore, the result of feeding our body is restricted to the body, not to anything or anyone else. That is why people who are very diligent in their duties can become lax in their dietary habits. Food is analyzed in great detail in the next three shlokas.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में जो लोग शास्त्र को अध्ययन नही करते एवम उन्हें शास्त्र ज्ञान न होने से उन की श्रद्धा को स्वभावजा अर्थात अन्तःकरण में अनुभव, संगत एवम कामनाओं से जनित सात्विक, राजसी एवम तामसी हम ने पढ़ा। इसी प्रकार यह लोग किस प्रकार अपने आराध्य का चयन करते है, उस से भी इन के प्राकृतिक गुणों को जाना।

आहारः अर्थात् व्यक्ति जो भोजन करता है, वह भी तीन प्रकार का होता है। त्रिविधा अर्थात् सात्विक, राजसिक और तामसिक श्रेणियाँ हैं; हम जो भोजन करते हैं, उसमें। और यज्ञः अर्थात् पूजा या कर्म, व्यक्ति जो पूजा करता है। यद्यपि कृष्ण ने पहले भी पूजा के बारे में बात की है, लेकिन पहले श्रद्धा के दृष्टिकोण से ही बात की गई है। यहाँ कृष्ण सीधे पूजा के बारे में बात करना चाहते हैं, इसलिए यज्ञः अर्थात् पूजा भी त्रिविधा है, तीन प्रकार की, सात्विक, राजसिक और तामसिक। फिर तपः अर्थात् तपस्या; तपस्या भी तीन प्रकार की होती है; फिर अंत में दान बहुत अच्छा है; दान में भी तीन प्रकार होते हैं, सात्विक, राजस, तामस।  आध्यात्मिक साधक के लिए ये चारों बहुत महत्वपूर्ण हैं।

अब आगे परमात्मा कहते है मनुष्य जिस प्रकार का आहार ग्रहण करता है, उस के अनुरूप की उस के अन्तःकरण में प्रभाव पड़ता है। जैसे कहा भी जाता है यथा अन्नतथा मन। अन्न के शुद्ध एवम सात्विक होने से ही अन्तःकरण में भी भाव, विचार एवम स्वभाव और उस से आचरण भी बनता है। अतः भोजन भी सात्विक- राजसी एवम तामसी होता है।

गीता में आहार को यद्यपि अर्जुन द्वारा नहीं पूछा गया था, फिर भी इस का वर्णन करना अनिवार्य था। मनुष्य का शरीर प्रकृति के नियम के अनुसार जन्म से वृद्धि और क्षय को प्राप्त होता है। इस को निरंतर कार्य करने के लिए जल, वायु, भूमि अर्थात प्रकृति से प्राप्त खनिज, विटामिन और अन्य  तत्व की आवश्यकता होती है, जिस से खून, मांस, मज्जा, हड्डियां आदि बनती और बनी हुई रहती है, एवम कार्य करने के लिए ऊर्जा अर्थात शक्ति मिलती है। इस शक्ति का उपयोग ही मन इंद्रियों द्वारा बुद्धि के निर्देश पर करता है। यह शक्ति या ऊर्जा ग्रहण किए हुए भोजन के प्रकार से अलग अलग प्रकार की होती है। इसलिए जो भोजन हम करेंगे, जिस वातावरण में हम रहेंगे या जिस जल का हम उपयोग करेंगे, हमारी मन की स्थिति भी वैसी होगी। इस लिए श्रद्धा के सात्विक, राजसी और तामसी गुणों पर भोजन के भी तीन गुणों का प्रभाव पड़ता है। यही मन जब जिस भी स्थिति में कार्य करता है उसी का प्रभाव हमारे यज्ञ, तप और दान पर भी पड़ता है। इसलिए आहार से मनुष्य का जीवन चक्र भी निर्धारित होता है।

रसयुक्त और स्निग्ध आदि भोजनों में, अपनी रुचि की अधिकता रूप लक्षण से अपना सात्त्विकत्व, राजसत्व और तामसत्व जान कर, राजस और तामस चिह्नों वाले आहार का त्याग करते हुए, सात्त्विक चिह्न युक्त आहार का ग्रहण करना चाहिए। यहाँ रस्यस्निग्ध आदि  तीन वर्गों में विभक्त हुए आहार में, क्रम से सात्त्विक, राजस और तामस पुरुषों की ( पृथक्पृथक् ) रुचि के बारे में बताया गया है।

जैसे आहार तीन तरह का प्रिय होता है,इसी तरह शास्त्रीय यज्ञ, तप एवम दान आदि कर्म भी तीन तरह के होते हैं। 

तात्पर्य यह कि सात्त्विक मनुष्यों की रुचि सात्त्विक खानपान, रहनसहन, कार्य, समाज, व्यक्ति आदि में होती है और उन्हीं का सङ्ग करना उन को अच्छा लगता है। राजस मनुष्यों की रुचि राजस खानपान, रहनसहन, कार्य, समाज, व्यक्ति आदि में होती है और उन्हीं का सङ्ग उन को अच्छा लगता है। तामस मनुष्यों की रुचि तामस खानपान, रहनसहन आदि में तथा शास्त्रनिषिद्ध आचरण करनेवाले नीच मनुष्यों के साथ उठने बैठने, खाने पीने, बातचीत करने, साथ रहने, मित्रता करने आदि में होती है और उन्हीं का सङग उन को अच्छा लगता है तथा वैसे ही आचरणों में उनकी प्रवृत्ति होती है।

मनुष्य का स्वभाव उसके कार्यकलापों में व्यक्त होता है। उस का प्रिय आहार, मित्रगण, मन की भावनाएं, जीवन विषयक दृष्टिकोण आदि उसके स्वभाव की श्रेणी को इंगित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी गुण विशेष के आधिक्य से प्रभावित रहता है।मनुष्य का आन्तरिक स्वभाव तथा बाह्याचरण पर किस गुण की अधिकता से किस प्रकार का प्रभाव पड़ता है इसका विश्लेषण आगे के श्लोकों में किया गया है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इन श्लोकों का प्रयोजन अन्य लोगों का वर्गीकरण करने के लिए नहीं हैं। हिन्दू धर्म आत्मविद्या का उपदेश देता है। अत साधक का प्रयत्न अपने आत्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए होना चाहिए। आत्मा के सौन्दर्य को व्यक्त करने एवं आत्मिक बल को प्राप्त करने के लिए समस्त साधकों को चित्त शुद्धि के हेतु प्रयत्न करना होगा। चित्तशुद्धि का अर्थ है, रजोगुण के विक्षेप तथा तमोगुण के प्रमाद और मोह का त्यागकर सत्त्वगुण की रचनात्मक सजगता और आध्यात्मिक आभा में मन की दृढ़ स्थिति।

इंद्रिय, मन और बुद्धि एवम चैतन्य का योग अर्थात एक सूत्र में पिरोना ही संयम है। यह संयम हम योगाभ्यास, ध्यान, धारणा और समाधि से प्राप्त करते है। पतंजलि योग सूक्तम में ध्यान लगाने के स्वस्थ शरीर पर जोर देते हुए प्रथम सोपान में योग की बात कही है, पंच महाभूत का शरीर ही साधन है जिस से यह कार्य किया जा सकता है। इसलिए स्वस्थ शरीर के लिए आहार भी वैसा होना चाहिए। इसी आहार को प्रकृति के तीन गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है जो बनाने वाले की मन स्थिति, उस के साधन और स्थान, समय, मात्रा के अतिरिक्त उन पदार्थ को भी वर्गीकरण में सम्मिलित करता है। आहार मुंह से लिया ही जाता है किंतु मन और बुद्धि का आहार नाक, कान और नेत्रों से श्रवण, अध्ययन, मनन और ध्यान और योग से भी लिया जाता है।

सर्व प्रथम आहार के साथ जुड़े प्रकृति के सात्विक- राजसी- तामसी गुणों के बारे में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 17.07।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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