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Title % Title - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.05 II

।। अध्याय      17.05 II

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता 17.5

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः

दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः

“aśāstra-vihitaḿ ghoraḿ,

tapyante ye tapo janāḥ..।

dambhāhańkāra-saḿyuktāḥ,

kāma- rāga- balānvitāḥ”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य शास्त्रों के विधान के विरुद्ध अपनी कल्पना द्वारा व्रत धारण करके कठोर तपस्या करतें हैं, ऎसे घमण्डी मनुष्य कामनाओं, आसक्ति और बल के अहंकार से प्रेरित होते हैं। (५)

Meaning:

Those people who perform horrible austerities that are shunned by laws of scripture, entrenched in ostentation and pride, possessed with the force of desire and attachment.

Explanation:

In these two verses Lord Krishna talks about rajasic and tamasic forms of worship based on the manner and purpose. Krishna does not differentiate them; you have to classify properly. Rajasic and tamasic worship involves violation of all scriptural injunctions, all ignorance and illiteracy about religion and spirituality and people are also uneducated, if somebody does extraordinary things, they consider it very great. And all these people do it for what purpose? Because of their own fame- seeking, for pomp and show; to tell people that I am a great ascetic. So, because of conceit and ego, pride and vanity, all this happens in ignorance. Their desire is not at all liberation. Their desire is worldly name or fame or wealth.

Let us imagine that you are attending a class on basic electronic circuits. It is your first day in the electronics lab. If you have a good teacher, chances are that they will not start day one of the class with the topic of electronics itself. They will probably talk about the dos and don’ts of handling electronics equipment. This is because they have your safety and the safety of other students in mind. Shri Krishna, teacher extraordinaire, uses this shloka and next to give us a warning before delving into the topic of analysing the texture of our faith.

 This warning is very simple. Any time we see people abuse and torture themselves or others in the name of devotion, physically or mentally, we need to stay away from such people. Or, in the rare chance that we have been misguided by someone to do such things, we should immediately stop. Such torture could be something as basic as denying oneself food and water to the detriment of one’s health or could be as terrible as poking and prodding oneself with pins and needles. None of this is sanctioned by any scripture.

In the name of spirituality, people perform senseless austerities. Some lie on beds of thorns or drive spikes through their bodies as a part of macabre rituals for dominion over material existence. Others keep one hand raised for years, as a procedure they believe will help them gain mystic abilities. Some gaze constantly at the sun, unmindful of the harm it does to their eyes. Others undertake long fasts, withering their body away for imagined material gains.

So, remember, religion does not have to make a person spiritual. There are materialistic religious people, there are demonic religious people, there are Vedantic religious people, so here these people are full of kama-raga-bala; Ravana had the power of cruelty, Hiranyakashipu also had the power of penance and Shishupal was also among them. They were all worshippers of God. They were all worshippers of the rajasic and tamasic type.

।। हिंदी समीक्षा ।।

इन दो श्लोकों में भगवान कृष्ण ढंग और उद्देश्य के आधार पर पूजा के राजसिक और तामसिक रूपों की बात करते हैं। कृष्ण उन्हें अलग नहीं करते हैं, आपको उचित रूप से वर्गीकरण करना होगा। राजसिक और तामसिक पूजा में सभी शास्त्रीय आदेशों का उल्लंघन शामिल है, धर्म और अध्यात्म के बारे में सारा अज्ञान और अशिक्षा और लोग भी अशिक्षित हैं, अगर कोई  असाधारण काम करता है, तो वे इसे बहुत महान मानते हैं। और ये सभी किस उद्देश्य से करते हैं? अपनी प्रसिद्धि की तलाश के कारण, आडंबर और दिखावे के लिए; लोगों को यह बताने के लिए कि मैं एक महान तपस्वी हूं। इसलिए दंभ और अहंकार, गर्व और घमंड के कारण यह सब अज्ञान में होता है। उनकी इच्छा मोक्ष की बिल्कुल नहीं है। उनकी इच्छा सांसारिक नाम या प्रसिद्धि या धन है।

आध्यात्मिकता के नाम पर लोग निरर्थक तपस्या करते हैं। कुछ लोग भौतिक अस्तित्व पर प्रभुत्व के लिए काँटों के बिस्तर पर लेटते हैं या अपने शरीर में कीलें ठोंकते हैं। अन्य लोग वर्षों तक एक हाथ ऊपर उठाए रखते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें रहस्यमयी क्षमताएँ प्राप्त करने में मदद मिलेगी। कुछ लोग लगातार सूर्य को देखते रहते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि इससे उनकी आँखों को कितना नुकसान पहुँचता है। अन्य लोग काल्पनिक भौतिक लाभ के लिए लंबे उपवास करते हैं, अपने शरीर को सुखा देते हैं।

विद्या ददाति विनयम। किन्तु जब शास्त्रों का अध्ययन नहीं हो एवम किसी ज्ञानी गुरु की कृपा न हो तो मनुष्य समय के साथ व्यक्तिगत अनुभव, संगत, एवम परिस्थितियो में अपने अंदर सर्वश्रेष्ठ होने का दम्भ भरने लगता है। यही दम्भ एवम अहंकार से वह पूजा की विधि एवम तप के विधान का निर्माण भी अपनी कामना, आकांक्षा और स्वार्थ के अनुसार करने लगता है जिस में सिवाय शारीरिक कष्ट एवम हठ द्वारा शरीर को अधिक से अधिक कष्ट देने के अतिरिक्त कुछ नही होता। यह प्रक्रिया भी कुछ न कुछ पाने के लिये ही होती है। इसलिये काम, क्रोध एवम मोह से वह कठिनतम तप कुछ सिद्धियां या वरदान प्राप्त करने के लिये करता है जिस उद्देश्य जीव में अपने अहम को संतुष्ट करने और सांसारिक सुखों का भोग करना और जगत में सभी को पीड़ा देना।

वस्तुत: जो अपनी सुविधा के अनुसार समय, स्थान, विधि या ज्ञानी पुरुष के संरक्षण को छोड़ कर पूजा, पाठ आदि किसी भी कार्य की प्राप्ति के करता है उस में उस का अहंकार होता है। इस में यज्ञ, पूजा, मंत्र पाठ, भजन, कीर्तन, तप आदि सभी धार्मिक प्रक्रिया है। क्योंकि यह सब शास्त्रोचित नही होती, इसलिए इन का फल भी राजसी या तामसी अर्थात सांसारिक भोग विलास के लिए ही होता है। आज के समय में भागवद पुराण का पाठ करते समय जो प्रेम, श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए, उस की जगह भागवद पुराण को कितना भव्य, कितने स्वांग और कितने भोग और चढ़ावे से देखा जाता है। उस को सुनने वाला भी सामाजिक दायित्व के आधार पर सुनता है। व्रत – उपवास रखने वाला या तो कुछ नही खाता या अन्य उपलब्ध में अधिक खा लेता है। सुनाने वाला भी अपना दायित्व व्यवसायिक की भांति निभाता है। इस सब प्रक्रिया को तामसी नही कह सकते क्योंकि इस में किसी को अहित पहुंचाने की नही होती, किंतु शास्त्र विधि से परे सुविधा विधि की होने से राजसी होती है। कथा समाप्ति पर कथा सफलता पूर्वक करवाने का गर्व हो जाता है।

शास्त्र के अनुसार तप न करते हुए हठ योग से अधिक से अधिक कष्ट दायक तपस्या या व्रत किसी वरदान या सुख की आकांक्षा से करना भी इसी श्रेणी में है। पुराणों एवम ग्रंथो में इस आसुरी प्रवृति के अनेक राक्षसों का वर्णन है जिन्होंने अत्यंत कठिन शारीरिक तप कर के वरदान लिये और अपने सुखों के संसार मे उत्पाद मचाया।

इन मनुष्यो में दम्भ एवम अहंकार इतना अधिक होता है कि यदि कोई इन को समझाए या कुछ ज्ञान दे, तो उस की बात को नकार देते है एवम अपने आचरण, तरीके एवम विचारधारा को ही सही मानते है। बिना ज्ञान के अज्ञान का पता नही चलता, इसलिये अज्ञानी पुरुष ज्ञान के अभाव में अज्ञान को ही अपना सर्वश्रेष्ठ ज्ञान मान कर बुद्धि और विचार के सब मार्ग बंद कर के मन एवम कामना के अनुसार चलते है। क्योंकि यह लोग अपने को श्रेष्ठ समझते है तो पंडितो से अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने के लिए यदि शास्त्र के अनुसार योग, समय या स्थान या व्यक्ति अनुकूल न भी हो तो उस का मार्ग  धन, पद, और अज्ञान से माध्यम से इस प्रकार स्थित करते है, मानो  उन से अधिक ज्ञानी और शास्त्रोचित कार्य करने वाला कोई और नहीं है।

इसलिए जो मनुष्य, शास्त्र में जिस का विधान नहीं है ऐसा, अशास्त्रविहित और घोर अर्थात् अन्य प्राणियों को और अपने शरीर को भी पीड़ा पहुँचानेवाला, तप, दम्भ और अहंकार, इन दोनों से युक्त होकर तथा कामना और आसक्तिजनित बल से युक्त होकर, अथवा कामना, आसक्ति और बल से युक्त होकर तपते हैं। अधिकांश मनुष्य तो राजसी और तामसी निष्ठावाले ही होते हैं।उनके भीतर यह बात गहरी बैठी हुई रहती है कि आज संसार में जितने भजन, ध्यान, स्वाध्याय आदि करते हैं आदि है, उस का शास्त्रों में जो वर्णन है वह कोई प्रामाणिक विधिवत नही है, उसे वे जिस स्वरूप में चाहे कर सकते है। वे सब दम्भ करते हैं, दम्भ के बिना दूसरा कुछ है ही नहीं। अतः वे खुद भी दम्भ करते हैं। उनके भीतर अपनी बुद्धिमानी का, चतुराई का, जानकारी का अभिमान रहता है कि हम बड़े जानकार आदमी हैं हम लोगों को समझा सकते हैं, उन को रास्ते पर ला सकते हैं हम शास्त्रों की बातें क्यों सुनें हम कोई कम जानते हैं क्या हमारी बातें सुनो तो तुम्हारे को पता चले आदिआदि।

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि अज्ञान या अल्प ज्ञान का अभिमान या गर्व अधिक स्वभावत: होता है कि उस से अधिक कोई ज्ञानी नही। वह किसी की नही सुनता और मनमानी करने लगता है। उस में किसी के प्रति श्रद्धा या विश्वास भी न होने से, उस का यह अज्ञान ही उसे राजसी या तामसी गुण से मुक्त नहीं होने देता।

उन्हें विद्या के ज्ञान के अभाव में मुक्ति या मोक्ष का अर्थ या लक्ष्य नही ज्ञात होता। उन के कार्य भी निष्काम एवम लोकसंग्रह के नही होते। काम, दम्भ, अहंकार एवम सांसारिक वासनाओं से भरे रहने से उन के कार्य आसुरी सम्पदा के ही होते है।

इसलिए, याद रखें, धर्म को किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक बनाने की ज़रूरत नहीं है। भौतिकवादी धार्मिक लोग भी हैं, राक्षसी धार्मिक लोग भी हैं, वेदांतिक धार्मिक लोग भी हैं, इसलिए यहाँ ये लोग काम- राग- बल से भरे हुए हैं; रावण के पास क्रूर शक्ति थी, हिरण्यकशिपु के पास भी तप की शक्ति थी और शिशुपाल भी इन में था। वे सभी भगवान के उपासक थे। यह सब राजसिक और तामसिक किस्म के उपासक थे।

परमात्मा इन सब के कार्यों को अगले श्लोक में किसी प्रकार का होता है, और अधिक स्पष्ट करते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.05।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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