।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 17.04 II
।। अध्याय 17.04 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 17.4॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥
“yajante sāttvikā devān
yakṣa-rakṣāḿsi rājasāḥ
pretān bhūta-gaṇāḿś cānye
yajante tāmasā janāḥ”
भावार्थ:
सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य अन्य देवी-देवताओं को पूजते हैं, राजसी गुणों से युक्त मनुष्य यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं और अन्य तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं। (४)
Meaning:
Saatvic individuals worship deities, raajasic individuals worship the yakshas and the raakshasas, others, taamasic individuals, the pretas and band of bhootas.
Explanation:
Krishna says, sr̥addhā or faith is an invisible thing; because it is a mental state; it is not physically perceptible. And since Sr̥addhā cannot be perceived; it has to inferred through some other thing; whatever is not direct evidence, we have to know through estimation.
Just for example, If a person falls sick, doctor cannot know the sickness by seeing the body; because it is not physically visible and therefore he infers by taking the blood sample, etc. which is direct evidence, he takes the sample and he has got some parameters and if such a such things are there, it must be typhoid, jaundice, kidney problem, pressure, etc. Therefore, shr̥addhā will have to be inferred from the type of activity a person takes to. Any activity, we can take, where does he go on holidays; what types of books he reads; what type of friends he has; what type of foods he likes; that also he says; what type of movies, he goes to, what type of serials; that is important, everything can be used as a indication to derive the answer. But Krishna here takes the type of pūja that he takes to; even from pūja we can find out what type of shr̥addhā he has.
Shri Krishna says that people who have faith can be placed in three categories. Those that worship deities such as Lord Ganesha, Lord Shiva and so on are saatvic. Those that worship materialistic spirits or yakshas such as Kubera the lord of wealth is raajasic. Those that worship ghosts and demons are taamasic. Hearing this, we may say that we only worship deities. We never worship anything else. Therefore, we may conclude that we are highly saatvic individuals.
But as we have seen in karma yoga, the attitude with which we perform an action is equally important as the action itself. Imagine that three people visit the same temple at the same time and pray to the same deity. One person may pray because he wants his daughter to get married. One may pray to knock off his business competitor. Another may pray so that he attains liberation in this life. Outwardly, they may seem to be doing the same action, but there is a world of difference in their attitude. This difference in attitude is symbolically conveyed in the shloka using terms such as ghosts and demons.
So, analyzing our actions is not as easy as observing what we do. We also need to note our attitude behind our actions. As we saw earlier, our nature or svabhaava determines our attitude and our actions. To uncover the texture of our faith, we first need to uncover our attitudes and motivations, which requires a high degree of awareness. To get better and doing so, Shri Krishna covers a gamut of actions in this chapter so that we can practice observing our attitude as well as our actions, observe what we do and why we do it.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा या विश्वास एक अदृश्य चीज़ है; क्योंकि यह एक मानसिक अवस्था है; यह शारीरिक रूप से अनुभव करने योग्य नहीं है। और चूँकि श्रद्धा को अनुभव नहीं किया जा सकता; इसे किसी अन्य चीज़ के माध्यम से अनुमान लगाया जाना चाहिए; जो कुछ भी प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, उसे हमें अनुमान के माध्यम से जानना होगा।
उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है, तो चिकित्सक शरीर को देखकर बीमारी का पता नहीं लगा सकता; क्योंकि यह शारीरिक रूप से दिखाई नहीं देता और इसलिए वह रक्त का नमूना आदि लेकर अनुमान लगाता है, जो प्रत्यक्ष प्रमाण है, वह नमूना लेता है और उसके पास कुछ पैरामीटर हैं और यदि ऐसी कोई चीज है, तो यह टाइफाइड, पीलिया, गुर्दे की समस्या, दबाव आदि होगा। इसलिए, व्यक्ति जिस प्रकार की गतिविधि करता है, उससे श्रद्धा का अनुमान लगाना होगा। कोई भी गतिविधि, हम ले सकते हैं, वह छुट्टियों में कहां जाता है; वह किस प्रकार की पुस्तकें पढ़ता है; उसके किस प्रकार के मित्र हैं; उसे किस प्रकार का भोजन पसंद है; वह यह भी कहता है; वह किस प्रकार की फिल्में देखने जाता है, किस प्रकार के धारावाहिक; यह महत्वपूर्ण है, उत्तर पाने के लिए हर चीज को एक संकेत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन यहां कृष्ण जिस प्रकार की पूजा करते हैं, उसे लेते हैं; यहां तक कि पूजा से भी हम यह पता लगा सकते हैं कि उनका किस प्रकार का श्रद्धा है।
शास्त्र के अनुसार कर्म करने वालो के अतिरिक्त उन मनुष्यों का वर्गीकरण करना आवश्यक है जो शास्त्र के अनुसार तो नही चलते, किन्तु अपने आत्मविश्वास और ज्ञान के आधार पर अपनी एक निष्ठा बना लेते है। उन की प्रवृति का वर्णन दैवीय और आसुरी वृति में हम ने पढ़ा किंतु यहां उन के विश्वास और श्रद्धा का भी वर्गीकरण प्रकृति के त्रय गुणों के आधार पर किया गया है। देवता अर्थात अग्नि, वायु और सूर्य, राक्षस यानि कुबेर – यक्ष जिस में राहु, यम, पितर आदि ले सकते है, तृतीय भूत – प्रेत को पूजने वाले होते है। इन सभी को पूजा करने वाले यद्यपि परमात्मा को ही पूजते है किंतु इन की अपनी सीमित क्षमता के आधार पर परमात्मा ही इन को पूजने वालो की मनो कामना भी पूरी करता है। इन की इन से मनो कामना सात्विक, राजसी और तामसी होती है।
प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में किसी न किसी आदर्श या पूजा वेदी को अपनी सम्पूर्ण भक्ति अर्पित करता है। तत्पश्चात् अपने आदर्श के आह्वान के द्वारा अपनी इच्छा की पूर्ति चाहता है। शास्त्रीय भाषा में इसे पूजा कहते हैं। इस शब्द से केवल शास्त्रोक्त विधान की षोडशोपचार पूजाविधि ही नहीं समझनी चाहिए। उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी की आराधना करता है फिर उसका आराध्य नाम, धन, यश, कीर्ति, देवता आदि कुछ भी हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य का आराध्य उसकी श्रद्धा के अनुसार ही होता है, जिसका वर्णन यहाँ किया गया है।
इसलिये कार्यरूप चिह्न से अर्थात् ( उन श्रद्धाओं के कारण होनेवाली ) देवादि की पूजा से,सात्त्विक आदि निष्ठाओं का अनुमान कर लेना चाहिये। ऐसा माना जाता हैं, सात्त्विक निष्ठावाले पुरुष देवों का पूजन करते हैं, राजसी पुरुष यक्ष और राक्षसों का तथा अन्य जो तामसी मनुष हैं, वे प्रेतों और सप्तमातृकादि भूतगणों का पूजन किया करते हैं।
सात्त्विक स्वभाव के लोग अपने श्रेष्ठ और दिव्य संस्कारों के कारण सहज ही देवताओं की अर्थात् दिव्य और उच्च आदर्शों की पूजा करते हैं। रजोगुणप्रधान लोग अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी और क्रियाशील स्वभाव के होते है। इसलिए, वे यक्ष, राक्षसों की ही पूजा करते हैं। तात्पर्य यह है कि आराध्य का चयन भक्त के हृदय की मौन मांग के ऊपर निर्भर करता है। कोई भी व्यक्ति वस्त्रों का क्रय करने किसी पुस्तकालय में नहीं जायेगा। इसी प्रकार, रजोगुणी लोगों को कर्मशील आदर्श ही रुचिकर प्रतीत होते हैं। तामसिक लोग अपनी निम्नस्तरीय विषय वासनाओं की पूर्ति के लिए भूतों और प्रेतात्माओं की आराधना करते हैं। जगत् में भी यह देखा जाता है कि असत् शिक्षा और अनैतिकता से युक्त लोग अपनी दुष्ट और अपकारक महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए प्राय नीच, प्रतिशोधपूर्ण और दुराचारी लोगों की (भूत, प्रेत) सहायता लेते हैं। ये नीच लोग यद्यपि शरीर से जीवित, किन्तु जीवन की मधुरता और सुन्दरता के प्रति मृत होते हैं।इसी अभिप्राय को इसके पूर्व भी अनेक श्लोकों में प्रकट किया जा चुका है। प्राय लोगों में भूतप्रेतों के विषय में जानने की अत्यधिक उत्सुकता रहती है। क्या प्रेतात्माओं का वास्तव में अस्तित्व होता है यह सबकी जिज्ञासा होती है, परन्तु गीता के प्रस्तुत प्रकरण का अध्ययन करने के लिए इस विषय में विचार करना निरर्थक है। इतना ही जानना पर्याप्त है कि भूत व प्रेत के द्वारा कुछ विशेष प्रकार की शक्तियों की ओर इंगित किया गया है, जो इस भौतिक जगत् में भी उपलब्ध हो सकती हैं। शुद्धान्तकरण के सात्त्विक, महत्त्वाकांक्षी राजसी और प्रमादशील तामसी जन क्रमश सहृदय मित्रों से सहायता, धनवान् और समर्थ लोगों से सुरक्षा और अपराधियों से शक्ति प्राप्त करने के लिए उपयुक्त देव, यक्ष और प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं। मनुष्य के कार्यक्षेत्र से ही कुछ सीमा तक उसकी श्रद्धा को समझा जा सकता है। समाज के सत्त्वनिष्ठ पुरुष विरले ही होते हैं। सामान्यत राजसी और तामसी जनों की संख्या अधिक होती है और उनके पूजादि के प्रयत्न भी दोषपूर्ण होते हैं।
यद्यपि शास्त्र पर श्रद्धा या ज्ञान न रखने वाले मनुष्य का वर्णन प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार उन के सत्वगुण पर किया गया है तो यह लोग कामपरायण एवम दाम्भिक लोग है जो निरे सात्विक या तामसी भी नही कहे जा सकते। श्रद्धा भाव से की गई पूजा व्यक्ति विशेष के स्वभाव या अन्तःकरण की वयक्ति है। अतः उस को देवीसम्पदा या आसुरी सम्पदा के दृष्टिकोण से नही देख सकते। इस श्रद्धा में रजोगुण अर्थात कर्म करने की भी प्रवृति होती है। यह श्रद्धा अज्ञान एवम शास्त्रों के अध्ययन अथवा श्रेष्ठ गुरु या ज्ञानी के मार्गदर्शन के अभाव से पूर्वज के संस्कार, इस जन्म में संगत, अनुभव एवम काम और मोह से उत्पन्न श्रद्धा ही मान सकते है।
राजा द्रुपद ने बदले की भावना से अग्नि देवता की पूजा की, जिस में उसे द्रोण को मारने के लिए पुत्र की प्राप्ति हुई और साथ मे द्रोपदी भी प्राप्त हुई। महाभारत में द्रोपदी की क्या भूमिका थी, यह सभी जानते है, इसलिये जब परमात्मा को छोड़ कर देवताओं की पूजा भी गलत कामना के साथ की जाती है तो वह भी कुछ देगा तो कुछ हर भी लेगा।
व्यवहारिक जीवन मे हमारी श्रद्धा किस प्रवृति के लोगो से साथ है, हमारे आदर्श कौन लोग है, किन राज नेताओ को और क्यो हम समर्थन करते है, कितने सामाजिक संस्थाओं से हम जुड़ कर समाज का काम कर रहे या समाज मे सिर्फ नाम और अपनी कामनाओं की पूर्ति कर रहे है, यह सब मनुष्य श्रद्धा एवम उस की प्रवृति पर निर्भर है। क्योंकि जिन सामाजिक मूल्यों को मनुष्य अपने आदर्श मानता है वो उसी के अनुसार संसार को पूजता है।
जैसा इष्ट वैसी गति – ईश्वर का कथन के जो जिस भाव से मुझे और जिस रूप में मुझे पूजता है, मैं उसे उसी के अनुरूप कामना की पूर्ति हेतु गति एवम फल प्रदान करता हूँ। परमात्मा का यह भी कहना है कि जो मनुष्य मुझे जिस सात्विक, राजसी या तामसी स्वरूप में श्रद्धा के साथ पूजना चाहता है, मैं उस की श्रद्धा को भी उसी स्वरूप में स्थिर कर देता हूं फिर वह अपनी श्रद्धा के अनुसार उस देवता के सामर्थ्य के अनुसार फल भी प्राप्त करता है। अर्थात जैसी करनी – वैसी भरनी। तुलसीदास जी ने कहा है ” इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहॅ़ं तहॅ़ं सुर बैठे करि थाना।। आवत देखिहिं विषय बयारी। ते सखि जेहिं कपाट उधारी ।।
आज के युग में इसी प्रकार के लोग अधिक है, उन श्रद्धा और विश्वास के कारण कोई भी कहानी और कथा या चित्र को बना कर प्रभावित करता है और यह उस चित्र, कथा या कहानी पर विश्वास बिना विचारे करते हुए, अपनी पूजा – अर्चना करते है। सोशल मीडिया पर भगवान के फोटो का, कहानियों, पुराणिक कथाओं की भरमार है, जिस की सत्यता कोई नही परखता और अपनी श्रद्धा से उसे फॉरवर्ड करता रहता है। इन की इसी श्रद्धा को सात्विक, राजसी और तामसी बता कर उस से होने वाले प्रभाव को बताया गया है।
किंतु आज सात्विक होने से अधिक सात्विक दिखने का प्रयत्न दिखाने के लिए, जो मनुष्य अधिक सोशल मीडिया या समाज में कार्य करता है या अब तक हम ने उन मनुष्यों की बात बतायी, जो शास्त्रविधि को न जानने के कारण उस का (अज्ञानतापूर्वक) त्याग करते हैं परन्तु अपने इष्ट तथा उसके यजनपूजन में श्रद्धा रखते हैं। अब, विरोधपूर्वक शास्त्रविधि का त्याग करने वाले श्रद्धा रहित मनुष्यों की क्रियाओं का वर्णन आगे के दो श्लोकों में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 17.04।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)