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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  17.B II Preamble II

।। अध्याय      17.B II प्रस्तावना II

Preamble: Chapter Seventeen – The division of Faith alias Shrdhha tray vibhag yog

Earlier in chapter fourteen, Shree Krishna had explained the three gunas or modes of material nature and how they govern human behaviour. In this chapter, He goes deeper into the subject. In the beginning, He discusses faith as an inseparable aspect of human nature and says that everyone holds faith. However, depending upon the nature of their mind, their faith adapts a corresponding color: sāttvic, rājasic, or tamasic. The quality of life they lead is determined by the nature of their faith, including the food they prefer to eat. He also classifies food into three categories and discusses the impact of each category upon humans.

Shree Krishna then moves to the subject of yajña (sacrifice) and explains that based on the modes of nature, sacrifice can manifest into varied forms. He also discusses tapah (austerity) and describes the austerities of the speech, body, and mind. Again, based on the modes in which these austerities are performed—goodness, passion, or ignorance, they take different forms. Similarly, dān (charity) and its three-fold division based on the modes of nature are explained.

Towards the end of this chapter, Shree Krishna explains the relevance and importance of the words “Om Tat Sat” and how these words can usher the concept of transcendence. The syllable “Om” is the symbolic representation of the impersonal form of God; “tat” is uttered for dedicating ceremonies and actions to the Supreme Lord and the syllable “sat” signifies eternal virtue and goodness. Together these words symbolize different aspects of the Absolute Truth. Shree Krishna concludes this chapter by emphasizing that the acts of sacrifice, austerity, and charity performed without faith and regard to the guidelines given in the scriptures are futile.

(Courtesy for preamble: The songs of GOD by shree Mukundananda swami)

।। प्रस्तावना : सप्तदशोSध्याय : श्रद्धा त्रय विभाग योग ।।

पूर्व अध्याय में प्रकृति से युक्त देवीसम्पदा एवम आसुरी सम्पदा को पढ़ने के बाद भी यह शंका तो अवश्य रह जाती है कि प्रकृति के त्रियामी गुण सत-रज-तम का समय समय पर मनुष्य के कार्यो पर प्रभाव पड़ता रहता है। क्योंकि जब सभी प्राणी किसी कार्य को करते है तो उस के अन्तःकरण में कोई न कोई गुण अवश्य कार्य करता रहता है। अतः गुण प्रधान अन्तःकरण के अनुरूप ही उस की श्रद्धा भी वैसी ही गुण वाली होनी चाहिए। श्रद्धा अन्तःकरण का धर्म है इसलिये जैसी श्रद्धा वैसी ही व्यक्ति का स्वरूप एवम व्यवहार होना चाहिये।

यह अध्याय आज के युग के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि अर्जुन की शंका है कि शास्त्र निहित कर्म करने चाहिए तो उन अनेक लोगो का भविष्य क्या होगा जो शास्त्र विधि तो नही जानते किंतु श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान की आराधना करते है। यह लोग भजन, कीर्तन, यज्ञ , मंत्र पाठ और अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार भगवान की पूजा और आराधना करते है। आज के युग में गिने – चुने लोगो को छोड़ दे तो लोग अपने अपने तरीके और विश्वास से परमात्मा को मानते भी है और उस की पूजा भी करते है। अतः कोई यदि यज्ञ आदि छोड़ कर परिवार में रहता हुआ, मात्र भगवान का नाम नित्य स्मरण करता है, तो उस की क्या गति होगी? हम में अधिकांश लोग इसी श्रेणी में है, जिन्हे पूजन की पूरी विधि का ज्ञान नहीं है, किंतु फिर भी हम अपनी श्रद्धा से परमात्मा को पूजते है। अतः यह श्रद्धा को समझना और जानना जरूरी है।

अतः प्रस्तुत अध्याय प्रकृति के त्रियामी गुण का श्रद्धा के साथ मनुष्य के कर्म का विवेचन है इसलिये इसे श्रद्धात्रयविभागयोग कहा गया है।  भगवान द्वारा इस अध्याय में मनुष्य द्वारा देव, यक्ष, राक्षस और भूत प्रेतों की प्रकृति के त्रियामी गुणों के विभिन्न श्रद्धा रखते पूजन की बात की है।

देवीसम्पद एवम संसार का नाश करने को उद्यत आसुरी सम्पद को पढ़ने के बाद, प्रकृति के त्रियामी गुण में भी मनुष्य मनुष्य में भेद एक ही गुण होने के बावजूद यदि है तो उस का कारण उस की श्रद्धा है कि उस की श्रद्धा किस पर है।

व्यवहारिक दृष्टिकोण से जब शास्त्रों का पर्याप्त ज्ञान न हो, तो विश्वास के साथ हम जो कुछ भी पूजा, पाठ करते है, वह हमारी श्रद्धा एवम निष्ठा पर आधारित है। किंतु कभी कभी यह निष्ठा अनजाने में असंगत व्यक्ति के साथ जुड़ जाती है। जैसे कोई संत जो स्वयं सात्विक न हो किन्तु उस पर विश्वास रखने वाला तो सात्विक भाव से पूजता है, उस की श्रद्धा का भाव जानना जरूरी है।

अध्याय में श्रद्धा के स्वरूप और श्रद्धा के सात्विक, राजसी और तामसी रूप में श्रद्धा युक्त देव, यक्ष, राक्षस आदि के पूजन का वर्णन है। इस में दान के प्रकार और आहार का हमारे जीवन पर प्रभाव बताया गया है। इस के बाद शारीरिक, मानसिक और वाचिक तप के स्वरूप का वर्णन है। दान की व्याख्या की गई है। अध्याय के अंत में ॐ, तत् एवम सत शब्दो के प्रयोग की व्याख्या है।

सातवे अध्याय में मनुष्य – मनुष्य में भेद का कारण उस का प्रकृति जन्य स्वभाव होता है। इस प्रकृति के तीन गुणों सत – रज – तम का वर्णन हमे अध्याय 14 में मिलता है। किंतु यह शंका रह ही जाती कि श्रद्धा और विश्वास जो मनुष्य के प्रकृति के मूल स्वभाव में उस का इन तीन गुणों पर क्या प्रभाव होता है। व्यवहार में ज्ञान के अभाव में प्रत्येक मनुष्य का किसी न किसी पर श्रद्धा या विश्वास होता है, यह सात्विक, राजसी या तामसी किसी भी गुण के व्यक्ति या वस्तु के प्रति हो। लोग कानून में दोषी पाए व्यक्ति से ले कर ब्रह्मविद व्यक्ति के प्रति श्रद्धा रखते है, इसलिए संसार में गलत कार्य करने वालो के साथ भी उतने लोग खड़े रहते है जितने अन्याय के विरुद्ध लड़ने वालो के। युद्ध भूमि में सेना कौरव और पांडव दोनो ओर थी। राम और रावण के पास अपने अपने विश्वस्त लोग थे। देश में प्रत्येक राजनैतिक पार्टी, किसी भी D कंपनी या सामाजिक या असमाजिक लोगो के समूह रहते ही है। यह प्रकृतिजन्य स्वभाव का अध्ययन इस अध्याय में हम करते है।

निष्काम कर्म, श्रद्धा, भक्ति और ज्ञान में मनुष्य मनुष्य में भेद प्रकृति के तीन गुणों से ही उत्पन्न होता है, इसलिए एक ही गुरु के यहां शिक्षा प्राप्त होने के बाद भी दुर्योधन और युद्धिष्ठर के विचारों और आचरण में भेद रहा। आज के युग में विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं में हिंदू जिस तरह से बट रहा है और अपनी परिस्थितियों का सही आकलन नहीं कर पा रहा है, उस का कारण भी यही प्रकृति के गुण है। सही श्रद्धा किस प्रकार से और किस प्रकार के लोगो के प्रति रखी जाए को समझने के लिये यह अध्याय भी अत्यंत महत्वपूर्ण भी। वैसे भी 28 श्लोकों में सिमटा यह अध्याय  आखिरी दो अध्याय में से एक है। गीता अपने उपसंहार द्वारा समापन की ओर बढ़ रही है, इसलिये हम इस अध्याय द्वारा हमे अपने किये कार्यो एवम श्रद्धा से उचित ही ज्ञान मिलेगा।

।। हरि ॐ तत सत।। प्रस्तावना – अध्याय 17 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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