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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.24 II Additional II

।। अध्याय      16.24 II विशेष II

।। नीति शास्त्र, धर्म शास्त्र और कर्म निर्णय ।। गीता विशेष 16.24 ।।

कर्म – अकर्म या धर्म – अधर्म के अंतर्गत करने योग्य कार्य और नही करने योग्य कार्य का निर्णय लेने पर यदि विस्तृत रूप से लिखना शुरू करे तो एक नई महाभारत की रचना हो जाएगी। गीता का आरंभ ही पारिवारिक झगड़े और कर्तव्य धर्म के पालन के मध्य अनिर्णय की स्थिति को सुलझाने के लिए हुआ था। आम व्यक्ति के जीवन में अनेक अवसर आते है जब उसे कर्तव्य – अकर्तव्य, धर्म – अधर्म, पाप – पुण्य, दया – हिंसा, भूख – व्यवसाय और नैतिकता, देश – पद और स्वार्थ एवम परिवार और स्वार्थ आदि के बीच में अनिर्णय की स्थिति का सामना करना पड़ता है।

किसी स्थिति में राजनीति, सामाजिक और आर्थिक आदि की नीति की व्यवस्था नीति शास्त्र में होती है, एवम मोक्ष, व्यक्तित्व, लोकसंग्रह, कर्तव्य – अकर्तव्य का विवेचन धर्म शास्त्र में होता है। महापुरुष का जीवन चरित्र एवम उन के द्वारा दिए हुए ज्ञान का पालन करना, मुख्यत: उन के अनुयायी लोगो का होता है। किंतु इन सब के मध्य ऐसी अनेक विसंगतियां होती है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में उन सब में किस का पालन करना चाहिए, तय करना मुश्किल होता है।

पुराण और इतिहास में हम ने पढ़ा है कि पांडव ने मां के भूल वश अज्ञान में सभी भाइयों में किसी वस्तु को बांट लेने की बात को ले कर द्रोपति से पांच भाईयो ने विवाह किया। किंतु क्या यह धर्मोचित्त कार्य समाज में अनुकरणीय है? भरी सभा में द्रोपति का अपमान हो रहा था, किंतु क्या भीष्म  द्रोण आदि का चुप बैठना न्याय या धर्म शास्त्र के अनुकूल था? क्या प्रचलित नीति के अनुसार युद्धिष्ठर द्वारा जुआ खेलते हुए अपने भाईयो और पत्नी को दाव पर लगाना धर्मोचित था?

कार्य – अकार्य अथवा कर्तव्य – अकर्तव्य की कोई चिरस्थाई नियम या युक्ति नही होती। संकट के समय अपने या किसी प्राण रक्षा हेतु झूठ बोलना भी धर्म या शास्त्र युक्त है। दुर्भिक्ष काल या बाढ़ में जीवन रक्षा हेतु किसी भी अन्न की शुद्धता का ध्यान नहीं रखना भी युक्ति संगत है।

व्यक्ति की सब से खराब स्थिति वह होती है, जब वह किसी की मानसिक, आर्थिक, व्यवहारिक दासता स्वीकार कर चुका होता है। मनु स्मृति के अनुसार, पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ (धन) किसी का दास नही होता। इसी प्रकार अर्थ या स्वार्थ के लिए अपनाया गया सेवा धर्म कुत्ते की वृति के अनुसार निंदनीय है। यही कारण है कि महाभारत में हमे ऊपर वर्णित विसंगतियां महान व्यक्तियों के चरित्र में भी देखने को मिल जाती है।

धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म है, इस को समझ पाना अत्यंत कठिन भी है क्योंकि समय और परिस्थियो के अनुसार इस की अलग अलग व्याख्या की कई है। एक की विचार या निर्णय को किसी स्थान पर उचित बताया गया है तो वही अन्य स्थान पर गलत भी सिद्ध किया गया है। तुलाधार जी कहते है, धर्म अत्यंत सूक्ष्म और चक्कर में डालने वाला है, इस को कोई समझ भी नही पाता।

महापुरुष भी व्यक्ति होता है, उस के सभी निर्णय न्यायोचित एवम धर्मयुक्त हो आवश्यक नहीं। परशुराम का पिता के कहने पर अपनी मां की हत्या कर देना। देश के बटवारे के समय महात्मा गांधी द्वारा मुस्लिमो के प्रति अधिक भातृत्व भाव दिखाते हुए, हिंदुओ की उपेक्षा करना, आज के समय न्यायपालिका द्वारा घोटाले आदि में घोषित होने के बावजूद भी नेताओ के प्रति निष्ठा बनाए रखना आदि अनेक ऐसे उदाहरण है, जो यह सिद्ध करता कि संपूर्ण कोई भी व्यक्ति नही होता, अतः व्यक्ति को आदर्श मान कर इस का पूजन करना कभी श्रेष्ठ नही होता। श्रेष्ठ होता है उस के श्रेष्ठ और नीतिगत निर्णय, उस के चरित्र के अच्छे गुण, किंतु उस को कौन अपने जीवन में उतार कर चलना चाहता है ?

महाभारत के युद्ध में जब कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण जब रथ का पहिया निकाल रहे थे, तो मारने को कहा था। कर्ण ने युद्ध नीति और धर्म की दुहाई दी थी कि वह निहत्था है, इसलिए उस पर वार नही होना चाहिए, तब कृष्ण ने कहा था, धर्म की विवेचना अपनी अपनी सुविधा के अनुसार नही हो सकती। द्रोपती के वस्त्र हरण या अभिमन्यु की हत्या के समय यदि धर्म का पालन नहीं किया, उस के बाद या पहले धर्म को अपनी सुविधा में प्रयोग नहीं कर सकते। यह उन लोगो के स्पष्ट संदेश है, जो धर्म की व्याख्या या पालन अपनी अपनी सुविधा से करना चाहते है।

अतः यह स्पष्ट है कि जीवन में निर्णय लेने के लिए अनेक बार परिस्थितियां आती है तो निर्णय का आधार क्या और कैसे हो। इसलिए इस अध्याय का प्रारंभ दैवीय गुणों से किया गया, फिर सरल भाषा में असुर वृति की व्याख्या की गई। असुर वृति में तीन अवगुणों पर ज्यादा जोर दिया गया, जिसे काम, क्रोध और लोभ कहा गया। इसलिए जब तक चरित्र में इन तीन गुणों का अभाव नहीं होता और मन, हृदय और चेतना से जीव दैवीय गुणों से संपन्न नही होता, उसे शास्त्र अर्थात वेद, उपनिषद आदि समझ में भी नही आ सकते। वह महापुरुषों के जीवन चरित्र को भी निष्पक्ष और सत्य के आधार पर पढ भी नही सकता। उस की वृति अपने स्वार्थ के अनुसार अर्थ समझने और उसे प्रमाणित करने के आधार खोजती रहती है। जीवन के कठिन निर्णय का एक मात्र आधार शास्त्र ही है, किंतु इस के लिए मनुष्य को  काम, क्रोध और लोभ से मुक्त होना पड़ेगा। ज्ञानी अर्जुन भी था और दुर्योधन हो। शास्त्र भीष्म, द्रोण और कर्ण आदि सभी ने पढ़े थे। किंतु युद्ध का निर्णय का आधार लोभ, क्रोध, स्वार्थ, ईर्षा, गर्व आदि असुर गुण ही थे, जिन्हे प्रत्येक योद्धा शास्त्रों के उद्धरण से सही भी सिद्ध कर सकता था।

आज के युग में गीता का यह उपदेश कि जो शास्त्रोचित है, वही करना श्रेष्ठ है, कितना प्रासंगिक है, इसपर भी विचार करना चाहिए। गीता में अर्जुन को युद्ध का निर्णय लेने के लिए जो भूमिका बताई गई है, उस में एक ओर पुत्र मोह और राज्य की लालसा से ग्रसित शरीर से लाचार चाचा है, स्वार्थ, लोभी, कपटी उस का चचेरा भाई है, अहसान, कर्तव्य, निष्ठा में डूबे घर के बुजुर्ग परदादा, गुरु और सहपाठी आदि है। अनीति और नीति को बिना विचारे साथ देने वाले राजा महाराजा है और दूसरी ओर उस की सेना, उस के भाई। युद्ध का कारण क्या इतना ही रहा होगा कि अज्ञात वास से लौटने के बाद दुर्योधन ने उन का राज्य वापस करने से इंकार कर दिया। यह कुछ ऐसा है कि घर की संपत्ति पर एक व्यक्ति अधिकार जमा ले और घर के बुजुर्ग उस को समझाने की बजाए, जिस का हक जा रहा है, उस को त्याग और प्रेम का उपदेश दे। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना ही धर्म और नीतिगत है। कोई आप की अस्मिता, आदर्श, मर्यादा या आजादी पर खलल डाले तो उस का विरोध उसी की भाषा में होना चाहिए। किंतु उस का उद्देश्य काम , क्रोध या लोभ नही। भगवान राम ने भी अन्याय के विरुद्ध रावण से युद्ध उस का राज्य जीतने के लिए नही किया। अतः गीता युद्ध का शास्त्र न हो कर नीति और धर्म का शास्त्र है, जिस का पालन प्रत्येक गीता पढ़ने वाले को करना ही चाहिए। यह आज के युग में भी और आज के राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों में और भी आवश्यक है।

आज के युग में भी यही मनुष्य की समस्या है, वह अपने अध्ययन, गुणों और आचरण को नही देखता किंतु उसे समस्या का हल उस की सुविधा, कामना, लोभ और मोह के अनुसार चाहिए। जिस से हल देने वाले से ले कर हल पानेवाला दोनो ही मुक्त नहीं है। इन सब के बीच में ऐसे लोगो का भी बाजार भी सजा हुआ है, जो राग – द्वेष में लिप्त है और तत्वविद की भूमिका निभा रहे है। इसलिए जब भी अनिर्णय की स्थिति आए तो शास्त्र ही सर्वश्रेष्ठ है।

।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष  – 16.24 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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