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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.24 II

।। अध्याय      16.24 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

“tasmāc chāstraḿ pramāṇaḿ te,

kāryākārya- vyavasthitau..।

jñātvā śāstra- vidhānoktaḿ,

karma kartum ihārhasi”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! मनुष्य को क्या कर्म करना चाहिये और क्या कर्म नही करना चाहिये इसके लिये शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण होता है, इसलिये तुझे इस संसार में शास्त्र की विधि को जानकर ही कर्म करना चाहिये। (२४)

Meaning:

Therefore, the scripture is the authority to guide you towards what is to be not and what is not. Knowing this, you should perform actions according to scripture here.

Explanation:

Shri Krishna concludes the sixteenth chapter with this shloka. He says that ultimately it is the prompter of our actions, our motivation, that determine whether we are behaving as divine entities or as devilish ones. If the prompter of our actions is selfish desire, we are heading in the wrong direction. If the prompter is scripture, we are heading in the right direction. Therefore, when in doubt, we should refer to the guidelines in the scriptures on the performance of actions.

A case in point is Arjuna’s fundamental question: is it right to harm another individual? A soldier of the army defending his country and a gangster shooting at a crowd are performing the same action – killing people. But the difference is the prompter of both those actions. The soldier is prompted by duty to his country, whereas the gangster is prompted by greed. Where did the soldier’s duty come from? We could say that it came from the army’s code of conduct. We could say that it come from the constitution of his country. We could say that it came from the values cultivated by his parents. In all these cases, the soldier’s sense of duty came from a set of guidelines that were founded on something that was much larger than the narrow viewpoint of one individual, that kept the bigger picture in mind. This is what Shri Krishna refers to as scripture. Using the word “here” in the shloka, he reminds Arjuna that such intelligent living is only possible in a human birth, not in any other birth.

Sometimes, even well-intentioned people say, “I do not care for rules. I follow my heart and do my own thing.” It is all very well to follow the heart, but how can they be sure that their heart is not misleading them? As the saying goes, “The road to hell is paved with good intentions.” Thus, it is always wise to check with the scriptures whether our heart is truly guiding us in the proper direction. The Manu Smṛiti states:

bhūtaṁ bhavyaṁ bhaviṣhyaṁ cha sarvaṁ vedāt prasidhyati (12.97)[v12]

“The authenticity of any spiritual principle of the past, present, or future, must be established on the basis of the Vedas.” Hence, Shree Krishna concludes by instructing Arjun to comprehend the teachings of the scriptures and act according to them.

Now, we come to an interesting question? Which authority, which scripture should one follow? In this day and age, how can one practically lead an intelligent life that follows a selfless set of guidelines, that follows a scripture? This intriguing question is tackled in the next chapter.

।। हिंदी समीक्षा ।।

किंकर्तव्यविमुढ़ता एक ऐसा मोड़ है जो प्रत्येक जीव के जीवन मे आता है और उसे उस समय सत्य और असत्य का निर्णय लेना असंभव सा प्रतीक होता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन! कौन काम करने योग्य है और कौन काम नहीं करने योग्य है, इस का निर्णय वेद तथा वेदार्थ निर्णायक श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण करते है अर्थात इस में जो विधान किया गया है: वही परिस्थिति, मन की सात्विक अवस्था, पूर्व अनुभव के आधार पर करने योग्य है और जो निषेध किया गया है, वह नही करने योग्य है।

अर्जुन को युद्ध भूमि में मोह उत्पन्न हो गया। अर्जुन पहले अपनी धारणा से कहते थे कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा, जबकि भाग्यशाली श्रेष्ठ क्षत्रियों के लिये अपने आप प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्ग को देनेवाला है।

भगवान् कहते हैं कि जिस भूमि में कर्म का अधिकार हो और कार्य एवम कार्य की शंका उपस्थित होती है, उस स्थल पर शास्त्र विधि से कर्म करना योग्य है। तू पाप पुण्य का निर्णय अपने मनमाने ढंग से कर रहा है तुझे तो इस विषय में शास्त्र को प्रमाण रखना चाहिये। शास्त्र की आज्ञा समझकर ही तुझे कर्तव्यकर्म करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि युद्ध रूप क्रिया बाँधनेवाली नहीं है, प्रत्युत स्वार्थ और अभिमान रख कर की हुई शास्त्रीय क्रिया ही बाँधनेवाली होती है और मनमाने ढंग से (शास्त्र विपरीत) की हुई क्रिया तो पतन करने वाली होती है।

कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में तेरे लिये शास्त्र ही प्रमाण है अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने का साधन है। अतः शास्त्र विधान से कही हुई बात को समझ कर यानी आज्ञा का नाम विधान है। शास्त्र द्वारा जो ऐसी आज्ञा दी जाय कि यह कार्य कर, यह मत कर वह शास्त्रविधान है, उस से बताये, हुए स्वकर्म को जानकर तुझे इस कर्मक्षेत्र में कार्य करना उचित है।

शास्त्र में अपूर्ण इन्द्रियाँ, कपटता, त्रुटि एवम मोह के दोष नहीं होते। इसलिये शास्त्रों के नियमो पालन करना चाहिये। शास्त्रों के नियम समझने के लिये भी व्यक्ति को सत्वगुणी होना आवश्यक है। रजोगुणी या तमोगुणी हमेशा काम, क्रोध एवम लोभ से ग्रस्त रहते है, इसलिये वो अपने कार्य की सिद्धि के अनुसार शास्त्रों के नियमो का अर्थ लगाते रहते है।

हमे यह हमेशा याद रखना चाहिए कि काम, क्रोध एवम लोभ से वशीभूत जीव स्तब्ध प्रकृति में होता है अर्थात उस की बुद्धि का विकास एवम कार्य कामनाओं की पूर्ति मात्र में होता है, इसलिये किसी के द्वारा कही हुई बातों का वह अपनी कामना के अनुसार ही तय करता है।

अध्याय तीन में योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा था ” नियतं कुरु कर्म त्वम ” अर्थात जो नियत कर्म है वही करना चाहिए। यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है और वह यज्ञ आराधना की विधि -विशेष का चित्रण है, जो मन को सर्वथा निरोध कर के शाश्वत ब्रह्न में प्रवेश दिलाता है। काम, क्रोध और लोभ जो नरक के द्वार है, इन का त्याग करने से नियत कर्म का आरंभ होता है।

जो व्यक्ति काम, क्रोध एवम लोभ में आ कर नियत कर्म का उल्लंघन करता है, वह आसुरी सम्पदा में प्रवेश करता है।

स्वभाव नियत कर्म करता हुआ सर्वथा स्वार्थ रहित मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन के स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने जो आज्ञा दी है, उसके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता। पाप लगता है, स्वार्थ से, अभिमान से और दूसरों का अनिष्ट सोचने से।मनुष्य जन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीर प्राणों के मोह में न फँसकर केवल परमात्म प्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्र विहित कर्मों को करे।

मनुस्मृति में कहा गया है कि इस लोक या परलोक में जो कामना से कर्म किया जाता है उस को प्रवृत्त कर्म कहते है और जो फल की कामना से रहित ज्ञान पूर्वक कर्म किया जाता है, वह निर्वृत्त कर्म है।

जिन मनुष्यों को अपने प्राणों से मोह होता है, वे प्रवृत्ति और निवृत्ति अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य को न जानने से विशेषरूप से आसुरी सम्पत्ति में प्रवृत्त होते हैं। इसलिये  कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करने के लिये शास्त्र को सामने रखा गया है। जिन की महिमा शास्त्रोंने गायी है और जिन का बर्ताव शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार होता है, ऐसे संतमहापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रोंके अनुसार ही चलना है। कारण कि उन महापुरुषों ने शास्त्रो को आदर दिया है और शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरुष बने हैं। वास्तव में देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं, उन के आचरणों, आदर्शों, भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं।

पूर्व के तीन श्लोकों में दी गई युक्तियों का यह निष्कर्ष निकलता है कि साधक को शास्त्र प्रमाण के अनुसार अपनी जीवन पद्धति अपनानी चाहिए। कर्तव्य और अकर्तव्य का निश्चय शास्त्राध्ययन के द्वारा ही हो सकता है। सत्य की प्राप्ति के मार्ग को निश्चित करने में प्रत्येक साधक अपनी ही कल्पनाओं का आश्रय नहीं ले सकता । शास्त्रों की घोषणा उन ऋषियों ने की है, जिन्होंने इस मार्ग के द्वारा पूर्णत्व का साक्षात्कार किया था। अत जब उन ऋषियों ने हमें उस मार्ग का मानचित्र दिया है, तो हमारे लिए यही उचित है कि विनयभाव से उसका अनुसरण कर स्वयं को कृतार्थ करें।

कभी-कभी अच्छी धारणा वाले लोग भी कहते हैं कि “मैं विधि-नियमों का पालन नहीं करता, मैं अपने मन की इच्छा के अनुसार कर्म करता हूँ।” यह बहुत अच्छा है कि मन का अनुसरण किया जाए लेकिन वे यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनका मन उन्हें पथ-भ्रष्ट नहीं कर रहा है, जैसे कि कहावत है-“नर्क का मार्ग शुभ विचारों से प्रशस्त है।” इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे अशुभ कर्म जो भ्रम के कारण मन को शुभ प्रतीत होते हैं, हमारे लिए नरक का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार शास्त्रों को ध्यान में रखते हुए यह देखना सदैव उचित रहता है कि क्या हमारा अंत:करण वास्तव में उचित दिशा में हमारा पथ-प्रदर्शन कर रहा है। मनुस्मृति में भी उल्लेख किया गया है

भूतं भवयं भविष्यं च सर्वं वेदत् प्रसिध्यति

(मनुस्मृति-12.97)

भूत वर्तमान और भविष्य से संबंधित किसी सिद्धांत की प्रामाणिकता वेदों के आधार पर स्थापित होनी चाहिए।”

व्यवहार में भी न्याय करते वक्त देश के कानून का पालन करना, व्यापार करते हुए, जांच या अन्वेषण करते हुए, इन भेदभाव के जो भी देश का कानून है उस का यथोचित अर्थ समझ कर पालन करना भी शास्त्र का पालन है। डॉक्टर, वकील, CA, इंजीनियर या व्यापारी सभी के अपने अपने शास्त्र एवम नीतियां है। यही व्यवहार के शास्त्र भी है।

व्यवहार में असहाय, निशस्त्र शत्रु पर वार नही करना चाहिए, किंतु अजेय शत्रु को लोक कल्याण के भगवान श्री कृष्ण ने भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण आदि को निशस्त्र ही मारा गया। पृथ्वीराज चौहान इस तथ्य को नही समझने से अपने शत्रु पर दया दिखाते रहे, जिस का परिणाम उन्हे अपनी जान दे कर चुकाना पड़ा और देश भी मुगल गुलामी में चला गया।चाणक्य ने अपने लक्ष्य को साधा, और देश को विदेशी और देशी आक्रांताओं से मुक्त किया। अतः विवेक, सात्विक भाव अर्थात काम, क्रोध और लोभ को त्याग कर, लक्ष्य में लोकसंग्रह हेतु शास्त्र के अनुसार ही कार्य किया जाना चाहिए। सिनेमा में जब विलेन असहाय होता है तो हीरो को नैतिकता का वास्ता दे कर उसकाता है, किंतु उस को मौका मिलने पर वह हमला अनैतिक तरीके से करने से नही चुकता।

लक्ष्य, मार्ग, विघ्न और विघ्न के निराकरण के उपायों का जानना किसी भी यात्रा के लिए अत्यावश्यक और लाभदायक होता है। तुम्हें कर्म करना चाहिए  भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि काम, क्रोध और लोभ का त्याग कर मनुष्य को शास्त्रानुसार जीवन यापन करना चाहिए। यही निष्काम कर्मयोग का जीवन है। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को शास्त्रों की शिक्षाओं को समझने और तदानुसार कर्म करने का उपदेश देते हुए अपने कथनों का समापन करते हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.24।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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