।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.20 II
।। अध्याय 16.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.20॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
“āsurīḿ yonim āpannā,
mūḍhā janmani janmani..।
mām aprāpyaiva kaunteya,
tato yānty adhamāḿ gatim”..।।
भावार्थ:
हे कुन्तीपुत्र! आसुरी योनि को प्राप्त हुए मूर्ख मनुष्य अनेकों जन्मों तक आसुरी योनि को ही प्राप्त होते रहते हैं, ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर अत्यन्त अधम गति (निम्न योनि) को ही प्राप्त होते हैं। (२०)
Meaning:
Entering into devilish wombs, the deluded individuals, from birth after birth, do not attain me, O Kaunteya. They attain destinations even lower than that (state).
Explanation:
Here, Shri Krishna expresses his regret about a lost opportunity. Anyone who has attained a human birth has a chance to achieve self-realization and liberation. But those individuals who engage in destruction of others instead of improving their state give up this golden opportunity. Such people enter a never-ending descent into lower and lower realms of existence. An example given in most commentaries is that of kumbhipaaka, where individuals spend their time in a pot of boiling oil.
God makes this decision according to the nature and karma of the individual. Thus, the demoniac is sent into lower and degraded wombs, even to the level of snakes, lizards, and scorpions, which are receptacles for the evil-minded.
Such is the rare and special nature of a human birth, that most spiritual masters have mentioned it in their texts. Shankaraachaarya begins the Vivekachoodamani text with this proclamation: “For beings a human birth is hard to win, then manhood and holiness, then excellence in the path of wise law; hardest of all to win is wisdom. Discernment between Self and not-Self, true judgment, nearness to the Self of the Eternal and Freedom are not gained without a myriad of right acts in a hundred births”.
First thing is the wrong action itself will produce a pāpam. That is one negative point; and another worse thing is every action that I do, creates a vāsana, an inclination in my mind, because the mind has the capacity to form addiction in whatever it does; the mind has the capacity to form a habit of whatever we do.
Anything you do for a few days; you form a habit. And Krishna says that āsūric people have developed asura vāsanas and because of the karma, vāsanas develop, because of the vāsanas, I repeat the same karma. Like any addiction, first cigarette is smoked because of the will; and then a vāsana smoking vāsana comes; not vāsana is smoking. Vāsana for smoking and the second time there is a vāsana which is pulling more; freewill’s contribution is lesser and if he has smoked a few hundreds of cigarettes in few months or few years, with regard to cigarette, his will power is zero. Simply he will not be able to get out of it even though I tell him he is all powerful Brahman; in front of cigarette he is brahman only and not Brahman; he is wonderful in all other places, in this place he will not be able to do anything; it may be drug, it may be liquor, it may be smoke, cigarette, in fact, even our activities are capable of forming addiction; and this can be favorably used, the addiction forming capacity can be favorably used by us; how, by developing śubha vāsana.
janmani janmani, because karma is responsible for vāsana, vāsana is responsible for further karma, further karma is responsible for further vāsana. Thus, janma after janma they come more and more down.
That is why they say, saying No to any addiction is easier in the beginning. The first No is the easiest. Second No is more difficult; and therefore, they say do not go near, even friendship you keep only with those people, who are dhārmic, satsaṅgha sarvata kārya; Narada tells in Bhakthi sūtra; a good company can only bring out such person from this hard circle.
The practical implication of this shloka is the importance of free will. Only a human has the ability to shape his or her destiny. Plants, animals and birds cannot do so. All they can do is follow their instincts and their sense organs. If we also start ignoring our intellect and empowering our sense organs, there remains no difference between us and animals. We lose all traces of sattva, and only exist through rajas and tamas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परमात्मा का कहना है कि अत्यन्त कृपा कर के मैंने जीवों को मनुष्य शरीर दे कर इन्हें अपना उद्धार करने का मौका दिया और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे परन्ते ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस शरीर से मेरी प्राप्ति करनी थी, उस से मेरी प्राप्ति न कर के उलटे अधम गति को चले गये।
वे मूढ, अविवेकीजन, जन्म जन्म में यानी प्रत्येक जन्म में आसुरी योनि को पाते हुए अर्थात् जिन में तमोगुण की बहुलता है, ऐसी योनियों में जन्मते हुए, नीचे गिरते गिरते मुझ ईश्वर को न पाकर, उन पूर्वप्राप्त योनियों की अपेक्षा भी अधिक अधमगति को प्राप्त होते हैं। मुझे प्राप्त न हो कर ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे द्वारा कहे हुए श्रेष्ठ मार्ग को भी न पाकर, क्योंकि मेरी प्राप्ति की तो उन के लिये कोई आशङ्का ही नहीं है।
भगवत्प्राप्ति के अथवा कल्याण के उद्देश्य से दिये गये मनुष्य शरीर को पाकर भी मनुष्य कामना, स्वार्थ एवं अभिमान के वशीभूत हो कर चोरी डकैती, झूठ कपट, धोखा, विश्वासघात, हिंसा आदि जिन कर्मों को करते हैं, उनके दो परिणाम होते हैं – (1) बाहरी फलअंश और (2) भीतरी संस्कार अंश।
दूसरों को दुःख देने पर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है, जो प्रारब्ध से होनेवाला है परन्तु जो दुःख देते हैं, वे नया पाप करते हैं, जिस का फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना ही नहीं, दुराचारों के द्वारा जो नये पाप होने के बीज बोये जाते हैं अर्थात् उन दुराचारों के द्वारा अहंता में जो दुर्भाव बैठ जाते हैं, उन से मनुष्य का बहुत भयंकर नुकसान होता है।
पहली बात तो यह है कि गलत कार्य अपने आप में पाप उत्पन्न करेगा। यह एक नकारात्मक बिंदु है; और दूसरी बदतर बात यह है कि मैं जो भी कार्य करता हूँ, उससे मेरे मन में वासना, एक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, क्योंकि मन में यह क्षमता होती है कि वह जो कुछ भी करता है, उसमें लत डाल दे; मन में यह क्षमता होती है कि हम जो कुछ भी करते हैं, उसकी आदत डाल दे। आप कुछ दिनों तक जो कुछ भी करते हैं, उसकी आदत पड़ जाती है। और कृष्ण कहते हैं कि आसुरिक लोगों ने आसुर वासना विकसित कर ली है और कर्म के कारण वासना विकसित होती है, वासना के कारण मैं वही कर्म दोहराता हूँ। किसी भी लत की तरह; पहले इच्छा के कारण सिगरेट पी जाती है; और फिर वासना धूम्रपान करने वाली वासना आती है; वासना धूम्रपान नहीं है। धूम्रपान करने के लिए वासना और दूसरी बार एक वासना होती है जो अधिक खींच रही होती है; स्वतंत्र इच्छा का योगदान कम है और अगर उसने कुछ महीनों या कुछ वर्षों में कुछ सौ सिगरेट पी हैं, तो सिगरेट के संबंध में, उसकी इच्छा शक्ति शून्य है। बस वह इससे बाहर नहीं निकल पाएगा, भले ही मैं उसे बताऊं कि वह सर्वशक्तिमान ब्रह्म है; सिगरेट के सामने वह केवल ब्रह्म है, ब्रह्म नहीं; वह अन्य सभी स्थानों पर अद्भुत है, इस स्थान पर वह कुछ भी करने में सक्षम नहीं होगा; यह दवा हो सकती है, यह शराब हो सकती है, यह धूम्रपान हो सकता है, सिगरेट हो सकती है, वास्तव में, यहां तक कि हमारी गतिविधियां भी लत बनाने में सक्षम हैं; और इसका अनुकूल रूप से उपयोग किया जा सकता है, लत बनाने की क्षमता का हमारे द्वारा अनुकूल रूप से उपयोग किया जा सकता है; कैसे, शुभ वासना विकसित करके।
जन्मानि जन्मानि, क्योंकि कर्म वासना के लिए जिम्मेदार है, वासना आगे के कर्म के लिए जिम्मेदार है, आगे के कर्म आगे की वासना के लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रकार जन्म दर जन्म वे और अधिक नीचे आते जाते हैं।
इसीलिए वे कहते हैं, किसी भी लत को शुरू में ना कहना आसान होता है। पहली ना सबसे आसान होती है। दूसरी ना ज़्यादा कठिन होती है; और इसीलिए वे कहते हैं कि पास मत जाओ, यहाँ तक कि दोस्ती भी सिर्फ़ उन्हीं लोगों से रखो, जो धार्मिक हों, सत्संग सर्वत्र कार्य करें; नारद भक्ति सूत्र में कहते हैं; कि सत्संग से ही जीव के विचार और आचरण में सुधार हो सकता है।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य अपनी आसुरी प्रवृत्तियों के वश में उनका दास बना रहता है तब तक वह उसी प्रकार के हीन जन्मों को प्राप्त होता रहता है। वह आत्मा के परमानन्द स्वरूप का अनुभव नहीं कर पाता है। अब तक दैवी और आसुरी सम्पदाओं का स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन किया गया है। बहुसंख्यक लोगों की न्यूनाधिक मात्रा में असुरों की श्रेणी में ही गणना की जा सकती है। परन्तु एक आध्यात्मिक साधक को केवल ऐसे वर्णनों से सन्तोष नहीं होता। वह अपनी पतित अवस्था से स्वयं का उद्धार करना चाहता है। अत, अब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मानवमात्र के आत्मविकास का पथ प्रदर्शन करते हैं।
व्यवहारिक दृष्टिकोण से आसुरी प्रवृति न्यून या अधिक मात्रा में कलयुग में सभी मे होती है। महाभारत काल के बहुसंख्यक चरित्र चित्रण में हम अपने चरित्र को भी किसी न किसी रूप में पा सकते है, किन्तु उन में कुछ चरित्र ऐसे भी रहे जो आत्मिक रूप से पूर्णतः तमोगुण से युक्त नही थे। उन में मानवीय गुणों में कुछ बिंदु ऐसे भी थे जिस के कारण उन का पतन न हो कर उद्धार हुआ। यही अब तक के विश्लेषण की महत्ता है कि अब हमें उन गुणों के सार को जानना है जो आसुरी प्रवृति के प्रवर्तक है और जिन्हें आगे के श्लोक में वर्णित किया गया है।
वैदिक संस्कृति कार्य – कारण के सिद्धांत और पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान्यता देता है, इसलिए जो जैसी संगती और कर्म करता है, उस के फल के आधार पर अगला जन्म प्राप्त करता है। निम्न कोटि या असुर वृति के कार्यों के परिणाम भी वैसे ही निम्न स्तर के होते है, जिसे से जीव अमूल्य मानव शरीर पा कर भी मोक्ष के लिए दैवीय गुणों को धारण नही करते हुए, जब असुर गुणों के कर्म करता है, तो अगले जन्म में निम्न कोटि का जीव बन कर कष्ट भी भोगता है।
पूर्वश्लोक में भगवान् ने कहा कि ये जीव मनुष्य शरीर में मेरी प्राप्ति का अवसर पाकर भी मुझे प्राप्त नहीं करते, जिस से मुझे उनको अधम योनि में भेजना पड़ता है। उन का अधम योनि में और अधम गति(नरक) में जानेका मूल कारण क्या है, यदि मनुष्य इस को जान ले तो वह पतन के मार्ग से बच के निकल सकता है। इस को हम आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.20।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)