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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.19 II

।। अध्याय      16.19 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.19

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌ ।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

“tān ahaḿ dviṣataḥ krūrān,

saḿsāreṣu narādhamān..।

kṣipāmy ajasram aśubhān,

āsurīṣv eva yoniṣu”..।।

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऎसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ। (१९)

Meaning:

Those who are hateful, cruel, they are wretched in this world. Definitely, I cast such inauspicious people into devilish wombs, repeatedly.

Explanation:

What happens to people who, through their devilish behaviour, cause trouble to everyone and everything around them? Shri Krishna says that through their behaviour, such people become naraadhamaan, the lowest of the humans, the most wretched category of people in this world. They mistakenly think that they are above the law. But they are not above the law of karma. Ishvara ensures that such people get the punishment that they deserve, which is rebirth into devilish wombs such as those of animals and insects.

Let us first examine the symbolic meaning of this shloka. As we have seen in earlier chapters, we are at our best when the intellect has supremacy over our senses and our mind. But in people with devilish attributes, this picture becomes topsy turvy. The senses rule over the intellect. Logic, reason, duty, all such characteristics of the intellect are suppressed. Only sensual consumption takes precedence.

Each time someone gives precedence to their senses as opposed to their intellect, their ego, their sense of I, ties yet another know, makes yet another association with the senses. Symbolically, each time this happens, they take birth in a devilish womb. This situation cannot carry on for a while. History is full of tyrants and dictators who let their greed get the better of them, made one miscalculation, and died horrible deaths at the hands of their subjects or their enemies.

Literally, this shloka asserts the working of the law of karma. Out of nowhere, we find that we experience unexpected professional success, monetary and personal gains. Similarly, we find that unexpectedly, we have to go through a rough, painful patch. Good or bad actions that we have performed in our present life, or perhaps in a previous life, always bring their consequences back to us. In fact, whenever we are going through a rough patch, we should be glad that the consequences of our bad actions are getting exhausted.

Shree Krishna once again describes the repercussions of the demoniac mentality. He says that in their next lives, he gives them birth in families with similar mentalities, where they get a suitable demoniac environment to exercise their free will and heartily vent their degraded nature. Similarly, people who commit devilish actions also get their payback. But their payback is harsher than what most of us go through. Shri Krishna says that such people take birth into species such as animals and insects. In such species, there is no scope for using the intellect to gain self-realization and liberation. Only humans have this ability. Any state where we cannot access the intellect, whether we are in a human form or not, is the worst punishment possible.

From this verse, we can also infer that it is not in the soul’s hands to choose the species, abode, and environment of its next birth. God makes this decision according to the nature and karma of the individual.

।। हिंदी समीक्षा ।।

सातवें अध्याय के पंद्रहवें और नवें अध्याय के बारहवें श्लोक में वर्णित आसुरी सम्पदा का इस अध्याय के सातवें से अठारहवें श्लोक तक विस्तार से वर्णन किया गया। अब आसुरी सम्पदा के विषय का इन दो (उन्नीसवें – बीसवें) श्लोकों में उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सब से वैर रखते हैं और सब का अनिष्ट करने पर ही तुले रहते हैं। उन के कर्म बड़े क्रूर होते हैं, जिन के द्वारा दूसरों की हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे वे क्रूर, निर्दयी, हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्यों में महान् नीच हैं – नराधमान्। 

उन को मनुष्यों में नीच कहने का मतलब यह है कि नरकों में रहनेवाले और पशुपक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मों का फल भोग कर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्याय पाप कर के पशुपक्षी आदि से भी नीचे की ओर जा रहे हैं। इसलिये इन लोगों का सङ्ग बहुत बुरा कहा गया है बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।  नरकों का वास बहुत अच्छा है, पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्ट का सङ्ग कभी न दे क्योंकि नरकों के वास से तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है, पर दुष्टों के सङ्ग से अशुद्धि आती है, पाप बनते हैं पापके ऐसे बीज बोये जाते हैं, जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी पूरे नष्ट नहीं होते।

परमात्मा कहते है कि सन्मार्ग के प्रतिपक्षी और मेरे तथा साधु पुरुषों के साथ द्वेष करने वाले उन सब अशुभ कर्मकारी क्रूर नराधमों कोमैं बारंबार संसार में — नरक प्राप्ति के मार्ग में जो प्रायः क्रूर कर्म करनेवाली व्याघ्रसिंह आदि आसुरी योनियाँ हैं उन में ही सदा गिराता हूँ क्योंकि वे पापादि दोषों से युक्त हैं। पापी व्यक्ति का भी उद्धार भी परमात्मा कर देते है, यदि वह तामसी वृति को त्याग कर सात्विक वृति में परमात्मा की शरण ले।

यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता ईश्वर के रूप में यह वाक्य कह रहे हैं कि मैं उन्हें आसुरी योनियों में गिराता हूँ। मनुष्य अपनी स्वेच्छा से शुभाशुभ कर्म करता है और उसे कर्म के नियमानुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। अत इस फल प्राप्ति में ईश्वर पर पक्षपात का आरोप नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, जब एक न्यायाधीश अपराधियों को कारावास या मृत्युदण्ड देता है, तो उसे पक्षपाती नहीं कहा जाता, क्योंकि वह तो केवल विधि के नियमों के अनुसार ही अपना निर्णय देता है। इसी प्रकार, आसुरी भाव के मनुष्य अपनी निम्नस्तरीय वासनाओं से प्रेरित होकर जब दुष्कर्म करते हैं, तब उन्हें उनके स्वभाव के अनुकूल ही बारम्बार आसुरी योनियों में जन्म मिलता है। यहाँ इंगित किये गये पुनर्जन्म के सिद्धांत का एकाधिक स्थलों पर विस्तृत विवेचन किया जा चुका है।

जीव अकर्ता, साक्षी, नित्य और शुद्ध है, जो कर्म ही नही करता, वह दोषी कैसे हो सकता है। किंतु यह समस्त क्रियाएं प्रकृति अपने त्रय गुणों में जीव के चारो ओर करती है। जीव का अज्ञान अहंकार, कर्ता, कामना और आसक्ति में प्रकृति के जुड़ जाता है, जिस से वह प्रकृति के क्षणिक सुख – दुख को अपना समझ कर भोगने लगता है। तामसी वृति अर्थात असुर वृति में स्वार्थ, काम, क्रोध की अधिकता से मन का संतुलन बिगड़ जाता है, वह ईर्ष्यालु, क्रोधी, दूसरो को कष्ट दे कर आनंद लेने वाला, लोभी, कपटी, झूठ बोलने वाला बन जाता है। योगमाया परमात्मा के अधीन अवश्य है किंतु कार्य – कारण के नियम में जैसी करनी वैसी भरनी में कार्य करने को स्वतंत्र है। मनुष्य को कर्म करने के अधिकार है, इसलिए किसी भी कर्म के फल भी उसे ही भोगने है। यह फल तुरंत फल देने के अतिरिक्त, संचित, प्रालब्ध और क्रियामान संचित कर्म कई जन्मों के होते है। इसलिए जीव जीव के भेद को अज्ञानी पुरुष नही समझते, और दुख मिलने पर परमात्मा को दोष देने लगते है। परमात्मा तो सभी के लिए समान भाव से उपलब्ध है। किंतु भोग अपनी की करनी के है, जान कर या अंजान में जो भी कर्म है, उस का फल अवश्य मिलेगा। असुर वृति का इतना सरल और विस्तृत वर्णन करते हुए परमात्मा प्रत्येक प्राणी को सचेत करते है कि वे आप को आप के कर्मो के फल भोगने से नही बचाएंगे, जिस से योगमाया के कार्य में बाधा न आए।

भगवान् का उन क्रूर, निर्दयी मनुष्यों पर भी अपनापन है। भगवान् उन को पराया नहीं समझते, अपना द्वेषी वैरी नहीं समझते, प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे, जो भक्त जिस प्रकार भगवान् की शरण लेते हैं, भगवान् भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं। ऐसे ही जो भगवान् के साथ द्वेष करते हैं, उन के साथ भगवान् द्वेष नहीं करते, प्रत्युत उन को अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्य से अपनापन करते हैं, उस मनुष्य को ज्यादा सुख आराम देकर उसको लौकिक सुखमें फँसा देते हैं परन्तु भगवान् जिनसे अपनापन करते हैं उन को शुद्ध बनाने के लिये वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं, जिस से वे सदा के लिये सुखी हो जायँ – उन का उद्धार हो जाय। जैसे, हितैषी अध्यापक विद्यार्थियों पर शासन करके, उन की ताड़ना कर के पढ़ाते हैं, जिस से वे विद्वान् बन जायँ, उन्नत बन जायँ, सुन्दर बन जायँ, ऐसे ही जो प्राणी परमात्मा को जानते नहीं, मानते नहीं और उन का खण्डन करते हैं, उन को भी परम कृपालु भगवान् जानते हैं, अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियों में गिराते हैं, जिस से उन के किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध, निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।

भौतिकवाद में स्वार्थ, लोभ और अहंकार में सनातन संस्कृति का ह्रास हुआ है तो इस प्रकार धार्मिक जीवन भी आम हिन्दू के जीवन से गायब हो जाता है; उन सभी चीजों को आप महसूस कर सकते हैं, लेकिन आप आजकल पाएंगे कि ये लोग अपनी छवि धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने में लगे  हैं; वे अपना धर्म भी नहीं दिखाना चाहते हैं। धर्मनिरपेक्ष कहना भी धर्म ही है, जब सनातन संस्कृति किसी भी जीव को हानि नहीं पहुंचाने की हो, सभी मतों का सम्मान करने की हो और अपने लिए जितना आवश्यक है उतना ही रख कर सृष्टि के कल्याण के लिए वितरित करने की हो तो धर्म निरपेक्ष होने का क्या अर्थ होगा। धर्म निरपेक्ष हमे अपनी ही संस्कृति से विमुख करता है, भीरू बनाता है, हमारे आत्मसम्मान को नष्ट करता है। कभी किसी अन्य मत के लोगों से यह शब्द सुना है? नहीं होगा! क्योंकि सभी अपने अपने मतों का आदर करते है, उस के प्रति समर्पित है। फिर चाहे वह मत उन्हे अन्य धर्म से घृणा करना ही क्यों न सिखाता हो।

इसलिए कृष्ण कहते हैं; दविषत: वे इन सभी चीजों को नापसंद करते हैं; हम भारत में भी देख सकते हैं, आधुनिक समाज में जो आ रहा है; जैसा कि मैंने उस दिन कहा, वे तिलक भी नहीं लगाना चाहते हैं, क्योंकि यह फिर से उनके धर्म की घोषणा करना है कि मैं एक भक्त हूँ; मैं एक हिंदू हूँ; मुझे यह घोषित करने में बुरा क्यों लगता है कि मैं एक वैदिक हूँ; मैंने सुना है कि सिख धर्म के लोग, वे पूरी दुनिया में हैं, उन में से कुछ दूसरे देशों की सेना में भी हैं और उन्होंने सरकार से लड़ाई की है और कहा है कि हम अपनी पगड़ी, अपने केश और हम अपनी कृपाण रखेंगे और उन्होंने मुकदमा लड़ा और जीता; उन्हें यह घोषणा करने में बहुत गर्व महसूस होता है कि मैं सिख धर्म का हूँ  हम किसी को बताना नहीं चाहते, और नाम भी इस तरह से चुने जाते हैं और आपको पता नहीं है कि वे क्या हैं? मूल नाम मीनाक्षी, कामाक्षी है,..वे अपनी बेटियों के नाम पिंकी, चिंकी आदि रखते हैं, लेकिन वे अपनी पहचान प्रकट नहीं करना चाहते। पहरावे से ले कर अपने संस्कृति और इष्ट का मजाक उड़ाना या इन के लिए आधुनिकता है और इन पर भौतिकवाद भारी है। केवल भगवान ही ऐसे लोगो  को बचाएँ। वे ही भगवान, जिन के मंदिर आदि जाने तक से परहेज करते हैं। इन में वह लोग भी है जिन्होंने जन्म चाहे वैदिक धर्म में लिया हो, चाहे कुल में ब्राह्मण ही क्यों न हो, वह भौतिकवाद और स्वार्थ, अहम, दर्प और लोभ में सनातन संस्कृति की विनाश के लिए अधर्मियों लोगो से मिल जाते है। महाभारत में दुर्योधन और रामायण काल में रावण का साथ देने वाले अनेक लोग थे। जो किसी न किसी भी कारण से अधर्म के साथ खड़े थे। भीष्म की प्रतिज्ञा, कर्ण की मित्रता और द्रोणाचार्य की दासता उन के सनातन सत्व के विरुद्ध थी और वे उस के कारण अपने मूल धर्म को छोड़ कर अधर्म के पक्ष में खड़े हो गए। आज भी अधर्म के पक्ष में खड़े लोग के प्रवृति उन का स्वार्थ, लोभ, कर्तव्य या दासता है। यही आसुरी और दैविक प्रवृति है और दूसरी तरफ इन सब में भी जो क्रूर हैं; और वे अपने व्यवहार में बहुत ही असभ्य हैं, उन में विनम्रता, संस्कृति, परिष्कार की कमी है और नराधमन, वे मनुष्यों में सबसे नीच हैं और अशुभ। तो वे सभी अशुभ के प्रतिनिधि हैं; अशुभ का अर्थ है। आध्यात्मिकता में गिरावट; अमंगलम, जिसका अर्थ है धर्म और मोक्ष में गिरावट, वे अमंगल के प्रतिनिधि हैं।

व्यवहार में अधिक आधुनिक और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो कर विशेष तौर पर हिंदू पीढ़ी देवी देवताओं का पूजन, तिलक लगाने या मंदिर आदि जाने में शर्म महसूस करती है और अशीलता में वस्त्र से ले कर पीने – खाने को आधुनिकता मानती है। धन किसी भी मार्ग से मिले, वह उपयोगी है, उस से किसी को दान देना पुण्य समझे, किंतु आचरण में लोभ में कुछ भी करने को तैयार रहना, असुर वृति है। संसार में जो कुछ भी दुख बट रहा है, वह इसी वृति की देन है। इस का हश्र क्या होगा, यह अगले श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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