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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  02. 23 -24 ।। Additional II

।। अध्याय    02. 23 – 24  ।। विशेष II    

।। अज्ञान से ज्ञान की ओर ।। विशेष 02. 23-24 ।।

वेदों में ज्ञान को तीन पृथक विभागो में प्राप्त कर सकते है। प्रथम भाग धर्म है जिसे सामान्य व्यक्ति को जीवन व्यापन के नियम और उपनियम, रीति – रिवाजों में बांटा गया है, इन सब का उद्देश्य सामान्य व्यक्ति में अध्यात्म बना रहे। प्राय: हिंदू परिवारों में यह नियम आधारित धर्म का पालन सदियों से हो रहा है। इस ले लिए पुराणों एवम नीति शास्त्र भी कहे और पढ़े जाते है। मंदिरों में पूजा की पद्धति से ले कर सामाजिक और पारिवारिक व्यवहार हम इस से सीखते है। यह प्रथम भाग धर्म कहलाता है। इसी का कोई भाग मत और संप्रदाय भी कहलाता है। सभी के धर्म के नियम विभिन्न होने से एकरूप नही होते, जब की सभी धर्मो का मूल उद्देश्य एक होता है। अज्ञानी लोग स्वार्थ में अपने अपने धर्म के आधार पर ही विभाजित हो कर झगड़ते भी रहते है।

द्वितीय विभाग अध्यात्म का है,  जिसे से हम प्रकृति और आत्म तत्व को जान सकते है। इस के  लिए विवेक बुद्धि और अभ्यास से हम सनातन ज्ञान को ज्ञानी पुरुष के सत्संग और उन का शिष्यत्व ग्रहण कर के सीखते है। इस ज्ञान से अभ्यास में योग आदि द्वारा सिद्धियां भी प्राप्त हो जाती है, किंतु ज्ञानी पुरुष में द्वैत भाव बना रहता है जिस का कारण उस का अहंकार है।अध्यात्म का अन्य स्वरूप ज्ञान है। जिसे ज्ञान है, वह धर्म के  मार्ग पर लोगो को भी ले कर चलता है।

तृतीय विभाग में अध्यात्म द्वारा अध्यास किया जाता है जिस से अहम को समाप्त करते हुए जीव अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। ब्रह्म स्वरूप जीव ही जान सकता है कि आत्मा क्या है? आध्यात्मिक जीव का ज्ञान बुद्धि का ज्ञान है। अर्जुन ने जो ज्ञान प्राप्त किया था वह आध्यात्मिक ज्ञान था, इसलिए वह शास्त्रों की बाते कर रहा था। ब्रह्म स्वरूप व्यक्ति कुछ नही करता किंतु उस के अधीन प्रकृति ही वह सब करती है जिसे सामान्य जन ब्रह्म स्वरूप व्यक्ति द्वारा किया समझता है।

प्रस्तुत श्लोक एवम ज्ञान अर्जुन के  उस सनातन धर्म के अधपके ज्ञान पर प्रहार है जिस में वह धर्म शास्त्र का सहारा ले कर कहता है कि युद्ध मे समाज को दिशा देने वाले नष्ट हो जाएंगे। स्त्रियां भ्रष्ट हो जाएगी। कुल का नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाता है। अर्जुन मानता था कि कुलधर्म ही सनातन है, कुलधर्म ही शाश्वत है। सनातन धर्म की विवेचना काम, मोह एवम लोभ के आधार पर की जाती है तो कोई भी धर्मशास्त्र आत्मा के शुद्ध एवम नित्य ज्ञान को प्रकाशित नही करता। वह प्रकृति का राजसी या तामसी ज्ञान ही होता है। सात्विक ज्ञान और उस से परे का ज्ञान ही ब्रह्म अर्थात आत्मा का ज्ञान है।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के इस रूढ़ि वादी ज्ञान को खंडित करते है एवम स्पष्ट करते है कि सनातन धर्म आत्म तत्व का ज्ञान है। शास्त्रो में वर्णित ज्ञान को रूढ़िवादी बना कर उसे ही सनातन धर्म समझना गलत है।

आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त अनेक व्यक्ति संसार के लिए लोकसंग्रह का कार्य करते हुए ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होते है कि उन को पूजने और मानने वाले अपने निजी स्वार्थ के रहते, उन को परमात्मा का स्वरूप मानते है और आपस में बहस करते है या लड़ते है। ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त प्रत्येक जीव में विभिन्नता हो ही नही सकती। इसलिए अज्ञानता के कारण अध्यात्म पर आधारित अर्ध परिपक्व ज्ञान से जो मत या संप्रदाय या धर्म के अनुयायी, में अपने मार्ग को श्रेष्ठ बताने और दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ होती है। जबकि सनातन सत्य यही है कि ब्रह्म के स्वरूप में कोई विभाजन या भेद ही नही है।

हमे यह भी समझना जरूरी है कि परब्रह्म की स्थिति को प्राप्त परमात्मा स्वरूप को जो शिष्य बन कर अपनाता है या उन के मत या विचारो को मान कर एक वर्ग विशेष बना कर पूजता है, उसे गति या मुक्ति मत या संप्रदाय बना कर या पूजने या भक्ति से तब तक नही मिलती, जब तक वह अध्यास से अपने अज्ञान को दूर नही करता। कहने का तात्पर्य यही है, ब्रह्मवित स्थिति प्रत्येक जीव की व्यक्तिगत है, सामूहिक नही हो सकती। परंतु सामूहिक सात्विक गुणों के साथ रहा जा सकता है।

आज भी अनेक हिन्दू व्हाट्सएप्प पर सदाचारों से भरे संदेश भेज कर अपने सनातन धर्म के ज्ञान का कर्तव्य निभा कर इतिश्री कर देते है। कोई भी आत्म तत्व के ज्ञान की गम्भीरता को नही समझ पा रहा। छुआछूत, जातिवाद, कर्मकांड एवम अतिशयोक्ति से भरे आध्यात्मिक ज्ञान की बाते करते है किंतु मन- बुद्धि में विकार भी रखते है। स्वधर्म या सनातन धर्म की रक्षा करने हेतु एवम अन्याय के विरुद्ध कर्तव्य धर्म के पालन की बजाय अर्जुन की भांति अज्ञान से भरे अपने सनातन धर्म की बाते करते है। अपने आचरण एवम विचारों में कोई परिवर्तन लाये, भावनाओ को प्रभावित किये वचन एवम चित्रों का प्रेषण यही सिद्ध करता है की व्यक्ति का सनातन धर्म का शास्त्र ज्ञान बिना आत्मतत्व है। हमलोग बिना पढ़े ही परंपरागत प्राप्त ज्ञान को सनातन ज्ञान समझ कर तर्क भी करने लग जाते है, जैसे अर्जुन ने कुल के नाश एवम जिन के हम जीना चाहते,उन को मार कर ऐशवर्य के भोग को ही अपने लिये शास्त्र ज्ञान समझ लिया है जबकि  भोग-विलास तो सनातन धर्म मे ज्ञान की परिभाषा मे भी नही लिया जाता।

आतातायी एवम दुष्ट लोगो के संहार की जगह अर्जुन कुलधर्म एवम मोह में यदि सनातन धर्म के ज्ञान का सहारा ले रहा है तो भगवान श्री कृष्ण उस के ज्ञान की पूर्णतः पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए, वास्तविक सनातन धर्म के ज्ञान को बताना शुरू करते है जो आत्मा के ज्ञान से शुरू होता है।

अर्ध एवम मिथ्या ज्ञान, अज्ञान से ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि इस मे मनुष्य न केवल गलत तथ्यों का सहारा ले कर अपने अधर्म को सही ठहराता है, समाज एवम संस्कृति को भी दूषित करता है।

धर्म-अधर्म को न समझने से ही मनुष्य अपने सनातन धर्म की गंभीरता एवम गहराई से वंचित हो कर अपने ही धर्म का नाश भी करता है।

आज हम में कितने लोग धर्म ग्रंथो का अध्ययन करते है, अध्यनन के बात उस पर मनन करते है। मनन के बात उसे आत्मसात करते है। जब तक सनातन धर्म को आत्म सात नही किया जाता, तब तक सनातन धर्म के प्रवाचक शास्त्र का सहारा ले कर समाज मे अज्ञान का ही प्रसार करते है। गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के माध्यम से उस के अज्ञान स्वरूपी शास्त्र ज्ञान में आत्मा का ज्ञान दे कर उसे सही मार्गदर्शन दे रहे है।

वर्ण व्यवस्था को किस प्रकार कर्म की बजाए जन्म पर आधारित करने से जातिवाद अभिशाप ही हो गया और शासन की चाह में नेतृत्व द्वारा धर्म को इतनी बार तोड़ा गया कि सनातन धर्म को समझने वाले समाज का वर्ग ही कुछ चंद लोगो मे सीमित हो गया।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने प्रथम अध्याय में अर्जुन के अधपके अध्यात्म के ज्ञान को सुना, इस लिए यह आवश्यक था कि उसे अध्यात्म का पूरा ज्ञान दिया जाए जिस से वह अपने ब्रह्म स्वरूप को जान सके। जो जीव अपने ब्रह्म स्वरूप को जान लेता है वह ही अभ्यास और अध्यास से अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त भी कर सकता है। अर्थात ज्ञान मार्ग है जिस से हम अपने ब्रह्म स्वरूप को पूर्व में ज्ञानी पुरुषो द्वारा प्राप्त अनुभवों को जानकर आगे बढ़े। ज्ञान स्वयं में ब्रह्म की प्राप्ति नही, जब तक जीव अपना संबंध प्रकृति से कायम रखता है, वह प्रकृति के आधीन का ही जीव है और जिस दिन वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है, प्रकृति उस अधीन हो जाती है।

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अध्यात्म और ब्रह्मस्वरूप के ज्ञान देने का निश्चय संसार के लिए मार्ग प्रशस्त करने उद्देश्य किया। अर्जुन को अपने आध्यात्मिक ज्ञान पर अहंकार था, जो हम आज भी अनेक ज्ञानी पुरुषो में देखते है। उस के आध्यात्मिक ज्ञान को सही दिशा देने की आवश्यकता आज भी समाज के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी महाभारत काल में थी। सनातन कभी पुराना या अनुपयोगी नही हो सकता, वेद सनातन है, वो उस काल में जितने सत्य थे, आज भी उतने सत्य है, इसलिए सनातन है। यही बात उपनिषदों और गीता के बारे में कही जाती है। जिसे ज्ञान के लिए परमात्मा की प्रेरणा होती है, प्रकृति के अज्ञान से ब्रह्म को प्राप्त करने की छटपटाहट होती है, वही वेदों, उपनिषदों और गीता के ज्ञान की ओर बढ़ता है।क्योंकि प्रकृति भी अपना कार्य इतनी कुशलता से करती है कि अच्छे अच्छे ज्ञानी पुरुष भी अपने अज्ञान को ही ज्ञान मान कर संसार के सृष्टि यज्ञ चक्र में परमात्मा की लीला का हिस्सा बन कर रह जाते है।

भगवान के श्रीमुख से ब्रह्म के ज्ञान की गीता को हम आत्मसात करते हुए अर्जुन की भांति आगे जिज्ञासा के साथ पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2. 23-24 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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