।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.09 II
।। अध्याय 16.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 16.9॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥
“etāḿ dṛṣṭim avaṣṭabhya,
naṣṭātmāno ‘lpa- buddhayaḥ..।
prabhavanty ugra- karmāṇaḥ,
kṣayāya jagato ‘hitāḥ”..।।
भावार्थ:
इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार करने वाले मनुष्य जिनका आत्म-ज्ञान नष्ट हो गया है, बुद्धिहीन होते है, ऎसे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य केवल विनाश के लिये ही अनुपयोगी कर्म करते हैं जिससे संसार का अहित होता है। (९)
Meaning:
Holding this view, these narrow minded, lost souls who engage in acts of terror, rise as enemies of the world for its annihilation.
Explanation:
It is like a person with four sense organs. Imagine a person has only four sense organs by birth. He does not have eyes. He has got ears, tongue, nose and skin. And I talk about the field of sight, world of colours, I say that there is a world of colours. He says I do not believe in that; I do not accept that, because I am not able to appreciate the colours with my four sense organs. And I say No. that you cannot know that, because the available four sense organs do not have access to the colours. It has to be known through the fifth sense organs, eyes, I tell. And this person argues that No, I do not believe the fifth sense organ. I want to prove the colours with the help of the 4 sense organs; he wants the proof for the colour through the ears, or prove the colour through the nose, through the tongue, skin, through the available four pramāṇas. He is not interested in the fifth sense organ which reveals a field not available for these four.
Similarly, our culture talks about a sixth sense organ. What is the sixth sense organ? That is called Vēdāh. And we want to prove that with the help of the available five sense organs, we can only say that the available sense organs do not have access to that; you have to use the sixth. And if a person refuses to use the eyes, which is the fifth sense organ, who is the loser. I will not use the yes and will not use it, he is only going to be the loser, neither the eye nor the world of colours. If I should benefit from the world of colours, I should be willing accept a fifth sense organ called the eye, which sense organ can never be proved by the other four sense organs. There was one moment in their life where they realized that using physical force on another person gave them power and joy. In other words, they did not have any regard for the consequences of their actions, especially when it came to harming others. Such people are the embodiment of the aasuric or the devilish tendencies.
By rejecting the Vēdā, Vēdā is not the loser; not the new aparuṣeya prapañcaḥ, I am going to be the loser. But this materialistic people will never understand the significance of the sixth sense organ. They claim that they are rational people, they will believe in only those things which can be proved through five sense organs. Like the other fool. What does he want? he wants the proof for the colour with the help of the other 4 sense organs; how can I prove it? It is not possible.
In this fashion, the demoniac-minded reject the eternality of the soul and the possibility of karmic reactions, so that they may engage in self-serving and even cruel deeds without any qualms. If they happen to possess power over other humans, they impose their misleading materialistic views upon them as well. They do not hesitate to aggressively pursue their self-centered goals, even if it results in grief to others and destruction to the world. In history, humankind has repeatedly witnessed megalomaniac dictators and emperors, such as Hitler, Mussolini, Stalin, etc. who were motivated by their perverse views of the truth and brought about untold suffering and devastation to the world.
Shri Krishna now begins to describe such people in great detail. First, he says that such people hold a petty, narrow-minded view of the world. If I win, someone has to lose, this is their outlook. They have no sense of connectedness, nothing in common with anyone else. They are nashthaatmaanaha, they are lost souls. They have no concept that there is something beyond the physical body, whether it is God, soul, humanity, nationality, nothing at all.
Now when such people don’t have any connection with other human beings, with the rest of the world, they have no qualms in engaging in acts of terror. We nowadays come across people who create and deploy computer viruses, bombs, chemical weapons and so on. It all begins with a seemingly simple notion – that the body is the only truth in this world, and that everything is justified in preserving one’s body at the expense of someone else’s.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में आसुरी प्रवृति का दर्शन शास्त्र जानने के बाद, यहाँ हम भगवान श्री कृष्ण द्वारा उन की विचारधारा को समझते है।
उदाहरण के लिए यह चार इंद्रियों वाले व्यक्ति की तरह है। कल्पना कीजिए कि एक व्यक्ति के जन्म से केवल चार इंद्रिय अंग होते हैं। उसके पास आंखें नहीं हैं। उसके पास कान, जीभ, नाक और त्वचा है। और मैं दृष्टि के क्षेत्र, रंगों की दुनिया के बारे में बात करता हूं, मैं कहता हूं कि रंगों की दुनिया है। वह कहता है कि मुझे उस पर विश्वास नहीं है; मैं इसे स्वीकार नहीं करता; क्योंकि मैं अपने चार इंद्रियों के साथ रंगों की सराहना नहीं कर पा रहा हूं। और मैं कहता हूं कि नहीं। कि आप यह नहीं जान सकते, क्योंकि उपलब्ध चार इंद्रियों के पास रंगों तक पहुंच नहीं है। मैं बताता हूं कि पांचवीं इंद्रिय अंगों, आंखों के माध्यम से इसे जाना जाना चाहिए। और इस व्यक्ति का तर्क है कि नहीं, मैं पांचवीं इंद्रिय अंग पर विश्वास नहीं करता। मैं 4 इंद्रियों की मदद से रंगों को साबित करना चाहता हूं; वह कानों के माध्यम से रंग का प्रमाण चाहता है, या उपलब्ध चार प्रमाओं के माध्यम से नाक के माध्यम से, जीभ, त्वचा के माध्यम से रंग साबित करता है। वह पंचम भाव के अंग में रुचि नहीं रखता है जो इन चारों के लिए उपलब्ध क्षेत्र को प्रकट नहीं करता है।
इसी तरह हमारी संस्कृति छठी इंद्री के बारे में बात करती है। छठी इंद्री क्या है? इसे वेद कहते हैं। और हम यह साबित करना चाहते हैं कि उपलब्ध पाँच इंद्रियों की मदद से हम सिर्फ़ इतना कह सकते हैं कि उपलब्ध इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं है; आपको छठी इंद्री का इस्तेमाल करना होगा। और अगर कोई व्यक्ति आँखों का इस्तेमाल करने से मना कर देता है, जो पाँचवीं इंद्री है, तो कौन हारेगा। मैं हाँ का इस्तेमाल नहीं करूँगा और इसका इस्तेमाल नहीं करूँगा, सिर्फ़ वही हारेगा, न आँख का और न ही रंगों की दुनिया का। अगर मुझे रंगों की दुनिया से फ़ायदा उठाना है, तो मुझे आँख नामक पाँचवीं इंद्री को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए; जिस इंद्री को बाकी चार इंद्रियों से कभी साबित नहीं किया जा सकता।
वेद को अस्वीकार करने से वेद की हानि नहीं होगी; नया अपरुषेय प्रपंच नहीं, मैं ही हानि उठाने जा रहा हूँ। लेकिन ये भौतिकवादी लोग छठी इंद्री के महत्व को कभी नहीं समझेंगे। वे दावा करते हैं कि वे विवेकशील लोग हैं, वे केवल उन्हीं बातों पर विश्वास करेंगे जिन्हें पाँच इंद्रियों के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है। दूसरे मूर्ख की तरह। वह क्या चाहता है? वह अन्य चार इंद्रियों की सहायता से रंग का प्रमाण चाहता है; मैं इसे कैसे सिद्ध कर सकता हूँ? यह संभव नहीं है।
राक्षसी मानसिकता वाले लोग आत्मा की शाश्वतता और कर्म प्रतिक्रियाओं की संभावना को अस्वीकार करते हैं, ताकि वे बिना किसी झिझक के स्वार्थी और क्रूर कर्मों में संलग्न हो सकें। यदि वे अन्य मनुष्यों पर शक्ति रखते हैं, तो वे उन पर भी अपने भ्रामक भौतिकवादी विचारों को थोपते हैं। वे अपने स्वार्थी लक्ष्यों को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाने में संकोच नहीं करते, भले ही इसका परिणाम दूसरों को दुःख और दुनिया के विनाश के रूप में क्यों न हो। इतिहास में, मानव जाति ने बार-बार हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन आदि जैसे महापागल तानाशाहों और सम्राटों को देखा है, जो सत्य के अपने विकृत विचारों से प्रेरित थे और दुनिया में अनगिनत दुख और तबाही लाए।
न कोई कर्तव्य- अकर्तव्य है, न शौचाचार- सदाचार है, न ईश्वर है, न प्रारब्ध है, न पापपुण्य है, न परलोक है, न किये हुए कर्मों का कोई दण्डविधान है – ऐसी नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेकर आसुरी वृति के लोग चलते हैं।
आत्मा कोई चेतन तत्त्व भी नही है, आत्मा की कोई सत्ता भी नही है। वे तो इस बात को मानते हैं कि भौतिक तत्त्वों के मिलने से एक चेतना पैदा हो जाती है। वह चेतन कोई अलग चीज है, यह बात नहीं है। उन की दृष्टि में जड ही मुख्य होता है। इसलिये वे चेतनतत्त्व से बिलकुल ही विमुख रहते हैं। चेतनतत्त्व(आत्मा) से विमुख होने से उन का पतन हो चुका होता है।
उन में जो विवेक विचार होता है, वह अत्यन्त ही अल्प, तुच्छ होता है। उन की दृष्टि केवल दृश्य पदार्थों पर अवलम्बित रहती है कि कमाओ, खाओ, पीओ और मौज करो। आगे भविष्य में क्या होगा परलोक में क्या होगा ये बातें उन की बुद्धि में नहीं आतीं। यहाँ अल्पबुद्धि का यह अर्थ नहीं है कि हरेक काम में उन की बुद्धि काम नहीं करती। सत्यतत्त्व क्या है धर्म क्या है अधर्म क्या है सदाचार- दुराचार क्या है और उन का परिणाम क्या होता है इस विषय में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। परन्तु धनादि वस्तुओं के संग्रह में उन की बुद्धि बड़ी तेज होती है। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक उन्नति के विषय में उन की बुद्धि तुच्छ होती है और सांसारिक भोगों में फँसने के लिये उन की बुद्धि बड़ी तेज होती है।
वे किसी से डरते ही नहीं। यदि डरेंगे तो चोर, डाकू या राजकीय आदमी से डरेंगे। ईश्वर से, परलोक से, मर्यादा से वे नहीं डरते। ईश्वर और परलोक का भय न होने से उन के द्वारा दूसरों की हत्या आदि बड़े भयानक कर्म होते हैं।
उनका स्वभाव खराब होने से वे दूसरों का अहित (नुकसान) करने में ही लगे रहते हैं और दूसरों का नुकसान करने में ही उनको सुख होता है।
उन के पास जो शक्ति है, ऐश्वर्य है, सामर्थ्य है, पद है, अधिकार है, वह सब का सब दूसरों का नाश करने में ही लगता है। दूसरों का नाश ही उनका उद्देश्य होता है। अपना स्वार्थ पूरा सिद्ध हो या थोड़ा सिद्ध हो अथवा बिलकुल सिद्ध न हो, पर वे दूसरों की उन्नति को सह नहीं सकते। दूसरों का नाश करने में ही उन को सुख होता है अर्थात् पराया हक छीनना, किसी को जान से मार देना – इसी में उन को प्रसन्नता होती है। सिंह जैसे दूसरे पशुओंको मारकर खा जाता है? दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करता और राजकीय स्वार्थी अफसर जैसे दस, पचास, सौ रुपयों के लिये हजारों रुपयों का सरकारी नुकसान कर देते हैं, ऐसे ही अपना स्वार्थ पूरा करनेके लिये दूसरोंका चाहे कितना ही नुकसान हो जाय, उस की वे परवाह नहीं करते। वे आसुर स्वभाववाले पशु पक्षियों को मारकर खा जाते हैं और अपने थोड़े से सुख के लिये दूसरों को कितना दुःख हुआ – इस को वे सोच ही नहीं सकते।
जब कभी मनुष्य को स्वयं का ही विस्मरण हो जाता है, तब वह अपने जन्म, शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक प्रतिष्ठा के सर्वथा विपरीत एक विक्षिप्त अथवा मदोन्मत्त पुरुष के समान निन्दनीय व्यवहार करता है। पशुवत व्यवहार करता हुआ वह अपने विकास की दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान करता है। अल्पबुद्धय जब कोई पुरुष जगत् के अधिष्ठान के रूप में श्रेष्ठ और दिव्य सत्य का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता है, तब वह अत्यन्त आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी पुरुष बन जाता है। तत्पश्चात् उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य अधिकाधिक व्यक्तिगत लाभ अर्जित करना होता है। विषय वासनाओं की तृप्ति के द्वारा वह परम सन्तोष और आनन्द प्राप्त करने का सर्वसम्भव प्रयत्न करता है, परन्तु अन्त में निराशा और विफलता ही उसके हाथ लगती है। करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें अल्पबुद्धि कहकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हैं। उग्रकर्मी यदि कोई व्यक्ति वास्तव में लोकतान्त्रिक और सहिष्णु विचारों का हो तो उस के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि यदि कोई नास्तिक भोगवादी पुरुष पारमार्थिक सत्य में विश्वास नहीं भी करता है, तो अन्य लोगों को उससे भिन्न सत्य श्रद्धा और विचार रखने की स्वतन्त्रता क्यों न हो ऐसे प्रश्न का पूर्वानुमान करके भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी स्वभाव के श्रद्धाहीन पुरुष में यही विवेक नहीं रह पाता है और वह सभी स्तरों पर निरंकुश व्यवहार करने लगता है। अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर कभीकभी ऐसे शक्तिशाली लोग अपने युग में घोर, विपत्तियों को उत्पन्न कर देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से, आज का जगत् उसी संकटपूर्ण स्थति से गुजर रहा है जिसके विषय में गीता ने पूर्वानुमान के साथ बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी जो भौतिकवादी आसुरी लोग सत्य में श्रद्धा नहीं रखते हैं, वे अनजाने ही समाज के सामंजस्य में ऐसी विषमता और विकृति उत्पन्न करते हैं कि जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व विनाशकारी युद्ध के रक्तपूर्ण दलदल में फँस जाता है।
आधुनिक युग में स्वार्थ में व्यापार में धोका देना, ऐशो – आराम के लिए होटल, स्त्रियों, मदिरा एवम अशीलता पूर्वक आचरण और माता – पिता एवम पूज्य लोगो का अपमान करना संस्कार रहित हो कर आसुरी वृति में रहने के समान है।
जहाँ सत्कर्म, सद्भाव और सद्विचार का निरादर हो जाता है, वहाँ मनुष्य कामनाओं का आश्रय लेकर क्या करता है – इस को आगे पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता – 16.09।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)