।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 16.08 II Additional II
।। अध्याय 16.08 II विशेष II
।। दर्शन शास्त्र – शब्दावली ।। विशेष भाग 2, 16.08 ।।
दर्शन शास्त्र उन महापुरुष का इस प्रकृति, जीवन – मृत्यु और मृत्यु के पश्चात पर विभिन्न विचारो का संग्रह है, सनातन में मुख्य छह दर्शन शास्त्र है, किंतु इस को समझने से पूर्व कुछ शब्दावली भी समझना जरूरी है। गीता वेदांत के दर्शन शास्त्र पर आधारित है। वेदांत दर्शन शास्त्र का आधुनिकतम दर्शन है। सनातन दर्शन शास्त्र में प्रत्येक विचारधारा को सम्मान दिया गया है, इसलिए चार्वाक, बुद्ध और जैन विचारधारा की विभिन्नता को भी स्वीकार किया गया है। यहां चार्वाक जैसे भौतिकवादी विचारधारा को काफिर कह कर मारने का फतवा नहीं जारी हुआ, बल्कि चार्वाक को भी ऋषि या मुनि ही माना गया है, यही संस्कृति और मत में अंतर भी है। दर्शन शास्त्र में प्रत्येक विचारधारा को दर्शन शास्त्र की उन्नति के लिए स्वीकार भी किया गया है, इसलिए ज्ञान और विज्ञान की उन्नति के साथ दर्शन शास्त्र में यथोचित परिवर्तन किए गए और आज के विज्ञान में भारतीय दर्शन शास्त्र ही चुनौती देता है और कोई भी मत आज के विज्ञान का उत्तर देने में असमर्थ है।
ज्ञान
निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति ही ज्ञान है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख इत्यादि भावों से निरपेक्ष होता है। इसका विभाजन विषयों के आधार पर होता है। विषय पाँच होते हैं – रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श।
ज्ञान लोगों के भौतिक तथा बौद्धिक सामाजिक क्रियाकलाप की उपज, संकेतों के रूप में जगत के वस्तुनिष्ठ गुणों और संबंधों, प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों के बारे में विचारों की अभिव्यक्ति है। ज्ञान दैनंदिन तथा वैज्ञानिक हो सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान आनुभविक और सैद्धांतिक वर्गों में विभक्त होता है। इसके अलावा समाज में ज्ञान की मिथकीय, कलात्मक, धार्मिक तथा अन्य कई अनुभूतियाँ होती हैं। सिद्धांततः सामाजिक- ऐतिहासिक अवस्थाओं पर मनुष्य के क्रियाकलाप की निर्भरता को प्रकट किये बिना ज्ञान के सार को नहीं समझा जा सकता है। ज्ञान में मनुष्य की सामाजिक शक्ति संचित होती है, निश्चित रूप धारण करती है तथा विषयीकृत होती है। यह तथ्य मनुष्य के बौद्धिक कार्यकलाप की प्रमुखता और आत्मनिर्भर स्वरूप के बारे में आत्मगत- प्रत्ययवादी सिद्धांतों का आधार है। स्वाभाविक और सहज शब्दों में हम ज्ञान को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं “अनुभव की अनुभूति ही ज्ञान कहलाता है।”
सिद्धांत
सिद्धांत, सिद्धि का अंत है। यह वह धारणा है जिसे सिद्ध करने के लिए, जो कुछ हमें करना था वह हो चुका है और अब स्थिर मत अपनाने का समय आ गया है। धर्म, विज्ञान, दर्शन, नीति, राजनीति सभी सिद्धांत की अपेक्षा करते हैं।
धर्म
धर्म के संबंध में हम समझते हैं कि बुद्धि, अब आगे आ नहीं सकती; शंका का स्थान विश्वास को लेना चाहिए। विज्ञान में समझते हैं कि जो खोज हो चुकी है, वह वर्तमान स्थिति में पर्याप्त है। इसे आगे चलाने की आवश्यकता नहीं। प्रतिष्ठा की अवस्था को हम पीछे छोड़ आए हैं और सिद्ध नियम के आविष्कार की संभावना दिखाई नहीं देती। दर्शन का काम समस्त अनुभव को गठित करना है; दार्शनिक सिद्धांत समग्र का समाधान है। अनुभव से परे, इसका आधार कोई सत्ता है या नहीं? यदि है, तो वह चेतन के अवचेतन, एक है या अनेक, ऐसे प्रश्न दार्शनिक विवेचन के विषय हैं।
विज्ञान और दर्शन में ज्ञान प्रधान है, इसका प्रयोजन सत्ता के स्वरूप का जानना है। नीति और राजनीति में कर्म प्रधान है। इनका लक्ष्य शुभ या भद्र का उत्पन्न करना है। इन दोनों में सिद्धांत ऐसी मान्यता है जिसे व्यवहार का आधार बनाना चाहिए।
धर्म के संबंध में तीन प्रमुख मान्यताएँ हैं-
1) ईश्वर का अस्तित्व, स्वाधीनता, अमरत्व। कांट के अनुसार बुद्धि का काम प्रकटनों की दुनियाँ में सीमित है, यह इन मान्यताओं को सिद्ध नहीं कर सकती, न ही इन का खंडन कर सकती है। कृत्य बुद्धि इन की माँग करती है; इन्हें नीति में निहित समझ कर स्वीकार करना चाहिए।
2) विज्ञान का काम “क्या’, “कैसे’, “क्यों’-इन तीन प्रश्नों का उत्तर देना है। तीसरे प्रश्न का उत्तर तथ्यों का अनुसंधान है और यह बदलता रहता है। दर्शन अनुभव का समाधान है। अनुभव का स्रोत क्या है? अनुभववाद के अनुसार सारा ज्ञान बाहर से प्राप्त होता है, बुद्धिवाद के अनुसार यह अंदर से निकलता है, आलोचनावाद के अनुसार ज्ञान सामग्री प्राप्त होती है, इसकी आकृति मन की देन है।
3) नीति में प्रमुख प्रश्न नि:श्रेयस का स्वरूप है। नैतिक विवाद बहुत कुछ भोग के संबंध में है। भोगवादी सुख की अनुभूति को जीवन का लक्ष्य समझते हैं; दूसरी ओर कठ उपनिषद् के अनुसार श्रेय और प्रेय दो सर्वथा भिन्न वस्तुएँ हैं।
राजनीति
राजनीति राष्ट्र की सामूहिक नीति है। नीति और राजनीति दोनों का लक्ष्य मानव का कल्याण है;श् नीति बताती है कि इसके लिए सामूहिक यत्न को क्या रूप धारण करना चाहिए। एक विचार के अनुसार मानव जाति का इतिहास स्वाधीनता संग्राम की कथा है और राष्ट्र का लक्ष्य यही होना चाहिए कि व्यक्ति को जितनी स्वाधीनता दी जा सके, दी जाए। यह प्रजातंत्र का मत है। इसके विपरीत एक-दूसरे विचार के अनुसार सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी खराबी व्यक्तियों में स्थिति का अंतर है; इस भेद को समाप्त करना राष्ट्र का लक्ष्य है। कठिनाई यह है कि स्वाधीनता और बराबरी दोनों एक साथ नहीं चलतीं। संसार का वर्तमान खिंचाव इन दोनों का संग्राम ही है।
यथार्थ
यथार्थ का अर्थ सर्वमान्य है। व्यवस्थित रूप का ज्ञान यथार्थ ज्ञान कहलाता है जिसकी होने की संभावना सर्वाधिक हो, वही यथार्थ है। कल्पना से बड़ा कोई यथार्थ नहीं होता।
यथार्थ सिद्धांतो के तराजू का वो पलड़ा है जो सर्वहित भाव के अधिक भार से अभिभूत हो कर अपलावित होता है…. भाव से यथार्थ को अनुभव किया जा सकता है।
दृष्टिकोण
दृष्टिकोण = का शाब्दिक अर्थ यह है कि हम किसी विषय या वस्तु को किस तरफ से या किस तरह से देख रहे हैं या किस प्रकार से देख रहे हैं। अलग-अलग तरह से देखने पर एक ही विषय या वस्तु के अलग-अलग रूप देखने को मिल सकते हैं। ‘दृष्टिकोण’ का अलग-अलग क्षेत्रों में उपयोग होता है।
समाज
समाज एक से अधिक लोगों के समुदायों से मिलकर बने एक वृहद समूह को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते हैं। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण, सामाजिक सुरक्षा और निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती हैं। समाज लोगों का ऐसा समूह होता है जो अपने अंदर के लोगों के मुकाबले अन्य समूहों से काफी कम मेलजोल रखता है। किसी समाज के आने वाले व्यक्ति एक दूसरे के प्रति परस्पर स्नेह तथा सहृदयता का भाव रखते हैं। दुनिया के सभी समाज अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए अलग- अलग रस्मों-रिवाज़ों का पालन करते हैं।
विज्ञान
विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति के क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित ज्ञान को विज्ञान कहते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के ‘ज्ञान-भण्डार’ के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है। या प्रकृति में उपस्थित वस्तुओं के क्रमबध्द अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करने को ही विज्ञान कहते हैं। या किसी भी वस्तु के बारे में विस्तृत ज्ञान को ही विज्ञान कहते हैं।
किसी भी वस्तु के बारे में जानकारी ग्रहण करना और जानकारी को सही तरीकों से लागू करना एवं किसी भी वस्तु का सही अवलोकन करना एवं उसका विश्लेषण करना ही विज्ञान है।
‘वि’ का अर्थ है विकास करना और विज्ञान का अर्थ हुआ विकास करने वाला ज्ञान।
शिक्षा से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान तब विज्ञान से विकास होता है।
इतिहास
इतिहास का प्रयोग विशेषतः दो अर्थों में किया जाता है। एक है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन घटनाओं के विषय में धारणा इतिहास शब्द (इति + ह + आस ; अस् धातु, लिट् लकार अन्य पुरुष तथा एक वचन) का तात्पर्य है “यह निश्चित था”। ग्रीस के लोग इतिहास के लिए “हिस्तरी” (history) शब्द का प्रयोग करते थे। “हिस्तरी” का शाब्दिक अर्थ “बुनना” था। अनुमान होता है कि ज्ञात घटनाओं को व्यवस्थित ढंग से बुनकर ऐसा चित्र उपस्थित करने की कोशिश की जाती थी जो सार्थक और सुसंबद्ध हो। इस प्रकार इतिहास शब्द का अर्थ है – परम्परा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उस में अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का काल क्रमानुसार वर्णन होता है। दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है। या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानवजाति से संबंधित घटनाओं का वर्णन इतिहास है। इन घटनाओं व ऐतिहासिक साक्ष्यों को तथ्य के आधार पर प्रमाणित किया जाता है।
इतिहास के मुख्य आधार युगविशेष और घटनास्थल के वे अवशेष हैं जो किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं। जीवन की बहुमुखी व्यापकता के कारण स्वल्प सामग्री के सहारे विगत युग अथवा समाज का चित्रनिर्माण करना दुःसाध्य है। सामग्री जितनी ही अधिक होती जाती है उसी अनुपात से बीते युग तथा समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करना साध्य होता जाता है। पर्याप्त साधनों के होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि कल्पनामिश्रित चित्र निश्चित रूप से शुद्ध या सत्य ही होगा। इसलिए उपयुक्त कमी का ध्यान रखकर कुछ विद्वान् कहते हैं कि इतिहास की संपूर्णता असाध्य सी है, फिर भी यदि हमारा अनुभव और ज्ञान प्रचुर हो, ऐतिहासिक सामग्री की जाँच-पड़ताल को हमारी कला तर्कप्रतिष्ठत हो तथा कल्पना संयत और विकसित हो तो अतीत का हमारा चित्र अधिक मानवीय और प्रामाणिक हो सकता है। सारांश यह है कि इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जाँच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्व समझने के विवेक के साथ ही साथ ऐतिहासक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है। स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है। इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है।
यथार्थवाद, यथार्थपरक या यथार्थवादी का संबंध निम्नांकित संदर्भों से हो सकता है :
यथार्थवाद (कला) –
सामान्यतः किसी कलारूप की चाक्षुष, सामाजिक अथवा भावनात्मक परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल यथावत प्रस्तुति।
यथार्थवाद (अंतरराष्ट्रीय संबंध)
यथार्थवाद (रंगमंच)
साहित्यिक यथार्थवाद
दार्शनिक यथार्थवाद
वैज्ञानिक यथार्थवाद
यथार्थवाद (हिंदी साहित्य)
संशयवाद (skepticism)
वह मत है कि पूर्ण, असंदिग्ध या विश्वसनीय ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, अथवा किसी क्षेत्र-विशेष में (तत्वमीमांसीय, नीतिशास्त्रीय, धार्मिक इत्यादि) या साधन-विशेष (तर्कबुद्धि, प्रत्यक्ष, अंतःप्रज्ञा इत्यादि) से ऐसा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
जैसा श्री शिवादित्य ने सप्तपदार्थी नामक ग्रंथ में लिखा है (अनवधारण ज्ञान संशयः) संशय अनिश्चित ज्ञान या संदिग्ध अनुभव को कहते हैं। तर्कसंग्रह के अनुसार संशय वह ज्ञान है जिसमें एक ही पदार्थ अनेक विरोधी धर्मो या गुणों से युक्त प्रतीत होता है (एकस्मिन् धर्मिणी विरुद्धनानाधर्मवैशिष्ट्यावगाहिज्ञानं संशयः)। उदाहरणार्थ, जब हम अँधेरे में किसी दूरस्थ स्तंभ को देखकर निश्चित रूप से यह नहीं जान पाते कि वह स्तंभ है तो हमारा मन दोलायमान हो जाता है और हम उस एक को पदार्थ में स्तंभत्व एवं मनुष्यत्व दो विभिन्न धर्मों का आरोप करने लगते हैं। न तो हम निश्चयपूर्वक यह कह सकते हैं कि वह पदार्थ स्तंभ है और न यह कि वह मनुष्य है। मन की ऐसी ही विप्रतिपत्तियुक्त, द्विविधाग्रस्त, निश्चयरहित या विकल्पात्मक अवस्था को संशय कहा जाता है। यह अवस्था न केवल ज्ञानाभाव तथा (रज्जु के सर्प के) भ्रम या विपरीत ज्ञान (विपर्यय) से ही किंतु यथार्थ निश्चित्त ज्ञान से भी भिन्न होती है। अतः संशयवाद, नामक सिद्धांत के अनुसार निश्चित्त ज्ञान अथवा उसकी संभावना का निषेध किया जाता है। इस सिद्धांत को पूर्ण रूप से माननेवाले व्यक्तियों के विचारानुसार मानव को कभी भी और किसी भी प्रकार का वास्तविक या निश्चित ज्ञान नहीं हो सकता। संशयवादियों की राय में हमारे मस्तिष्क या मन की बनावट ही ऐसी है कि उसके द्वारा हम कभी भी संसार के या उसके पदार्थों के सही स्वरूप को अवगत कर सकने में समर्थ नहीं हो सकते।
(साभार – विकिपीडिया गूगल)
।। हरि ॐ तत् सत् ।। गीता विशेष भाग 2, 16.08 ।।
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