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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  16.08 II

।। अध्याय      16.08 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 16.8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌ ।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥

“asatyam apratiṣṭhaḿ te,

jagad āhur anīśvaram..।

aparaspara-sambhūtaḿ,

kim anyat kāma- haitukam”..।।

भावार्थ: 

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत्‌ झूठा है इसका न तो कोई आधार है और न ही कोई ईश्वर है, यह संसार बिना किसी कारण के केवल स्त्री-पुरुष के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, कामेच्छा के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नही है। (८)

Meaning:

They say that this world is unreal, without a basis, without a god. It is born of mutual union, desire is its only cause, what else.

Explanation:

Any philosophy, any world view has to answer some fundamental questions – who am I, what is the nature of this world, where did it come from, is there a god, and what is the relationship between the I, the world and god. In the fifteenth chapter, Shri Krishna described his worldview by answering all these questions. Here, he proceeds to describe the materialistic worldview, the worldview of the asuras, those with devilish qualities.

There are two ways of refraining from immoral behavior. The first is to refrain from unrighteousness through the exercise of will-power. The second way is to abstain from sin due to fear of God. People who have the ability to abstain from sinning merely by will-power are very few. The majority of people desist from doing wrong due to the fear of punishment. Thus, if we believe in God, out of fear of him we will refrain from immoral behavior. Instead, if we do not believe in God, all his laws will still be applicable to us, and we will suffer the consequences of wrong-behavior.

At its core, the materialistic viewpoint views everything as comprised of the five elements, or in today’s times, atoms and molecules. So then, the answer to the questions, who am I, and what is the cause of this world, is the same. I am nothing but a combination of the five elements, and the world is also nothing but a combination of the five elements. Both are caused by the union of elements, either through chemical or biological reactions that happen due to forces of attraction, forces of desire.

Now, if the world is comprised of nothing but inert matter, one will concluded that there is no truth to it, no basis to it, nothing higher to it. A divide starts to arise between the I and the world. If the world is an inert, unreal entity, why should I treat it with care? Anything, including lying, cheating and murder, is then justified. Materialists go one step further and assert that there is no governing principle in this world, no god. So, I can get away with whatever I want, because there is no law.

Dharma means that which sustains the universe. Dhr̥ means to sustain. Dhāranāt dharmaḥ. Moral order alone sustains. Once the morality goes from the society, there will be utter distress and confusion, and a society cannot survive for long. And therefore, scriptures talk about Dharmas, and these people do not believe in dharma because dharma is not visible to our eyes. They believe in the physical order of the universe, because it is scientifically provable. They believe in the scientific laws of the creation; like the law of gravitation; like the ecological laws, etc. but the laws of dharma they do not believe because it cannot be scientifically proved. And therefore, they say there is no dharma or adharma; there is no puṇyam or pāpam and therefore there is neither previous birth nor next birth. Enjoy this life; following whatever you feel like doing. Therefore, Vēdāḥ nasthi, dharmaḥ nasthi.

Those with demoniac natures do not wish to accept this imposition of authority and regulation of behavior that is a necessary corollary of belief in God. Instead, they prefer to subscribe to the view that there is no God, and the world has no basis for moral order. They propagate ideas such as the “Big Bang Theory,” which postulates that the world was created by an accidental explosion that took place at time zero of creation, and thus there is no God who sustains the world. Such theories permit them to engage in sensual gratification without scruples or fear of consequences.

Amongst the various forms of sensual gratification, sexual indulgence is the most intense. This is because the material realm is like a distorted reflection of the spiritual realm. In the spiritual realm, divine love is the basis of the activities of the liberated souls and their interactions with God. In the material realm, its distorted reflection, lust, dominates the consciousness of materially conditioned souls, particularly those under the mode of passion. Thus, the demoniac-minded see engagement in lustful activities as the purpose of human life.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में आसुरी संपदा के लोगो का आचरण पढ़ा, जिस में बताया गया कि इन लोगो की कोई प्रवृति, निवृति, शौच, अचार एवम सत्यता नही रहती। अब उन की विचारधारा दर्शनशास्त्र को पढ़ते है। कोई भी आचरण या विचार धारा किसी न किसी सिद्धांत या नियम पर आधारित है। आज के युग में एक वर्ग में आतंक फैलाने और हत्या करने के लिए कुछ लोग युवकों को बरगलाते है, तो उन्हे उस निषिद्ध कार्य में मृत्यु होने पर भी 72 हूर आदि का प्रलोभन देते है। कुछ लोभी ब्राह्मण  दक्षिणा में अधिक धन के लिए नरक और कष्टो का भय दिखाते है।

अनैतिक आचरण से बचने के दो तरीके हैं। पहला है इच्छाशक्ति के प्रयोग से अधर्म से दूर रहना। दूसरा है ईश्वर के भय से पाप से दूर रहना। केवल इच्छाशक्ति के द्वारा पाप से दूर रहने की क्षमता रखने वाले लोग बहुत कम हैं। अधिकांश लोग दंड के भय से गलत काम करने से बचते हैं।इस प्रकार, यदि हम ईश्वर में विश्वास करते हैं, तो उसके भय से हम अनैतिक व्यवहार से दूर रहेंगे। इसके बजाय, यदि हम ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो भी उसके सभी नियम हम पर लागू होंगे, और हम गलत व्यवहार के परिणाम भुगतेंगे।

वेदान्त एवम सांख्य के अनुसार प्रकृति एवम पुरुष दो मूल तत्व है एवम सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के अन्याय आश्रय से अर्थात परस्पर मिश्रण से यह सब व्यक्त पदार्थ उत्पन्न हुए है। जगत को नाशवान समझ कर वेदांती उस  के अविनाशी सत्य को खोज निकालता है और उसी सत्य तत्व को जगत का मूल आधार या प्रतिष्ठा मानता है।

धर्म का अर्थ है जो ब्रह्माण्ड को धारण करता है। धृ का अर्थ है धारण करना। धारणात् धर्मः। नैतिक व्यवस्था ही धारण करती है। एक बार समाज से नैतिकता चली जाए तो घोर संकट और भ्रम की स्थिति पैदा हो जाएगी और समाज लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता। और इसलिए शास्त्र धर्मों की बात करते हैं और ये लोग धर्म में विश्वास नहीं करते क्योंकि धर्म हमारी आँखों से दिखाई नहीं देता। वे ब्रह्माण्ड की भौतिक व्यवस्था में विश्वास करते हैं, क्योंकि यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है। वे सृष्टि के वैज्ञानिक नियमों में विश्वास करते हैं; जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम; जैसे पारिस्थितिक नियम, आदि, लेकिन वे धर्म के नियमों में विश्वास नहीं करते क्योंकि इसे वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। और इसलिए वे कहते हैं कि न तो धर्म है और न ही अधर्म; कोई पुण्य या पाप नहीं है और इसलिए न तो पिछला जन्म है और न ही अगला जन्म। इस जीवन का आनंद लो; जो भी करने का मन करे उसका पालन करो। इसलिए, वेदः नास्ति, धर्मः नास्ति।

आसुरी प्रकृति वाले लोग इस अधिकार के अधिरोपण और व्यवहार के विनियमन को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं जो ईश्वर में विश्वास का एक आवश्यक परिणाम है। इसके बजाय, वे इस दृष्टिकोण को स्वीकार करना पसंद करते हैं कि कोई ईश्वर नहीं है और दुनिया में नैतिक व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। वे “बिग बैंग थ्योरी” जैसे विचारों का प्रचार करते हैं, जो यह मानता है कि दुनिया एक आकस्मिक विस्फोट से बनी थी जो सृष्टि के शून्य समय पर हुआ था, और इस प्रकार कोई ईश्वर नहीं है जो दुनिया को बनाए रखता है। ऐसे सिद्धांत उन्हें बिना किसी संकोच या परिणामों के डर के कामुक संतुष्टि में संलग्न होने की अनुमति देते हैं।

वेदान्तिक सिद्धांतो के विपरीत असुर प्रवृति के सिद्धांत में 1) संसार असत्य है, परलोक के गुरु, माता – पिता, तीर्थ, व्रत, यज्ञ और दान आदि व्यर्थ है। 2) इस संसार का कोई आधार या नियामक नही है, प्रकृति एक स्वतंत्र संस्था है, सभ्यता का विकास मानव के बौद्धिक विकास, अन्वेषण और कल – कारखानों से हुई है। 3) इस संसार की उत्पत्ति का भी कोई कारण नहीं है, जो भी उत्पत्ति है वह स्त्री – पुरुष की मैथुन क्रिया का परिणाम है। अतः काम में जो आनंद है, उसी हेतु को भोगने के लिए संसार बना है। इसलिए मृत्यु  ही मुक्ति या मोक्ष है।

आसुरी प्रकृति वाले लोग इस अधिकार के अधिरोपण और व्यवहार के विनियमन को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं जो ईश्वर में विश्वास का एक आवश्यक परिणाम है। इसके बजाय, वे इस दृष्टिकोण को स्वीकार करना पसंद करते हैं कि कोई ईश्वर नहीं है और दुनिया में नैतिक व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। वे “बिग बैंग थ्योरी” जैसे विचारों का प्रचार करते हैं, जो यह मानता है कि दुनिया एक आकस्मिक विस्फोट से बनी थी जो सृष्टि के शून्य समय पर हुआ था, और इस प्रकार कोई ईश्वर नहीं है जो दुनिया को बनाए रखता है। ऐसे सिद्धांत उन्हें बिना किसी संकोच या परिणामों के डर के कामुक संतुष्टि में संलग्न होने की अनुमति देते हैं।

अपरस्परसम्भूतं” शब्द को काम हेतु संसार के निर्माण से जोड़ा गया है, किंतु एक विचार धारा में इस का अर्थ, असुर में पृथ्वी, जल, वायु और तेज इन चार तत्वों के परस्पर संयोग की क्रियाओं से यह जगत चलता है, यह भी मान्यता है।

कामुक तृप्ति के विभिन्न रूपों में, यौन भोग सबसे तीव्र है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भौतिक क्षेत्र आध्यात्मिक क्षेत्र का विकृत प्रतिबिंब है। आध्यात्मिक क्षेत्र में, दिव्य प्रेम मुक्त आत्माओं की गतिविधियों और भगवान के साथ उनकी बातचीत का आधार है। भौतिक क्षेत्र में, इसका विकृत प्रतिबिंब, वासना, भौतिक रूप से बद्ध आत्माओं की चेतना पर हावी है, विशेष रूप से वे जो वासना के गुण के अधीन हैं। इस प्रकार, आसुरी-मन वाले लोग कामुक गतिविधियों में संलग्न होने को मानव जीवन का उद्देश्य मानते हैं।

आसुरी संपदा मूलतः चार्वाक के दर्शन शास्त्र को मानता है। चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूल कारण क्या है, इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है।

चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पिबेत्’ (जब तक जीओ सुख से जीओ, उधार लो और घी पीयो।) की याद आएगी। प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पत्ति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं।

चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते। परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं। सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है सुखवाद। संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं। मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय, चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे, इत्यादि।

चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादिता का समर्थन करता है, वह अनुमान आदि प्रमाणों को नहीं मानता है। उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं मिलता है। चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। इस दर्शन में कहा गया है, कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है।

चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है।

प्रमेय अर्थात विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। आसुरी संपदा के नियम अ- परस्पर सम्भूत कहलाते है। जगत की उत्पत्ति का आधार स्त्री-पुरुष का संयोग ही है, अतः काम सुख का प्रथम आश्रय है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्त्द वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को अनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।

चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है। जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहता है। यही नरक है। इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता। यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत और चित स्वरूप मानते हैं न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं।

चार्वाक द्वारा प्रस्तुत दर्शन शास्त्र में, ऋषि बृहस्पति का भी नाम आता है, किन्तु निश्चय ही यह ऋषि देवगुरु बृहस्पति नही होंगे। जहाँ सद्भाव लुप्त हो जाते हैं, वहाँ सद्विचार काम नहीं करते अर्थात् सद्विचार प्रकट ही नहीं होते, श्रीकृष्ण ऐसे लोगों के भाग्य के प्रति सहानुभूति अनुभव करते हुए उन के कर्मों एवम उन के आचरण को भी समझना जरूरी है, जिसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता – 16.08।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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